वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में पूँजीवादी मीडिया और पूँजीवादी राजनीतिक संगठन कई घोटालों और भ्रष्टाचारों के खुलासे होने के कारण उछल कूद कर रहे हैं और राजनीति के पतन पर अपने विरोध का प्रदर्शन कर रहे है। पूँजीवादी व्यवस्था की इस बहती नदी में कई राजनीतिक संगठन पैदा हो गए हैं और "अपराधियों को सजा दिलाने के लिए", "काले धन को वापस लाने के लिए", "भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए" और "छोटी मुद्रा शुरू करके बड़ी रिश्वत रोकने के लिए" आदि जैसी अनेक माँगों को लेकर अभियान चला रहे है, आंदोलन कर रहे हैं और ज़ोरदार तरीकों से प्रदर्शन कर कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे घोटाले की बारिश के बाद पूँजीवादी तालाब और गड्ढों के किनारों पर निकल कर अनेक मेढक भ्रष्टाचार के विरोध में टर्राने लगे हों।
अगर हम इनसे पूछे कि "भ्रष्टाचार" के विरोध से मेहनतकश जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जो काम के दौरान, काम के बाद रास्तों में, घरों से लेकर किसी भी अन्य सामाजिक स्थल तक, हर पल, पूँजीवादी शोषण का सामना कर रही है। ये लोग नहीं बताते कि शोषण और अत्याचार झेल रही मेहनतकश जनता के लिए इनके न्याय का स्वरूप क्या होगा? हम उनसे पूँछना चाहते है कि, "समस्यायें किसे हैं, पहला) पूँजीपति वर्ग को, जो श्रम का शोषण करके संसाधनों का संचय कर रहा हैं और जिसने अनेक लोगों को उनके कार्य और आजीविका से बेदख़ल करके सड़क पर फेंक दिया है? या दूसरा) पूँजीवादी राजनीतिज्ञो को, जो पूँजीवाद के सुगम संचालन के लिए पूँजी का प्रबंधन (मैनेज) और जनता का उत्पीड़न करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं? या तीसरा) मध्य वर्ग और कुलीन वर्ग को, जिसे चैन की नाव में बैठ कर "बेचैनी" के साथ गरीबी की गंगा में मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा का विहार करने के लिए और दूसरों के श्रम पर जीने एवं मज़दूरों के शोषण का समर्थन करने के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रिश्वत दी जाती है?" या पूँजीवाद की ज़र्जर व्यवस्था में भ्रष्ट लोगों की कमी हो गई थी? पूँजीवाद के इन समर्थकों के लिए, जो पूँजीवाद को बचाने के लिए अपने घरों से बाहर निकल आए हैं, सारी समस्यायें सिर्फ "भ्रष्टाचार" के कारण मौजूद है। इसलिए वे चिल्लाते हैं, " भ्रष्टाचार के विरुद्ध हमारे साथ आइए।" ("और हम एक जादू की छड़ी घुमाएँगे और उसके बाद अन्य सभी समस्यायें ग़ायब हो जाएँगी!!")
यदि सीधे-सीधे कहें तो ये राजनीतिक संगठन भ्रष्टाचार विरोधी मांगों का ग्लूकोस देकर पूँजीवाद के राक्षस का जीवन थोड़ा और बढ़ना चाहते हैं| इन शब्दों को पढ़कर भ्रष्टाचार का विरोध करके "जनता" की "सेवा" करने वाले कई लोग गुस्से से अपनीं भौंहे ऊपर कर लेंगे और कई "भ्रष्टाचार" विरोधी इन तथ्यों को गलत सिद्ध करने के लिए अपने अनुमान के धनुष पर आलोचना के बाण रखकर चलानें लगेंगे, इन महारथियों को पूँजीवादी अखबारों और पत्रिकाओं के कुछ तथ्य देखने चाहिए,
पहला: भारत दस देशों के अरबपतियों की संख्या के बीच विश्व में शीर्ष से तीसरे स्थान पर है [टाइम्स लाइव, 30 सितम्बर 2010]। और भारत में अगले दस सालों में अरबपतियों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा होगी [सिलिकॉन इंडिया, मई 2008],
दूसरा: भारत के ५५% लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं, [द टाइम्स ऑफ इंडिया, 15 जुलाई 2010]च और पूँजीवादी संकट के परिणाम स्वरूप विकासशील देशों में 64 लाख से अधिक लोगों को अत्यधिक गरीबी की कतारों में जुडनें (१.२५ $ से कम की आमदनी पर आजीविका) की संभावना है [विश्व बैंक रिपोर्ट 2010]
तीसरा: विश्व की एक तिहाई गरीब आबादी अकेले भारत में रहती है [द टाइम्स ऑफ इंडिया 27 अगस्त 2008, —नया वैश्विक गरीबी अनुमान — विश्व बैंक]
चौथा: भारत के १०,००० लोगों में से केवल ९ लोग (०.०००९ %) प्रति माह १०,००० रुपये से अधिक कमा पाते हैं [भारतीय 'मध्यम वर्ग' के अधिकांश.., द टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 अगस्त 2010]|
पाँचवाँ: कई घोटालों के खुलासों से पता चला है कि सरकार पूँजीपति वर्ग के मुनाफे के लिए (बिना किसी भ्रष्टाचार के) अरबों रुपए "मदद" के लिए बांट देती है; और मेहनतकश जनता के श्रम से पैदा होने वाली राष्ट्रीय संपत्ति को पूँजीपतियों के बीच "सर्वश्रेष्ठ" तरीके से बांटने में "सक्षम" व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में भेजा जाता है, (जिन्हे जनतंत्र का प्रतिनिधि कहा जाता हैं) | [घोटाले के संबंधित नेताओं, उध्योगपतियों और प्रशासनिक अधिकारियों के बयान और लेख —द टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, आउटलुक, फ्रंटलाअन]
इन सभी तथ्यों के साथ कई अन्य तथ्य भी उपलब्ध है और संसदीय चुनावी राजनीत के बारे में आज सभी मेहनतकाश यह जानते हैं| यदि इनको अपने काल्पनिक शक की दरिद्रता से छुटकारा पाना हो तो उन्हें देख सकते हैं? इस समय गुस्से में ऊपर चड़ी हुए अपनी भौंहें को भी नीचे झुक लेना चाहिए| मेहनतकश लोगों को इन "पवित्र" पूँजीपतियों से (जिनमें कुछ संत भी हैं) कहना चाहिए कि हमारे साथ आइए और सबके लिए शोषण रहित समानता के विचारों का प्रचार कीजिए, क्योंकि गरीब मजदूर और किसान, जो वास्तव मे शोषण और उत्पीड़न से घिरे हुए अपना पूरा जीवन गुजारते है, उनके पास कुछ नहीं होता। और मेहनतकश जनता को समानता का अधिकार सिर्फ वोट डालने के लिए ही दिया गया है, जिसके वाद उसको अलग कर दिया जाता है और सारे समाज (को लूटनें) की "जिम्मेंदारी" कुछ चुनें हुए लोगों के हाथ में आ जाती है। और इनके जैसे लोगों को भ्रष्टाचार को हर समस्या की जिम्मेदार ठहराकर खुद पूँजीवाद की सेवा (कानूनी भ्रष्टाचार) में तल्लीन होने का मौका मिल जाता हैं | {See: आज जन-तंत्र का स्वरूप क्या है}
कई अन्य छोटे-पूँजीवादी नेता, अर्थशास्त्री, और मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी जोरदार तरीके से सुझाव देते है कि "ईमानदार" लोगों को राजनीति के "नियंत्रण" में ले आओ और सब सही हो जाएगा; (इनकी नजरों मे हर पैसे बाला "ईमानदार" है!) और उत्पादन संबंधों को बदलने की कोई आवश्यकता नही पड़ेगी। अब, हमें इनसे कहना (बताना!) चाहिए कि हर व्यक्ति "ईमानदार जन्म लेता है" और समाज की भौतिक परिस्थतियो —पूँजी द्वारा श्रम के शोषण और मुनाफा केंद्रित सामाजिक उत्पादन संबंधों— के प्रभाव से भ्रष्ट हो जाता है।
समाज के इन "उद्धारकों" ने आपनीं माँगों मे "ईमीनदारी" (पूँजीवाद के प्रति) के साथ सामाजिक उत्पादन संबंधों और समाज के आर्थिक ढाँचे के प्रश्नो से किनारा कर लिया है और यह लोग पूँजीवाद की स्वाभाविक गतिकी से होने वाले पूँजी के संचय और संपत्ति के केंद्रीकरण के बारे में कुछ नहीं बोलते। शेयर बाजार के जुआघर में वित्तीय पूँजी को ऐसा ही छोड़ देते हैं। और पूँजी द्वारा श्रम की लूट के बारे में कभी बात नहीं करते एवं अत्यंत "आसान" समाधान देते हैं कि विनिमय के साधनों को नियंत्रित करो। वे चिल्लाते है कि मुद्रा के बड़े . . . .