Wednesday, November 6, 2013

भारत का मंगल मिशन और आम लोगों के कुछ सवाल

किसी वैज्ञानिक खोज का महत्व और उसका प्रभाव केवल उसके सामाजिक महत्व पर निर्भर करता है
- डी.डी. कोसाम्बी
कल भारत के वैज्ञानिकों ने मंगल गृह पर एक उपग्रह भेजा जिसे हर जगह एक ऐतिहासिक घटना माना गया है। कहा जा रहा है कि यह कई  नये खगोलीय आयामों की खोज  के लिए देश के वैज्ञानिकों को आत्म निर्भर बनाने की और एक कदम है। हर जगह टीवी और अखबार में यह सुनने को मिल रहा रहा है। वैज्ञानिकों के लिए वास्तव में यह एक ऐतिहासिक घटना है। इसलिये इसके टेक्नीकल पक्ष पर बात नहीं करेंगे, क्योंकि टीवी देखकर सभी को समझ में आ गया होगा कि इस मिशन के क्या तकनीकि फायदे होने वाले हैं।
बल्कि हम कुछ ऐसे सवालों पर बात करेंगे जो देश के आम लोगों के दिमाग में उठ रहे हैं। और यह सवाल भी बिल्कुल जायज हैं। कल एक टीवी चैनेल पर और आज सुबह कुछ अखबारों ने कार्टून बनाकर जनता के इन सवालों को एक अभिव्यक्ति देने की कोशिश की है। ख़ैर कार्टून से कितनी अभिव्यक्ति हो सकती है इसे समझा जा सकता है!! सवाल यह नहीं है, जैसा कि कई लोग सोचते हैं, कि इस मिशन के लिए जो पैसा खर्च किया गया है वह कहीं और लगाया जाना चाहिए था, या यह मिशन होना ही नहीं चाहिए था, यह कहना दकियानूसी सोच होगी। हर वैज्ञानिक खोज का अपना महत्व होता है। वैसे भी हमारे देश में सम्पत्ति की कोई कमी नहीं है, यहाँ बड़ी मात्रा में सम्पत्ति तो मन्दिकों और मठों में बेकार पड़ी है, जिसे यदि जब्त कर लिया जाये तो विशालकाय परियोजनाएँ खड़ी की जा सकती हैं।
लेकिन, एक आम गरीब आदमीं के मन में, जो इस मिशन के फायदों के बारें में कुछ  खास नहीं जनता, और न ही उसके जीवन पर इसका कोई खास फर्क पड़ने वाला है, क्योंकि पता नहीं कितने उपग्रह मिशन देश के वैज्ञानिक प्रक्षेपित कर चुके हैं, लेकिन उसकी हालत वैसी की वैसी ही है। ऐसे में  हर आम इंसान के दिमाग में सवाल उठता है कि अगर विज्ञान  इतनी तरक्की कर चुका  है, और इतना सक्षम हो चुका  है कि दूसरे ग्रह पर पानी की खोज करने के लिये यान भेजे जा रहे हैं, तो देश के इतने लोगों कि जीवन की स्थिति इतनी ख़राब क्यों हैक्यों आज भी करोड़ों लोग अशिक्षित हैं, क्यों आज भी देश की व्यापक आबादी को 12 से 16 घण्टे काम करना पड़ता है, क्यों आज भी चिकित्सा के बिना कई लोग मर रहे हैं, और क्यों अनेक स्थानों पर लोगों से गुलामों कि तरह दबाव बनाकर काम  करवाया जा रहा है?? यह सवाल वैज्ञानिकों और पूँजीवादी शासकों के दिमाग में नहीं उठते इसलिये आम लोगों के दिमाग में इनका उठना लाज़मी है। सारे  रिफरेन्स यहाँ  नहीं दे रहा हूँ, यदि कोई विस्तार से जनता कि स्थिति को समझना चाहता है तो लिंक देखें
सामान्य स्थिति में जब लोगों से यह कहा जाता है कि अर्थव्यवस्था ख़राब है इसलिए उनकी हालत ख़राब है, तो एक बार वे इस झूठ पर विश्वास कर लेते हैं, लेकिन जब वह देखते हैं कि विज्ञान की मदद से क्या-क्या हो रहा है तो उनके दिमाग में फिर से वह सवाल उठ  खड़ा होता है, कि उन्हें एक भ्रम में रखा जा रहा है, वास्तव में हर व्यक्ति को जीने के सभी साधन आसानी से मिल सकते हैं, और यह बहुत आसानी से हो सकता है, लेकिन वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में न तो यह सम्भव ही है, और न ही यह कभी ऐसा कर ही सकती है।
ऐसे में यह सवाल  उठाना बैहद ज़रूरी है। जिससे कम से कम लोगों में यह भ्रम तो ना रहे कि उनकी हालत किसी कमी के कारण या इंसानों की नाकाबिलियत के कारण खराब है, बल्कि वह इसलिये ख़राब है क्योंकि समाज की सारी सम्पदा पर कुछ मुनाफ़ा निचोड़ने वाले लोगों का कब्ज़ा है, और जो इस व्यवस्था को चला रहे हैं वे भी मुनाफा केन्द्रित इस व्यवस्था को बदलना नहीं चाहते।
विज्ञान  को समझने वाले लोगों को इसके बारे में थोड़ा अपने दिमाग पर जोर डालने कि जरूरत है, कि क्या विज्ञान सिर्फ यही है, क्या खोजें सिर्फ मनोरंजन और आत्म-तुष्टि के लिए ही होती हैं, या इन खोजों और विज्ञान  के विकास का कोई सामाजिक उपयोग भी होना चाहिए। और जितनी वैज्ञानिक प्रगति आज हो चुकी है क्या उससे ऐसा नहीं लगता कि लोगों को बर्बादी में धकेल कर आज भी उल्लू ही बनाया जा रहा है, यह कह कर कि संसाधनों कि कमीं है इसलिए उनकी हालत ख़राब है??
वास्तव में वर्तमान विज्ञान पूँजीवादी व्यवस्था के हितों के अनुरूप विकास कर रहा है, यह जनता के हितों के अनुरूप हो भी नहीं सकता। इस संकीर्ण दायरे से वैज्ञानिक प्रगति को तभी मुक्त किया जा सकता है जब राजनीतिक सत्ता का स्वरूप बदलेगा और समाज के आर्थिक सम्बन्धों को रूपान्तरित कर दिया जाएगा। तब तक यह सवाल लोगों के दिमाग में उठते रहेंगे।
महान वैज्ञानिक https://mail.google.com/mail/u/0/images/cleardot.gifडी डी कोशाम्बी ने लिखा है (नोट: अनुवाद न हो सकने के कारण इसे अंग्रेजी में ही डाल रहा हूँ, सटीक अनुवाद होते ही अपडेट कर दिया जाएगा),
“The weight, the significance of a scientific discovery depends solely upon its importance to society. A discovery made before it is socially necessary gains no weight and social necessity is often dependent for its recognition upon the class in power.
Only in science planned for the benefit of all mankind, not for bacteriological, atomic, psychological or other mass warfare can the scientist be really free. He belongs to the forefront of that great tradition by which mankind raised itself above the beasts, first gathering and storing, then growing its own food; finding sources of energy outside its muscular efforts in the taming of fire, harnessing animals, winds, water, electricity, and the atomic nucleus. But if he serves the class that grows food scientifically and then dumps it in the Ocean while millions starve all over the world, if he believes that the world is over-populated and the atom-bomb a blessing that will perpetuate his own comfort, he is moving in a retrograde orbit, on a level no beast could achieve, a level below that of a tribal witch-doctor.
“Science is also a social development; that the scientific method is not eternal and that science came into being only when the new class structure of the society made it necessary.”
(P.53-55, Science and Freedom, Exasperating Essays, by DD.Kosambi, PPH Ltd.)

Popular Posts