आज जन-तंत्र का स्वरूप क्या है, इसके बारे में कहा जा सकता है कि ये कुछ बेशरम, भ्रष्ट, स्वार्थी, लुटेरों, चोरों और "देश" के गद्दारों -- अगर वो जनता का है -- का तंत्र है, लेकिन इस तंत्र में जन कहाँ हैं ? उन्हें रोटी कमानें के लिए बारह से सोलह घंटो काम करनें के लिए गंदे इलाकों, गांवों, फेक्टारियों, रेलवे प्लेटफार्मों और चौराहों पर धकेल दिया गया है !
लेनिन लिखते हैं कि, "क्रांतियाँ दबी कुचली और शोषित जनता की त्यौहार होतीं हैं | " और आज पूरी दुनियाँ में पूंजीवादी चुनावी तंत्र में जो हो रहा है उसे देखो तो पता चलेगा की "पूंजीवादी चुनाव गुंडों, चोरों, भ्रष्टों और पैसे वाले दलालों के त्यौहार होते हैं !" ये सभी को पता है ! कोई इससे इंकार नहीं कर सकता ! इससे इंकार करनें का मतलब है खुले आम बेशर्मी से झूठ बोलना, क्योंकि सभी इसके प्रत्यक्षदर्शी भी हैं |
"स्वदेश", "थ्री ईडियट", "लगान", "रंग दे बसंती", "लीज़ेण्ड आँफ भगत सिंह" आदि जैसी फिल्मों को देखकर भावुक हो जानें वाले महारथी अगर आज अपनें आप से झूठ नहीं बोलना चाहते तो उन्हें सोचना पड़ेगा कि जन-तंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिए . . . .
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