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वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में पूँजीवादी मीडिया और पूँजीवादी राजनीतिक संगठन कई घोटालों और भ्रष्टाचारों के खुलासे होने के कारण उछल कूद कर रहे हैं और राजनीति के पतन पर अपने विरोध का प्रदर्शन कर रहे है। पूँजीवादी व्यवस्था की इस बहती नदी में कई राजनीतिक संगठन पैदा हो गए हैं और "अपराधियों को सजा दिलाने के लिए", "काले धन को वापस लाने के लिए", "भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए" और "छोटी मुद्रा शुरू करके बड़ी रिश्वत रोकने के लिए" आदि जैसी अनेक माँगों को लेकर अभियान चला रहे है, आंदोलन कर रहे हैं और ज़ोरदार तरीकों से प्रदर्शन कर कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे घोटाले की बारिश के बाद पूँजीवादी तालाब और गड्ढों के किनारों पर निकल कर अनेक मेढक भ्रष्टाचार के विरोध में टर्राने लगे हों।
अगर हम इनसे पूछे कि "भ्रष्टाचार" के विरोध से मेहनतकश जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जो काम के दौरान, काम के बाद रास्तों में, घरों से लेकर किसी भी अन्य सामाजिक स्थल तक, हर पल, पूँजीवादी शोषण का सामना कर रही है। ये लोग नहीं बताते कि शोषण और अत्याचार झेल रही मेहनतकश जनता के लिए इनके न्याय का स्वरूप क्या होगा? हम उनसे पूँछना चाहते है कि, "समस्यायें किसे हैं, पहला) पूँजीपति वर्ग को, जो श्रम का शोषण करके संसाधनों का संचय कर रहा हैं और जिसने अनेक लोगों को उनके कार्य और आजीविका से बेदख़ल करके सड़क पर फेंक दिया है? या दूसरा) पूँजीवादी राजनीतिज्ञो को, जो पूँजीवाद के सुगम संचालन के लिए पूँजी का प्रबंधन (मैनेज) और जनता का उत्पीड़न करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं? या तीसरा) मध्य वर्ग और कुलीन वर्ग को, जिसे चैन की नाव में बैठ कर "बेचैनी" के साथ गरीबी की गंगा में मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा का विहार करने के लिए और दूसरों के श्रम पर जीने एवं मज़दूरों के शोषण का समर्थन करने के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रिश्वत दी जाती है?" या पूँजीवाद की ज़र्जर व्यवस्था में भ्रष्ट लोगों की कमी हो गई थी? पूँजीवाद के इन समर्थकों के लिए, जो पूँजीवाद को बचाने के लिए अपने घरों से बाहर निकल आए हैं, सारी समस्यायें सिर्फ "भ्रष्टाचार" के कारण मौजूद है। इसलिए वे चिल्लाते हैं, " भ्रष्टाचार के विरुद्ध हमारे साथ आइए।" ("और हम एक जादू की छड़ी घुमाएँगे और उसके बाद अन्य सभी समस्यायें ग़ायब हो जाएँगी!!")
यदि सीधे-सीधे कहें तो ये राजनीतिक संगठन भ्रष्टाचार विरोधी मांगों का ग्लूकोस देकर पूँजीवाद के राक्षस का जीवन थोड़ा और बढ़ना चाहते हैं| इन शब्दों को पढ़कर भ्रष्टाचार का विरोध करके "जनता" की "सेवा" करने वाले कई लोग गुस्से से अपनीं भौंहे ऊपर कर लेंगे और कई "भ्रष्टाचार" विरोधी इन तथ्यों को गलत सिद्ध करने के लिए अपने अनुमान के धनुष पर आलोचना के बाण रखकर चलानें लगेंगे, इन महारथियों को पूँजीवादी अखबारों और पत्रिकाओं के कुछ तथ्य देखने चाहिए,
पहला: भारत दस देशों के अरबपतियों की संख्या के बीच विश्व में शीर्ष से तीसरे स्थान पर है [टाइम्स लाइव, 30 सितम्बर 2010]। और भारत में अगले दस सालों में अरबपतियों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा होगी [सिलिकॉन इंडिया, मई 2008],
दूसरा: भारत के ५५% लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं, [द टाइम्स ऑफ इंडिया, 15 जुलाई 2010]च और पूँजीवादी संकट के परिणाम स्वरूप विकासशील देशों में 64 लाख से अधिक लोगों को अत्यधिक गरीबी की कतारों में जुडनें (१.२५ $ से कम की आमदनी पर आजीविका) की संभावना है [विश्व बैंक रिपोर्ट 2010]
तीसरा: विश्व की एक तिहाई गरीब आबादी अकेले भारत में रहती है [द टाइम्स ऑफ इंडिया 27 अगस्त 2008, —नया वैश्विक गरीबी अनुमान — विश्व बैंक]
चौथा: भारत के १०,००० लोगों में से केवल ९ लोग (०.०००९ %) प्रति माह १०,००० रुपये से अधिक कमा पाते हैं [भारतीय 'मध्यम वर्ग' के अधिकांश.., द टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 अगस्त 2010]|
पाँचवाँ: कई घोटालों के खुलासों से पता चला है कि सरकार पूँजीपति वर्ग के मुनाफे के लिए (बिना किसी भ्रष्टाचार के) अरबों रुपए "मदद" के लिए बांट देती है; और मेहनतकश जनता के श्रम से पैदा होने वाली राष्ट्रीय संपत्ति को पूँजीपतियों के बीच "सर्वश्रेष्ठ" तरीके से बांटने में "सक्षम" व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में भेजा जाता है, (जिन्हे जनतंत्र का प्रतिनिधि कहा जाता हैं) | [घोटाले के संबंधित नेताओं, उध्योगपतियों और प्रशासनिक अधिकारियों के बयान और लेख —द टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, आउटलुक, फ्रंटलाअन]
इन सभी तथ्यों के साथ कई अन्य तथ्य भी उपलब्ध है और संसदीय चुनावी राजनीत के बारे में आज सभी मेहनतकाश यह जानते हैं| यदि इनको अपने काल्पनिक शक की दरिद्रता से छुटकारा पाना हो तो उन्हें देख सकते हैं? इस समय गुस्से में ऊपर चड़ी हुए अपनी भौंहें को भी नीचे झुक लेना चाहिए| मेहनतकश लोगों को इन "पवित्र" पूँजीपतियों से (जिनमें कुछ संत भी हैं) कहना चाहिए कि हमारे साथ आइए और सबके लिए शोषण रहित समानता के विचारों का प्रचार कीजिए, क्योंकि गरीब मजदूर और किसान, जो वास्तव मे शोषण और उत्पीड़न से घिरे हुए अपना पूरा जीवन गुजारते है, उनके पास कुछ नहीं होता। और मेहनतकश जनता को समानता का अधिकार सिर्फ वोट डालने के लिए ही दिया गया है, जिसके वाद उसको अलग कर दिया जाता है और सारे समाज (को लूटनें) की "जिम्मेंदारी" कुछ चुनें हुए लोगों के हाथ में आ जाती है। और इनके जैसे लोगों को भ्रष्टाचार को हर समस्या की जिम्मेदार ठहराकर खुद पूँजीवाद की सेवा (कानूनी भ्रष्टाचार) में तल्लीन होने का मौका मिल जाता हैं | {See: आज जन-तंत्र का स्वरूप क्या है}
कई अन्य छोटे-पूँजीवादी नेता, अर्थशास्त्री, और मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी जोरदार तरीके से सुझाव देते है कि "ईमानदार" लोगों को राजनीति के "नियंत्रण" में ले आओ और सब सही हो जाएगा; (इनकी नजरों मे हर पैसे बाला "ईमानदार" है!) और उत्पादन संबंधों को बदलने की कोई आवश्यकता नही पड़ेगी। अब, हमें इनसे कहना (बताना!) चाहिए कि हर व्यक्ति "ईमानदार जन्म लेता है" और समाज की भौतिक परिस्थतियो —पूँजी द्वारा श्रम के शोषण और मुनाफा केंद्रित सामाजिक उत्पादन संबंधों— के प्रभाव से भ्रष्ट हो जाता है।
समाज के इन "उद्धारकों" ने आपनीं माँगों मे "ईमीनदारी" (पूँजीवाद के प्रति) के साथ सामाजिक उत्पादन संबंधों और समाज के आर्थिक ढाँचे के प्रश्नो से किनारा कर लिया है और यह लोग पूँजीवाद की स्वाभाविक गतिकी से होने वाले पूँजी के संचय और संपत्ति के केंद्रीकरण के बारे में कुछ नहीं बोलते। शेयर बाजार के जुआघर में वित्तीय पूँजी को ऐसा ही छोड़ देते हैं। और पूँजी द्वारा श्रम की लूट के बारे में कभी बात नहीं करते एवं अत्यंत "आसान" समाधान देते हैं कि विनिमय के साधनों को नियंत्रित करो। वे चिल्लाते है कि मुद्रा के बड़े . . . .
. . . . नोटों को बंद कर दो, काले धन को वापस ले आओ (लेकिन वे यह नहीं बताते कि धन विदेशी बैंको में पहुँचा कैसे?), और सारा भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा; और उसके बाद अन्य दूसरी समस्याएँ भी "ग़ायब" हो जाएँगी!
. . . . नोटों को बंद कर दो, काले धन को वापस ले आओ (लेकिन वे यह नहीं बताते कि धन विदेशी बैंको में पहुँचा कैसे?), और सारा भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा; और उसके बाद अन्य दूसरी समस्याएँ भी "ग़ायब" हो जाएँगी!
किन वस्तुओं का उत्पादन होता है, किन परिस्थतियों में होता है, समाज के उत्पादन संबन्ध क्या हैं, और समाजिक उत्पादन की भौतिक आवश्यकताएँ क्या हैं; ये सारे सवाल कभी इनका ध्यान नहीं खीचते? वास्तव में उन्हें समाजिक परिस्थितियों से कोई मतलब नहीं है, उन्हें तो सिर्फ शोषण और लूट के लिए "भ्रष्टाचार" से मुक्त व्यवस्था चाहिए! ये लोग काल्पनिक विचारों की सीमाऐं लांघने में लगे हूए हैं। उन्हें यह भी समझ में नहीं आता कि वस्तुओं का विनिमय उनके उत्पादन की प्रणाली के आधार पर होता है। जिस व्यवस्था में श्रम शक्ति को बिकने वाली एक वस्तु बना दिया गया है, उसमें उत्पादन की अराजकता, सामाजिक पतन और भ्रष्टाचार को कैसे रोका जा सकता है। मार्क्स के शब्दों मे,
"सैद्धांतिक रूप से उत्पादों का विनिमय नहीं होता —लेकिन उत्पाद में निहित श्रम का विनिमय होता है | उत्पाद के विनिमय का तरीका उत्पादन कि शक्तियों के विनिमय पर निर्भर करता है | सामान्य रूप में, उत्पाद के विनिमय का तरीका उत्पादन के स्वरुप पर निर्भर करता है |"(69.3, दर्शन की दरिद्रता)
"[कि]सी वास्तु के मूल्य का निर्धारण उसके उत्पादन में लगे समय से नहीं होता, बल्कि उसे बनाने के लिया आवश्यक संभव न्यूनतम समय से होता है, और न्यूनतम का निर्धारण प्रतियोगिता से होता है |"(59.5, दर्शन की दरिद्रता)
पूँजीवाद में श्रम शक्ति पूँजीपति के लीए विनिमय मूल्य और श्रमिक के लिए उपयोग मूल्य की एक वस्तु से अधिक और कुछ नहीं है, जिसके पुनर्उत्पादम (श्रमिक के जीवित रहने के लिए) मे "सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम समय" की आवश्यकता होती है, जो कि श्रमिक वेतन के रूप में प्राप्त करता है। और श्रम शक्ति का मूल्य, जैसा कि ऊपर बताया गया है, "इसके उत्पादन के लिए आवश्यक कम से कम समय" से निर्धारित होता है। इसका अर्थ है कि वेतन का निर्धारण श्रमिक को जीवित रहनें के लिए आवश्यक न्यूनतम राशि के आधार पर किया जाता है, और यह प्रतियोगिता के अधीन होता है। लेकिन ये "सिपाही" जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ रहे हैं उन्हे समाज के इन सामाजिक उत्पादन संबंधों और उत्पादन की संसाधनों की सामाजिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है, जहां कुछ पूँजी और जमीन के मालिक हैं, और अन्य वेतन-मजदूर, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं हैं, और जिन्हे परोक्ष रूप से न्यूनतम संभव वेतन में उन वस्तुओं के उत्पादम के लिए मजबूर किया जाता है जो मालिक को सर्वाधिक लाभ दें। लेकिन इन "सिपाहियों" के पास सिर्फ एक उद्देश्य, सिर्फ एक लक्ष्य है, "भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष";, जो उनके विचारों में, समाज की हर समस्याओं का एकमात्र कारण है।
हर समस्या जिसके सुधार के लिए ये लोग चिल्ला रहे हैं, और जो समाधान ये लोग दे रहे है, उसका उन लोगों के जीवन से कोई लेना नहीं है जो मजदूर बस्तियों, सड़क के किनारे और रेलवे प्लैटफ़ार्मों पर मर रहे है और जो आजीविका की ना मिलने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं (द टाइम्स ऑफ इंडिया, 5 फरवरी 2011), । यह मज़दूरों द्वारा थोड़े से पैसों के लिए लम्बे समय तक बदतर परिस्थितियों में काम करने के बारे में कुछ नहीं कहते, और न ही सफलता के नाम पर (शब्दों में "सफलता" और वास्तविकता में "लूट") सम्पत्ति के केन्द्रीकरण के बारे में उन्हें कुछ करना हैं | यहां तक कि वे विलासिता के सामान के उत्पादन के बारे में भी कुछ नहीं बोलते हैं, जबकि अनेक लोग कुपोषण के शिकार हैं और बिना खाने के मर रहे हैं (http://www.righttofood.org/, जीन ज़िग्लर), बिना कपड़ों और बिना घरों के रह रहे हैं, और बिना किसी भी आशा के काम करने के लिए मजबूर किए गए हैं। जहाँ एक ओर खाद्य पदार्थों की कीमतों में हर साल गुणात्मक वृद्धि हो रही हैं और दूसरी ओर विलासिता का सामान दिन पर दिन सस्ता हो रहा है जो कि राष्ट्रीय निवेशकों और पूँजी के अंतरराष्ट्रीय निर्यातको के हित मे किया जाता हैं। (अखबार 'द टाइम्स ऑफ इंडिया', 4 फ़रवरी 2011, के अनुसार खाद्य मुद्रास्फीति 17 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।) यदि हम अपनी आँखों और कानों को बंद कर लें, और अपनी सभी इंद्रियों को वास्तविक तथ्यों की ओर ध्यान देने से रोक ले, तो इन लोगों के अनुसार, आजीविका की परिस्थितियो में असमानता की वृद्धि और समाज में सम्पत्ति का केंद्रीकरण "भ्रष्टाचार" का परिणाम है। या संभव है कि ये लोग सोचते हैं (या गलत समझ लिया है) कि असमानता का गरीब मज़दूरों और किसानों के जीवन से कोई लेना-देना नहीं है।
इन लोगों ने शायद कभी यह भी यह विश्लेषण भी नही किया कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गतिशीलता से कुछ लोगों के लिए विलासिता और आराम और अनेक लोगों के लिए वेतन की गुलामी सुनिश्चित करता है, चाहे "भ्रष्टाचार से मुक्त" हो या "भ्रष्टाचार के साथ", इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता। और इस प्रकार एक वर्ग दूसरे वर्ग के श्रम पर परजीवी की तरह रहता है। ये राजनीतिक संगठन (जिसकी राजनैतिक चेतना को पूँजी ने दिवालिया कर दिया है!) मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच मतभेदों के बारे में भी कभी बात नहीं करते, जहां पूरी व्यवस्था गरीब श्रमिकों द्वारा निर्मित संसाधनों की चोरी करने के लिए बनाई जाती है। अब हम मार्क्स के उन शब्दों को लेगे जो उन्होंने 18 वीं सदी के पेटी बुर्जुआ दार्शनिकों की आलोचना में लिखे थे,
पहले भाग्यवादी था, उसके पास "कोई अन्य कार्य नहीं है सिवाए यह दिखाने के कि बुर्जुआ उत्पादन संबंधों में संपत्ति कैसे प्राप्त की जाती है, कि इन संबंधों को श्रेणियों, कानूनों में बांटनें के, और यह दिखाने के कि ये कानून, और ये श्रेणियाँ संपत्ति के उत्पादन के लिए कितनी श्रेष्ठतर हैं|"(107.1, दर्शन की दरिद्रता)
दूसरे मानवतावादी था, "यह मज़दूरों को शांत रहनें, कड़ी मेहनत करने, और कम बच्चे करने कि सलाह देता था; यह पूँजीपतियों को उत्पादन में एक तर्कसंगत उत्कंठा को रखनें कि सलाह देता था|"(107.3, दर्शन की दरिद्रता)
और तीसरे परोपकारी थे, "ये हर व्यक्ति को बुर्जुआ बनाना चाहते थे |"(107.4, दर्शन की दरिद्रता)
मार्क्स के शब्दों में ये सभी, "महज कल्पनावादी हैं, जो पीड़ित वर्गों की आवास्यकाताओं को पूरा करने के लिए, व्यवस्था में सुधार करते हैं और विज्ञान के सुधारने की तलाश में निकल पड़ते हैं |" और ,"वे गरीबी में गरीबी के सिवाए और कुछ नहीं देखते, उसमें क्रांतिकारी और विनाशकारी पहलू को नहीं देख पाते.." (108.1, दर्शन की दरिद्रता)
अब अगर हम वर्तमान भ्रष्टाचार मुक्त आंदोलनों और इन सेनानियों की मांग को विस्तार से देखें तो हम पाएंगे कि वे इन सभी विचारों का मिश्रण हैं। ये लोग अपने विचारों में, अपने उद्देश्यों में और पूँजीवादी व्यवस्थ की जमीनी हकीकत के बारे में स्वयं स्पष्ट नहीं है।
वे क्या कहते हैं, "सोचिए किस प्रकार हमारा पैसा अमीर राजनीतिज्ञों नें दबा रखा है?" इस उक्ति का लेखक शायद राजनीतिज्ञों के साथ पूँजीपति वर्ग की स्थिति का जि़क्र करना भूल गया है, जो कि जनता पर राज करने के लिए पूँजीवादी चुनावी राजनीति के भ्रष्ट तंत्र के आधार का निर्माण करवाते हैं।
ये लोग चिल्लाते हैं, "अनेक बच्चों को कड़ी मेहनत करने के लिए मजबूर किया जाता है!" लेकिन इन बच्चों को काम इसलिए नही करना पड़ता, कि अर्थव्यवस्था धन की कमी है (कई अरबपति हर दिन लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं!) ? या प्राकृतिक संसाधनों की कमी है (हर साल लाखों टन अनाज को नष्ट कर दिया जाता हैं!) ? या लोगों के श्रम की कोई कमी है (तीस करोड़ मेहनतकश लोग बेरोज़गार हैं जिनकी संख्या हर दिन बढ़ रही है!)? बास्तव में, इन बच्चों को काम करने लिए मज़बूर किए जाता है, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था अनेक लोगों को उनके काम और आजीविका से बेदख़ल कर देती है, और उन्हें उनके परिवार के साथ बेरोजगारी के नरक में धकेल देती है, और यह प्रकिया समाज के सारे संसाधनों को कुछ पूँजीपतियों के हाथों में केंद्रित कर देती है। फिर संसाधनों के ये मालिक ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए बच्चों और महिलाओं को काम पर रखते है, क्योंकि उनसे पुरुषों की तुलना में कम वेतन में काम कराया जाता है | और पूँजीवादी व्यवस्था का वो पैसा, जिसे काला धन कहा जाता है, न ही कभी मज़दूरों का था और न पूँजीवाद में कभी मज़दूरों का हो सकता है, जिन्हें काम से बेदख़ल कर दिया गया है या जानबरों की तरह काम करवाया जा रहा है; और न ही यह कारखानों मे काम करने वाले गरीब बच्चों के लिए था, और न पूँजीवाद में कभी हो सकता है । क्योंकि वे एक संसाधन बन गए हैं जो कम वेतन में काम करते हैं और अधिक मुनाफा पैदा करते है। भले ही सारा काला धन वापस ले आया जाए, पूँजीवाद की परिस्थतियाँ फिर भी वही रहेंगी, क्योंकि हर कार्य मुनाफे के लिए किया जाता रहेगा। और इन सामाजिक उत्पादन संबंधों के अंतर्गत, जो लोग राज्य सत्ता को लागू करते हैं, प्राकृतिक संसाधनों और औद्योगिक उत्पादनों का प्रबंधन करते हैं, वे सभी जैसे हैं बने रहेंगे और पूँजी के अधिनायकत्व को गरीब मजदूरो् पर यथास्थिति लागू रखेंगे। अंतता पूँजीवाद में सब कुछ पूँजी का गुलाम है। जैसा कि मार्क्स ने प्रगति और सामाजिक संबंधों में बदलाव के बारे मे लिखते हैं,
"उत्पादन के नए औजारों के विकास के साथ ही मनुष्यों ने उत्पादन के तरीकों को बदल दिया; और उत्पादन के तरीकों को बदलनें में, कमाने और खानें के तरीके बदलने मे, उन्होने अपने सारे सामाजिक सम्बन्धों को बदल डाला। हाथ की चक्की ने आपको सामंती स्वामियों का समाज दिया था; भाप-मिल नें औद्योगिक पूँजीपतियों का समाज।"(95.3, दर्शन की दरिद्रता)
इनके द्वारा "पवित्र" पूँजीवाद के लिए दिए जा रहे हर "समाधान" मे सैद्धांतिक ग़लतियाँ मौजूद हैं। कोई भी व्यक्ति जो "भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई" के "शब्दों" को वास्तविक दुनियाँ से संबद्ध कर सकता है वह स्पष्ट रूप से इन आंदोलनों और इनके पीछे मौजूद राजनीतिक संगठनों के उद्देश्य और प्रयोजन को साफ तौर पर समझ जाएगा। जो सभी सिर्फ़ उन्हें गुमराह करना चाहते हैं, उनकी प्रगतिशील ऊर्जा का दुरुपयोग करना चाहते हैं और अंतता उनकी बदलाव की भावना को कमज़ोर कर देना चाहते हैं, ताकि पूँजीवाद के जीवन में कुछ और समय जोड़ा जा सके। वे मेहनतकश लोगों को उनकी धार्मिक भावनाओं और अनभिज्ञता के नाम पर मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं, और अनजान युवकों, मज़दूरों एवं कई बुद्धिजीवियों को बहकाते और भ्रम में डाल देते हैं। इस भ्रष्टाचार विरोधी मध्यवर्गीय ग़लतफ़हमी के स्वप्नलोक के बारे में हम मार्क्स से शब्द उधार लेकर कहना चाहते हैं कि,
". . . यह सुधारात्मक आदर्श जिसे वह दुनिया पर लागू करना चाहते हैं, वह अपने आप में वास्तविक दुनिया के प्रतिबिंब के सिवाए और कुछ नहीं है; और इसलिए महज इसकी सजाई [अलंकृत की] हुई छाया के आधार पर समाज को बदलना पूरी तरह असंभव है | इसके अनुरूप जैसे ही यह छाया फिर से अर्थ रूप ग्रहण करती है, हम देखते हैं कि यह अर्थ रूप, बदलाव के सपने से बहुत दूर, मौजूदा समाज का ही वास्तविक शरीर है|" (दर्शन की दरिद्रता)
हमें इन राजनीतिक और धार्मिक संगठनों का राजनीतिक भंडाफोड़ करना चाहिए, जो जनता को उसकी आर्थिक माँगों पर एकजुट होने में बाधा पैदा करते हैं और उनकी प्रगतिशील क्रांतिकारी भावना (स्पिरिट) को धीमा कर रहे हैं । इस प्रक्रिया में इन संगठनों की माँगों और वादों के वर्ग चरित्र को मेहनतकश जनता के सामनें निर्वस्त्र किया जा सकेगा, जो मेहनतकश जनता को सक्रियता से राजनीति में हिस्सा लेने के लिए शिक्षत करने मे मदद करेगा।
सौ साल पहले लेनिन द्वारा किया गया रूसी समाज का विश्लेषण ('क्या करें', 1905 में) आज भी सही है, कि हमें बुर्जुआ, पेटी-बुर्जुआ, धार्मिक, फासीवादी और अराजकतावादी राजनीति की घास और झाड़ियों को साफ करके समाज की ज़मीन तैयार करनी होगी, ताकि प्रगतिशील विचारों को उगाने के लिए वैज्ञानिक समाजवाद के क्रांतिकारी बीज समाज में बोए जा सकें।
“Holy” Capitalism: A New “Drama” of Fight against Corruption Melody
In the present political scenarios capitalist media and capitalist political organizations are jumping on the disclosure of many scams and corruptions and showing their opposition on the degeneration of politics. In this flowing river of capitalist system many political groups has took birth and start campaigning, demonstrating and agitating strongly with demands to "punishment for the culprits", "bringing back black money", "removing of bribery and corruption" and "starting small currency to stop big bribery" etc. etc (Same as after heavy rain the frogs come out of pool and mud and start TARRANA). To say in straight and forward manner these political organizations are trying to give glucose of anti corruption demands to extend the life of the dwarf demon of capitalism.
They don't tell how they will provide justice to the public and what will be the format of their justice. If we ask them what impact does "corruption" have on the working people (80% of the population) who are facing high exploitation --during work, after work, on the streets, in the home, or at any other social place every second? We should ask them, "who have problems, 1) capitalist class, who are accumulating the resources from the exploitation of labor and thrown many on street after disposing them from work and livelihood {Add TOI Ref.}? Or 2) politicians, who are made to manage the capital and oppress the masses for smooth functioning of capitalism {Add TOI Ref.}? Or 3) middle class, which is bribed to live on the labor of others and create a support base for the exploitation of poor workers?" Or there was some shortage of corrupt people? For these sympathizers of capitalism, who have came out of their homes to save the capitalism, every problem exists only because of corruption", so they shout, “Come against corruption with us” ("and we will spin a magic stick after that and all other problems will disappear!!")
If we ask these "holy" capitalists, (some of) those known as saints, to come forward and promote the views of exploitation free equality for all, and unite with the public to implement freedom for all; because poor workers and peasants who actually spend their entire live surrounded with unavailability, exploitation and oppression, they own nothing. But, these "savior" of the society and its people in their demands "honestly" (for capitalism) --left the social relations and economic process of society as it is; --left the accumulation of capital and centralization of wealth as it is; --left the finance capital in the casino of share market as it is; and they never talk about the robbery of labor by capital. And they give a very "simple" solution, a solution to control the means of exchange; they shout that stop the higher value notes of currency, bring the black money back (but they don't tell that how black money reached in foreign banks), and all corruption will be abolished, and after that all other problems will also "disappear"!
What have been produced, how have been produced, what are the productions relations of the society, and what are the materialistic requirements of the social production; all these questions have never catch their focus. In fact they have nothing to do with the social conditions; they only need a "corruption free" system, of the exploitation, of the robbery! These people are in the way to set the limits of utopian ideas. They also don't recognize that exchange of the resources is regulated by mode of their production. In the system, where labor power has made a commodity, a thing to sell, then how anarchy of the production, its social degeneration and corruption can be stopped. In the words of Marx,
"In principle, there is no exchange of products --but there is the exchange of the labor which co-operates in production. The mode of exchange of product depends upon the mode of exchange of productive forces. In general, the form of exchange of products corresponds to the form of production" (69.3)
"[W]hat determines value is not the time taken to produce a thing, but the minimum time it could possibly be produced in, and the minimum is ascertained by competition."(59.5, Poverty of philosophy)
In capitalism labor power is not more than a commodity with a use value for capitalist and exchange value for worker, which need socially necessary labor time to be reproduced (for workers to stay alive), which a worker gets as wages. And, value of labor power is determined by, as explained, "minimum time it could possibly be produced". It means wages are decided by minimum amount which are necessary for a worker to live, and it is subjected to the competition. But, these "solders", who are fighting against corruption, have nothing to do with these social production relations and placement of the means of production in the society, where few are the owners of capital and land, and other are the wage workers who don't own anything, and indirectly forced to produce what give highest profit to the owner in minimum possible wages. But, these "solders" have only one aim, only one target, "fight against corruption", which, in their views, is the only reason for every problem of the society.
Every problem which these people are shouting to resolve, and what solution they are giving for it, have nothing to do with the life of those who are dying in the labour slums, at the side of roads and at the railway platforms, who are committing suicide due to unavailability of livelihood {The Times of India, 5 Feb 2011}, who are living on the income of less than 20 rupees per day {ASGC Report}. Neither these fighters, ("against corruption"), say anything about worst working conditions and long working hours workers are expending for few money, nor they say anything to do with the centralization of wealth on the name success ("success" in words and "robbery" in deed). Even they don't speak anything about production of luxury goods, while many are the victim of malnutrition and dying without food, living without cloths and homes and forced to do work without any hope. While at one side food prices are multiplying every year, at other side luxury goods are becoming cheaper and cheaper. According to The Times of India, 4 Feb 2011, food inflation reached to 17 percent. All these luxury goods are produced on the interest of national investors as well as international exporter of capital. If we close our eyes, close our ears and stop all our senses from observing real facts, then according to these people rise in the inequality of living condition of the society and centralization of wealth is the result of "corruption". Or it may possible that these people think (or misunderstood) that inequality have no reason to draw impact on the life of poor workers and farmers.
These people may also never analyze that capitalist system with its natural dynamics ensure the comfort and luxury for few, and wage-slavery for many, either "corruption free" or "with corruption", it does not matter; and this way one section of the society live parasitically on the labor of other section. These political organizations (whose political consciousness is bankrupted by capital) also never talk about the differences among mental and physical labor, where whole system is made for stealing the resources produced by poor workers.
Many other petty bourgeois politicians, economists, and middle class intellectuals are there who strongly suggest that bring "honest people" into "control" of politics and everything will be fine (every wealthy person is honest in their views); and there will be no need to change the production relations. Now, we should ask (tell!) them that all "born honest" and become corrupt after the influence of materialistic conditions --social production relations of exploitation of labor by capital-- of the society.
Now we take the words from Marx, which he had written in the critique of 18th century petty-bourgeoisie philosophers of European countries,
First was Fatalist, they "[H]ave no other mission than that of showing how wealth is acquired in bourgeois production relations, of formulating these relations into categories, into laws, and of showing how superior these laws, these categories, are for the production of wealth", "Poverty is in their eyes merely the pang which accompanies every childbirth, in nature as in industry." (107.1)
Second was Humanitarian, "[I]t counsels the workers to be sober, to work hard and to have few children; it advises the bourgeois to put a reasoned ardor into production." (107.3)
And third was Philanthropic, "[I]t wants to turn all men into bourgeois." (107.4)
In the words of Marx these all are, "[M]erely utopians who, to meet the wants of the oppressed classes, improvise systems and go in search of a regenerating science.", and, "[T]hey see in poverty nothing but poverty, without seeing in it the revolutionary, subversive side" (108.1, Poverty of philosophy)
Now if we look in the detail of present corruption free movements and demands of these fighters, we will find that they are the mixture of all these thoughts, they, in their own views, are not clear about their aim and grass root reality of the capitalist system.
What they say, "Think how our money is blocked by rich politicians?" The writer of this statement may forget to mention the placement of capitalist class with the politicians, who create the base of corrupt capitalist political system of voting to rule the public.
These people shout, "Many children are also forced to do hard work!" But, these children are needed to work not because there is no money in the economy (many billionaires are expending lacks of money every day!); or there is shortage of natural resources (millions of tons of corns are destroyed every year); or no labor of the people (30 crore working people are unemployed, and this is increasing every day)? In fact, these children are forced to work because capitalist system dispossess many people from their work and livelihood; and throw them with their family in the hell of unemployment, and this process finally centralize whole resources in the hands of few capitalists. And then, these owners of resources hire children and women to earn higher profit, because they are paid lesser wages than men. And, that money of capitalist system which is called "Black" was never (and can never in capitalism) belong to the workers who are thrown out of work or placed to work like animal, neither it was (and can never in capitalism) for the poor children working in the industries. Because they have become resources who work in fewer wage and produces more profit. And even if all "black money" will be brought back, the condition will remain same, because everything is done for profit. And within these social production relations those who implement the state machinery, manage the natural resources and industrial production, they all will remain same and maintain dictatorship of capital over poor workers as it is. After all, everything is the slave of capital in capitalism. As Marx has written for the progress and change of social relations,
"In acquiring new productive forces men change their mode of production; and in changing their mode of production, in changing the way of earning their living, they change all their social relations. The hand-mill gives you society with the feudal lord; the steam-mill, society with the industrial capitalist." (95.3, Poverty of Philosophy)
There present principle flaws in every "solution" theब are giving for "holy" capitalism. Any person, who can relate the "words" of "fight against corruption" to the real world conditions, he will clearly observe the purpose and aim of these types of movements and political organizations behind them. Which all only want to misguide them, misuse their progressive energy and finally weaken their will of change, so that some more time can be added in the life of capitalism. They try to fool the working people on the name of their religious sentiments and unawareness; and misguiding as well as misleading the unaware youths, workers and many intellectuals.
In relation to this middle class misunderstanding of corruption fighting we would like to take the words of Marx and say that,
". . . [T]his corrective ideal that he would like to apply to the world, is itself nothing but the reflection of the actual world; and that therefore it is totally impossible to reconstitute society on the basis of what is merely an embellished shadow of it. In proportion as this shadow takes on substance again, we perceive that this substance, far from being the transfiguration dreamt of, is the actual body of existing society."
We should do the political exposure of these political and religious organizations, which are resisting the masses to unite for their economic demands, and dimming their progressive revolutionary sprit. In this process class character of the promises and demands of these groups can be stripped before working people, which will help to educate workers to actively politically in the politics.
The hundred years old analysis of Lenin is still hold true, that we will need to clean the grass and bush of bourgeoisie, petty-bourgeoisie, religious and fascist politics from the society and prepare the land, so that revolutionary seeds of scientific socialism can be cultivated in the society for the growth of progressive thoughts.
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