Saturday, June 9, 2012

यदि मंदिर नहीं होंगे, तो आदमीं चैन पाने के लिए कहाँ जाएगा?? ईश्वर का भौतिक फ़ायदा (थोड़ा) और नुकसान (बड़ा)!!


"यदि मंदिर नहीं होंगे, तो आदमीं कहाँ जाएगा, इंसान को कम से कम कोई तो ऐसी जगह चाहिए जहाँ जाकर वह थोड़ी देर के लिए शांति पा सके और चैन ले सके।", एक व्यक्ति ने भगवान के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मंदिर बनाने का समर्थन करते हुए कहा। एक दिन कुछ लोगों से बातचीत के दौरान धर्म, मंदिरों और ईश्वर पर बात हुई तो एक मित्र ने ईश्वर और मंदिरों के बारे में अपनी बात थोड़ी और स्पष्ट करते हुए यह बात कही।
वास्तव में यह किसी एक धार्मिक व्यकित का विचार ही नहीं हैं, बल्कि सचेतन या अचेतन रूप से सारे धार्मिक व्यक्ति यही सोचते हैं, और इसी विचार के साथ मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों में जाते हैं।
अपने काम से असंतुष्ट, समाज में अलगाव के शिकार, सामाजिक असुरक्षा से घिरे ज़्यादातर आम लोगों को उनके आस-पास की सामाजिक परिस्थितियों का दबाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एक निरुद्धेश्य-लक्ष्यहीन जीने के लिए मज़बूर करता है, इसलिए वे कभी धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से दूसरे लोक में मिलने वाली महानता की कल्पना करके चैन पा लेता है, तो कभी अपनी जिन्दगी की परिस्थितियों से ज्यादा परेशान होने पर मंदिरों-मस्जिदों में जाकर ईश्वर के सहारे "कुछ देर" के लिए चैन की तलाश करते हैं।  
इसके साथ समाज पर शासन करने वाले वर्गों को चैन भी मिला रहता है, क्योंकि यह सभी धार्मिक व्यक्ति अपनी परेशानियों और कुछ लोगों द्वारा अपने फ़ायदे के लिए समाज में मचाई गई लूट-ख़सोट पर भी ज़्यादातर कोई सवाला नहीं उठाते, क्योंकि वह तो पहले से ही "दूसरे लोक के सुखों", "ईश्वर के न्याय" और "कयामत के दिन पर न्याय" जैसे जुमलों को सुन कर दूसरे लोक में मिलने वाले आराम के बारे में सोच कर शान्त हो जाते हैं।

इसलिए जब एक धार्म-कर्म करने वाले व्यक्ति यह शब्द कहता है तो हमारे सामने धर्म और ईश्वर के पैदा होने से उनका अंत होने तक की हर भौतिक परिस्थिति की अभिव्यक्ति करा देता  है। धर्म और ईश्वर की कल्पना लोगों ने क्यों की, क्योंकि सदियों से समाज में आम लोगों को अपनी भौतिक परिस्थितियों में चैन नहीं मिला है। कभी वे ग़ुलाम थे तो गुलाम के मालिकों के लिए जानवरों की तरह काम करते थे, कभी वे भूदास और किसान थे जो जमींदारों के लिए बैलों की तरह खेतों में लगे रहते थे, और आज-कल जब वे मेहनत करने वाले हर प्रकार की "संपत्ति से स्वतंत्र" मज़दूर (मानशिक या शारीरिक) हैं तो पूँजीपतियों और ठेकेदारों के मुनाफ़े .... More...

Wednesday, June 6, 2012

गुड़गाँव में कम्पनियों की निरंकुशता के बीच मज़दूरों द्वारा किये जा रहे स्वतः-स्फूर्त आन्दोलनों पर एक नज़र!

गुड़गाँव में हो रही औद्योगिक प्रगति से आज पूरा देश परिचित हैं, और कई लोग सोचते हैं कि भारत न्यूयार्क और यूरोप को टक्कर दे रहा है। बड़ी-बड़ी इमारतें और कारख़ाने देखकर लोगों को लगता है कि गुड़गाँव तेजी से भारत के औद्योगिक विकास का केन्द्र बन रहा है, जहां अनेक कारख़ानों में लाखों मज़दूर काम में लगे हैं। लेकिन इस चमक-दमक के पीछे इन कारख़ानों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों की अंधेरी जिंदगी की सच्चाई कभी किसी के सामने नहीं आ पाती, जो पूरी दुनिया में अनेक प्रकार के उपभोक्ता सामान और उपकरणों की आपूर्ति के लिए जानवरों जैसी हालत में काम करने के लिए मज़बूर हैं।
1.
पिछले दिनों ओरियंट क्राफ्ट और ओरियो ग्रांट काँम्प्लेक्स में कम्पनी मैनेजमेण्ट और ठेकेदारों की तानाशाही और गुण्डागर्दी के विरोध में मज़दूरों के उग्र प्रदर्शनों का गुस्सा अभी तक शान्त नहीं हुआ है। इसी बीच गुड़गाँव के उद्योग विहार में स्थित मेडिकल के उपकरण बनाने वाली एक कम्पनी हरसोरिया हेल्थ केयर के सारे मज़दूर 24 अप्रैल 2012 से श्रम कार्यालय के बाहर हड़ताल पर बैठे हैं। आगे बढ़ने से पहले वर्तमान हड़ताल की पृष्ठभूमि और इससे पहले इस कंपनी में हुए मज़दूरों के संघर्षों पर एक नज़र डाल लेते हैं (जो सारी जानकारी मजदूरों से बात करने पर मिली...)। इस कम्पनी में मार्च 2010 में मज़दूरों ने अपनी ट्रेड यूनियन बनाई थी जिसका पंजीकरण मार्च 2011 में हो गया था। इसके कुछ दिन बाद ही कुछ मज़दूर नेताओं पर अनुशासन हीनता का आरोप लगाकर कम्पनी मैनेजमेण्ट द्वारा बर्ख़ास्त कर दिया गया। जिसके विरोध में मज़दूरों नें अप्रैल 2011 में हड़ताल की जिसके दौरान मज़दूरों को पुलिस और गुण्डो द्वारा मार-पीट और डराया धमकाया गया। पिछली हड़ताल की अगुवाई कर रही एच.एम.एस. ने मज़दूरों को समझौता करवाने के बाद कानूनी लड़ाई का रास्ता दिखा कर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करके काम पर बापस भेज दिया था। जिसके बाद एक साल से मज़दूर कोर्ट के चक्कर लगा रहे थे।
जनवरी 2012 में कम्पनी मैनेजमेण्ट ने उत्पादन में 35 प्रतिशत की कमी होने की बात कहकर मज़दूरों पर काम धीमा करने, दूसरे मज़दूरों को ओवर टाइम करने से रोकने और काम के दौरान अनुशासन का पालन न करने का आरोप लगाया और सभी मज़दूरों का नवम्बर 2011 से जनवरी 2012 तक 35 प्रतिशत वेतन काट लिया। इसी बीच नवम्बर 2011 में एक मज़दूर को कम्पनी से बर्ख़ास्त कर दिया गया, दिसम्बर 2011 की शुरूवात में दो और स्थाई मज़दूरों को बर्ख़ास्त कर दिया गया, 17 दिसम्बर 2011 को 13 मज़दूरों को निलंबित कर दिया गया। इसके बाद मज़दूरों ने मैनेजमेण्ट के साथ बातचीत की तब भी निलंबित किये गये 12 मज़दूरों को बापस नहीं लिया गया और अप्रैल में फिर से 12 में से 3 मज़दूरों को बर्ख़ास्त कर दिया गया।
2.
इन सभी घटनाओं से परेशान होकर अंत में 24 अप्रैल 2012 को मज़दूरों नें फिर हड़ताल कर दी और कम्पनी के अन्दर ही धरने पर बैठ गये। हड़ताल करने के बाद 25 अप्रैल को कम्पनी ने 21 स्थाई मज़दूरों को निष्कासित कर दिया और 109 मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया। हड़ताल के बाद 27 अप्रैल को मैनेजमेण्ट मज़दूरों को कम्पनी परिसर से बाहर निकलवाने के लिए कोर्ट से आदेश ले आया और अपने गुण्डों और पुलिस को बुलाकर अन्दर बैठे मज़दूरों के साथ मारपीट की और ज़बरदस्ती कम्पनी से बाहर निकाल दिया। कम्पनी से 50 मीटर दूर बैठने के बाद भी गुण्डों ने पुलिस के सामने ही मज़दूरों के साथ मारपीट की और पुलिस खड़ी देखती रही। इसके बाद सभी मज़दूर 27 अप्रैल से श्रम कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे हुए हैं। सभी मज़दूरों को बाहर निकालने के बाद दूसरे दिन से कम्पनी ने कुछ नये मज़दूरों को लाकर काम शुरू करवाने की अफ़वाह फैला दी। पुराने मज़दूरों द्वारा नये मज़दूरों को समझाकर काम पर न जाने देने के बाद प्रबंधन द्वारा लगभग 25 नये मज़दूरों को कम्पनी के अन्दर ही रहने-खाने और काम करने का इंतज़ाम करने की बात भी पता चली है। तब से अब तक लगभग 650 मज़दूर लेबर आफि़स पर धरने पर बैठे हैं, लेकिन अगुवाई कर रही हिन्द मज़दूर सभा के पास आगे की कार्रवाई की कोई योजना नहीं है। मज़दूरों ने बताया कि श्रम अधिकारी और मैनेजमेण्ट उनकी कोई बात सुनने के लिए ही तैयार नहीं हैं।
3.
हरसोरिया कम्पनी की वर्तमान स्थिति को देखें तो गुड़गाँव की इस यूनिट में 2003 से काम शुरू हुआ है और भारत में यह इसकी एकमात्र यूनिट है। यह कम्पनी मुख्य रूप से चिकित्सा के उपकरण बनाती है जिनका निर्यात यूरोप, सिंगापुर और कोरिया में किया जाता है। उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल चीन से आता है, जिनको असेंम्बल करने के बाद सिंगापुर और कोरिया में भेज दिया जाता है, जहां न्यूटेक कम्पनी उपकरणों को यूरोप के डेनमार्क, इटली और फ्रांस देशों में भेजती है। वर्तमान समय में कम्पनी में उत्पादन तेज गति से चल रहा था और कम्पनी का सालाना व्यापार लगभग 37 करोड़ रू. है, जिसमें से 650 मज़दूरों को वेतन के रूप में सालाना सिर्फ 12 प्रतिशत (4 करोड़) दिया जाता है। ऐसी स्थिति में स्थाई मज़दूरों की छटनी करने का उद्देश्य उन्हें डरा-धमका कर नियंत्रण में रखना है, जिससे कि ज़्यादा ठेका मज़दूरों को लेकर ज्यादा मुनाफ़ा निचोड़ा जा सके।

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