Sunday, November 1, 2015

गोर्की और मुक्तिबोध के दो उद्धरण (Two Quotes of Gorky and Muktibodh)

कभी-कभी कुछ ऐसे नैजवान मिलते हैं जो वर्तमान व्यवस्था के वैचारिक दमनकारी चरित्र के प्रति अलगाव से खुद को उत्पीणित महसूस करते हैं। लेकिन कुछ सकारात्मक कर पाने की जगह पर उनके आस-पास का माहौल उनके विचारों और व्यक्तित्व को हर स्तर पर कुचल कर एक कायर भीड़ में तब्दील कर रहा है। आज ऐसे नौजवानों को सही दिशा में सोचने और लम्पट भीड़ में सामिल हो जाने से रोकने के लिये सबसे पहली आवश्यकता तो यह है कि हर स्तर पर नये भविष्योन्मुख प्रगतिशील मूल्यों को उनके बीच पहुँचाया जाये और उन्हें एस संजीदा इंसान बनने के लिये प्रेरित किया जाये।
जैसा कि गोर्की ने आज से 80 साल पहले रूस के बारे में कहा था जो हमारे वर्तमान समाज में नोजवानों की स्थिति के बारे में काफी सटीक विवरण प्रस्तुत करता है,
जीवन की ठोस हक़ीकत इस बात की अधिकाअधिक पुष्टि कर रही है कि वर्तमान स्थिति में चैन का जीवन सम्भव नहीं, कूपमण्डूकी खुशहाली स्थाई नहीं हो सकती क्योंकि उस प्रकार की खुशहाली के आधार समस्त संसार से खत्म होते जा रहे हैं। .. समस्त संसार कूपमण्डूक झुँझलाहट, उदासी तथा आतंक के चंगुल में है; धनी कूपमण्डूक उदास होकर इस निरर्थक आशा से मनोरंजन का सहारा ले रहा है कि इससे वह आनेवाले कल के भय को दबा सकेगा; और इसलिये अश्लील भोग-विलास की अस्वस्थ लालसा, मैथुनिक विपथन और अपराध तथा आत्महत्याओं का चक्र चलता है। पुरानी दुनिया अवश्य ही जानलेवा रोग से ग्रस्त है और हमें उस संसार से शीघ्रतिशीघ्र अपना पिण्ड छुड़ा लेना चाहिये ताकि उसकी विषैली हवा कहीं हमें न लग जाये।
बीस वर्षों तक मैंने बापों और बेटोंमें शत्रुता के ऐसे अशिष्ट दृश्य देखे, उस प्रकार की विचारधारात्मक शत्रुता के नहीं, जिसका तुर्गनेव ने सुन्दर वर्णन किया है, बल्कि हर दिन की ऐसी पाषविक शत्रुता जो निजी सम्पत्ति की भावना रखने वाला बाप ऐसी भावना वाले बेटे के प्रति अनुभव करता है। ज्यों ही उस युग का युवक जीवन की समस्याओं में गहरी दिलचस्पी या अपने जानलेवा और असभ्य वातावरण के प्रति आलोचनात्मक होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकट करता तो जागरूक बाप आलोचनात्मक प्रवृत्ति के व्यक्तित्व के चारों ओर शत्रुता का वातावरण खड़ा कर देते, युगों से चली आने वाली परम्परा से विश्वासघात का संदेह पैदा होता और इन सबके साथ सत्य का उपदेश आवश्यक था जो घूँसे, डण्डे, कोड़े या छड़ी की सहायता से दिया जाता। इस उपदेशका अन्त सामान्यतया इस तरह होता कि बेचारा विपदाग्रस्त व्यक्ति आदिम मानव की स्थिति में पहुँचा दिया जाता यानि बाप खुद अपने बेटों को अपनी कूपमण्डूकता प्रदान करते।”( लेखनकला और रचनाकौशल, गोर्की)
ऐसे में मुक्तिबोध का यह उद्धरण अत्यन्त सटीक है,
यदि व्यक्ति में मनुष्यता है तो, निश्चय ही वह अपने जीवन में प्रप्त वास्तविक मूर्त आदर्शों और लक्ष्यों की तरफ़ बढ़ेगा, उसे बढ़ना पड़ेगा। अपने जीवन की भीतरी तथा बाहरी प्रेरणाएँ उसे लक्ष्योन्मुक बनायेंगी ही, उन आदर्शों की और ठेलेंगी। वह अपने जीवन के अनुभवों का वैज्ञानिक अवलेकन करता रहेगा, और अपने तथा दूसरों के अनुभवों से वह सीखगा ही, उसे सीखना पड़ेगा। किन्तु - और यह सबसे बड़ा किन्तु है- आदमीं में इतनी मनुष्यता रहती ही नहीं। साथ ही उसका आभाव भी कभी नहीं होता। किसी में वह कम होती है, किसी में में ज़्यादा, किसी में बहुत ज़्यादा। जिसमें जितनी अधिक मनुष्यता होती है, उसका वास्तविक सामाजिक संघर्ष भी उसे अधिक से अधिक सिखलाता है, और उसे विकास के नये रास्ते बतलाता है। जिस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टिकोंण के कारण हमारी समझ बढ़ती है, उसी प्रकार हमारी भीतरी मनुष्यता के कारण हमारा वैज्ञानिक दृष्टिकोंण भी लक्ष्ययुक्त आदर्शमय होता है। फलतः, उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक जीवन-व्यापी औचित्य सिद्ध होता है। यद दृष्टिकोंण निश्चय ही यान्त्रिक नहीं है। यान्त्रिकता परस्पर सम्बन्धों को, तथा जीवन प्रक्रियाओं के भीतरी गति श्रोत को, नहीं देखती, विकास को नहीं देखती। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वस्तुतः, यथार्थवादी दृष्टिकोण है, जो अपनी लक्ष्योन्मुखता के कारण ही तथ्य-संग्रह करता है। जिसकी जितनी बड़ी मनुष्यता होगी, निश्चय ही वह मनुष्य-जीवन के बारे में अधिक-से-अधिक ज्ञान रखेगा तथा उसे नवीन बनाता रहेगा।
मुश्किल यह है कि यह मनुष्यता अपनी लक्ष्य-प्रप्ति के लिये जिन संघर्षों की ओर व्यक्ति को ले जाना चाहती है, उस तरफ़ बहुत बार वह मुड़ता ही नहीं। और अगर मुड़ता है, तो गिरता-पड़ता। फलतः ज्ञान, इच्छा और क्रिया का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता, न वह हो सकता है। मनुष्यता के संदर्भ के बिना यदि ज्ञान, इच्छा तथा क्रिया में सामंजस्य स्थापित भी हो, तो वह लक्ष्यहीन सामंजस्य है। रीता सारसम्य है। प्रत्येक काल में मनुष्यता के साम्मुख, अपने उद्धार के कुछ विशेष लक्ष्य रहे हैं। उन लक्ष्यों की और जिस आदमी की भतरी मनुष्यता व्यावहारित सामाजिक क्षेत्र में जैसा और जितना संघर्ष करती है, उसी के अनुसार वह मनुष्य अपना अन्तर्वाह्य सन्तुलन और सामंजस्य स्थापित कर सकता है। निश्चय ही, स्वभाव-भेदानुसार मनुष्य के विभिन्न पक्षों का संयोजन तथा संतुलन भी भिन्न होगा। मनुष्यता के संघर्ष में पड़े हुए एक कलाकार का आन्तरिक संतुलन एक नेता के भीतरी सन्तुलन से निश्चय ही भिन्न होगा। किन्तु आन्तरिक सामंजस्य लक्ष्यहीन भी हो सकता है। उदाहरणतः, महाबलशाली स्वेच्छाचारी शासक अपने ज्ञान तथा इच्छानुसार, जनता-विरोधी कार्य भी कर सकता है।  उसमें विघटन नहीं होता । विघटन की क्रिया तो उन लोगों में सर्वाधिक होती है जो न पूरे लक्ष्यवान होते हैं, न गत-लक्ष्य; जो अधकचरे होते हैं और प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर इधर-उधर भागते फिरते हैं।
सामंजस्य का प्रश्न मनुष्यता के सम्मुख उपस्थित अपने उद्धार के प्रधान लक्ष्यों के लिये चलनेवाले संघर्ष का प्रश्न है। वह जितना आत्मगत प्रश्न है, उससे कहीं ज्यादा वह सामाजिक प्रश्न है।” (कामायनी एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध)

Sunday, August 16, 2015

कार्ल मार्क्स - दर्शन के बारे में एक उद्धरण (Karl Marx - A Quotation On Philosophy)


"अपनी प्रकृति के अनुरूप आचरण करते हुए दर्शन ने पुरोहितों के संन्यासी-सुलभ वस्त्रों की अदला-बदली अख़बारों के हलके पारम्परिक परिधान से करने के लिए कभी पहल नहीं की है। बरहाल, दार्शनिक कुकुरमुत्तों की तरह तो होते नहीं जो यूँ ही ज़मीन फोड़कर निकल आयें, वे अपने युग, अपनी जाति की उपज होते हैं, जिनके अत्यन्त सूक्ष्म, मूल्यवान तथा अदृश्य रस दर्शन के विचारों मे प्रवाहित होते हैं। जो चेतना श्रमिकों के हाथों के माध्यम से रेलवे का निर्माण करती है वही दार्शनिकों के मस्तिष्कों में दार्शनिक प्रणालियाँ भी निर्मित करती है। विश्व से परे दर्शन का कोई अस्तित्व नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य के परे मस्तिष्क का अस्तित्व नहीं होता...। किन्तु दर्शन वस्तुत: ज़मीन पर अपने पैर रखकर खड़ा होने से पहले मस्तिष्क के माध्यम से अस्तित्वमान होता है, जबकि मानवीय कार्य-व्यापार के कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनके पैर ज़मीन पर काफ़ी गहरे जमें हुए हैं तथा जो उस समय भी अपने हाथों से इस संसार के फल तोड़ने लग जाते हैं जब उन्हें यह गुमान तक नहीं होता कि सिर भी इस संसार का हिस्सा है, कि या संसार भी सिर का ही संसार है।
"चूँकि हर सच्चा दर्शन अपने युग का बौद्धिक सारतत्व होता है इसलिए जब दर्शन अपने समय की वास्तविक दुनिया के साथ न केवल आन्तरिक रूप से अपनी अन्तर्वस्तु के माध्यम से, बल्कि बाह्य रूप से अपने रूप के माध्यम से भी सम्पर्क में आता है तथा उसके साथ अन्तर्क्रिया करता है तो युग भी बोलने लगता है। तब दर्शन अन्य विश्ष्ट प्रणालियों के सम्बन्ध में दर्शन बन जाता है, समकालीन विश्व का दर्शन बन जाता है।"
(P.35-36, धर्म के बारे में – कार्ल मार्क्स)

Saturday, August 8, 2015

Alcoholism and Crime in Capitalism: Some Views and Quotes



Maxim Gorky about Industrial Workers (from novel ‘Mother’):  “The day was swallowed up by the factory; the machine sucked out of men’s muscles as much vigor as it needed. The day was blotted out from life, not a trace of it left. Man same another imperceptible step towards his grace; But he saw close before his the delight of rest, the joys of the odorous tavern and he was satisfied… The accumulated exhaustion of years had robbed them of their appetites, and to be able to eat they drank, long and deep, goading on their feeble stomachs with the biting, burning lash of vodka… Returning home they quarreled with their wives, and often beat them, unsparing of their fists. The young people sat in the taverns of enjoyed evening parties at one another’s houses, played the accordion, sang vulgar songs devoid of beauty, danced, talked ribaldry and drank. Exhausted with toil, men drank swiftly, and in every heart there awoke and grew an incomprehensible sickly irritation, It demanded and outlet. Clutching disquieting sensation, they fell on one another for mare trifles, with the ferocity of beasts, breaking into bloody quarrels which sometimes ended in serious injury and on occasions even in murder.” (P.253)
A Journalist about Farmers in Villages: “For centuries heavy drinking seemed an indispensable and necessary part of life. The endless grey monotony of peasant life with its constant threat of famine and spice-breaking toil, the dirt and degradation of squalid city slums, stifling atmosphere of merchants’ homes – all this was an appropriate frame for ‘vodka,’ one of the few words.” (P.250)*
Conclusion in the words of Philosopher Friedrich Engels: “Worker drinks primarily to escape from the suffering of his daily existence under capitalism: “… he must have something to make work worth his trouble to make the prospect of the next day endurable… (He seeks) the certainty of forgetting for an hour or two the wretchedness and burden of life.” (P.252)*
*Books: How Capitalism Was Restored in the USSR

Wednesday, July 22, 2015

A Poem "FEELINGS" by Karl Marx

[Five stanzas of the long poem.
Read it more then once.]

Never can I do in peace
That with which my Soul’s obsessed,
Never take things at my ease;
I must press on without rest.

Others only know elation
When things go their peaceful way,
Free with self-congratulation,
Giving thanks each time they pray.

I am caught in endless strife,
Endless ferment, endless dream;
I cannot conform to Life,
Will not travel with the stream.

Heaven I would comprehend,
I would draw the world to me;
Loving, hating, I intend
That my star shine brilliantly.

All things I would strive to win,
All the blessings Gods impart,
Grasp all knowledge deep within,
Plumb the depths of Song and Art.


- Karl Marx

Wednesday, July 8, 2015

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़



21 जून को विश्व योग दिवस बीत चुका है और अब योग का ख़ुमार उतार पर है। लेकिन यहाँ हम योग की बात नहीं करेंगे, पर चूकि योग जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा है इसलिये हम इस अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दे, देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति और सरकार द्वारा उनके लिये उठाये जा रहे कदमों पर पर बात करेंगे।
मई 2015 में दुनिया के 179 देशों के सर्वेक्षण के आधार पर एक सूची प्रकाशित की गई जिसे वैश्विक स्तर पर मातृत्व के लिये अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर बनाया गया है। इस सूची में भारत पिछले साल के 137वें स्थान से 3 पायदान नीचे खिसक कर 140वें स्थान पर पहुँच गया है। यूँ तो 137वाँ स्थान हो या 140वाँ, दोनों में कोई खास अन्तर नहीं है, लेकिन यह विकास के खोखले नारों के पीछे की हकीक़त बयान कर रही है, कि देश में आम जनता के जीवन स्तर में सुधार होने की जगह पर परिस्थितियाँ और भी बदतर हो रही हैं। भारत अब माँ बनने के लिये सुविधाओं के हिसाब से ज़िम्बाब्वे, बांग्लादेश और इराक़ से भी पीछे हो चुका है। यह आंकड़ा अच्छे दिनों और विकास का वादा कर जनता का समर्थन हासिल करने वाली मोदी सरकार का एक साल पूरा होने से थोड़ा पहले आया है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के रहते विकास की हर एक नींव रखी जाने के साथ जनता के लिये और भी बुरे दिन आने वाले हैं।
इसी रिपोर्ट में सर्वेक्षण के आधार पर बताया गया है कि भारत के शहरी इलाकों में रहने वाली ग़रीब आबादी में बच्चों की मौत हो जाने की सम्भावना उसी शहर में रहने वाले अमीरों के बच्चों की तुलना में 3.2 गुना (320 प्रतिशत) अधिक होती है (स्रोत – 1)। बच्चों के ज़िन्दा रहने की इस असमानता का मुख्य कारण ग़रीब परिवारों में माताओं और बच्चों का कुपोषित होना, रहने की गन्दी परिस्थितियाँ, स्वास्थ सुविधायें उपलब्ध न होना है तथा महंगी स्वास्थ्य सुविधायें है (स्रोत – 2)हक़ीकत यह है कि भारत में पाँच वर्ष की उम्र पूरी होने से पहले ही मरने वाले बच्चों की संख्या पूरी दुनिया की कुल संख्या का 22 फीसदी है (स्रोत – 3)। अप्रैल 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें विटामिन और मिनिरल की कमी है (स्रोत – 4)।
देश के अलग-अलग शहरों की बस्तियों और गाँवों में रहने वाली ग़रीब आबादी के बीच कुपोषण और बीमारियों के कारण होने वाली मौतों का मुख्य कारण यहाँ रहने वाले लोगों की जीवन और काम की परिस्थितियाँ होता है। यहाँ रहने वाली बड़ी ग़रीब आबादी फ़ैक्टरियों में, दिहाड़ी पर या ठेला-रेड़ी लगाकर अपनी आजीविका कमाते हैं और इनके बदले में इन्हें जो मज़दूरी मिलती है वह इतनी कम होती है कि शहर में एक परिवार किसी तरह भुखमरी का शिकार हुये बिना ज़िन्दा रह सकता है। समाज के लिये हर वस्तु को अपने श्रम से बनाने वाले मेहनतकश जनता को वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था एक माल से अधिक और कुछ नहीं समझती, जिसे सिर्फ़ जिन्दा रहने लायक मज़दूरी दे दी जाती है जिससे कि वह हर दिन 12-16 घण्टों तक जानवरों की तरह कारखानों में, दिहाड़ी पर काम करता रहे। इसके अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच इन मज़दूर बस्तियों और गाँवों में रहने वाले ग़रीबों तक कभी नहीं होती। देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर भी लगातार नीचे गिर रहा है।
लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने की जगह पर वर्तमान मोदी सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च किये जाने वाले ख़र्च में भी 2014 की तुलना में 29 फीसदी कटौती कर दी। 2013-14 के बजट में सरकार ने 29,165 करोड़ रूपये स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये आवंटित किये थे जिन्हें 2014-15 के बजट में घटाकर 20,431 करोड़ कर दिया गया है (स्रोत – 5)। पहले ही भारत अपनी कुल जीडीपी का सिर्फ 1.3 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर ख़र्च करता है जो BRICS (Brazil, Russia, India, China, South Africa) देशों की तुलना में सबसे कम है, भारत के बाद चीन का नम्बर है जो कि अपनी जीडीपी का 5.1 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है, जबकि साउथ-अफ्रीका सबसे अधिक, 8.3 फीसदी, खर्च करता है। डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के ढाँचे पर किये जाने वाले खर्च के मामले में भी भारत BRICS देशों की तुलना में काफी पीछे है। भारत में स्वास्थ्य पर जनता द्वारा खर्च किये जाने वाले कुछ खंर्च में से 30 फीसदी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के हिस्से से और बाकी 69.5 प्रतिशत लोगों की जेब से खर्च होता है। भारत में 10,000 की आबादी पर डॉक्टरों की संख्या 7 है जो BRICS देशों की तुलना में सबसे कम है। वहीं BRICS देशों की तुलना में मलेरिया जैसी आम बीमारियों के मामले भारत में कई गुना अधिक रिपोर्ट होते हैं जिनसे बड़ी संख्या में मरीज़ों की मौत हो जाती है। भारत में हर साल मलेरिया के 10,67,824 मामले रिपोर्ट होते हैं जबकि चीन और साउथ-अफ्रीका में यह संख्या 5,000 से भी कम है (स्रोत – 6)। भारत में हर दिन कैंसर जैसी बीमारी से हर दिन 1,300 लोगों की मौत हो जाती है, और यह संख्या 2012 से 2014 के बीच 6 प्रतिशत बढ़ चुकी है। (स्रोत – 7)
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पिछड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण हमारे देश में ग़रीब आबादी अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा, लगभग 70 प्रतिशत, चिकित्सा पर खर्च करने के लिये मजबूर है, जबकि श्रीलंका जैसे दूसरे एशियाई देशों में यह मात्रा सिर्फ 30-40 प्रतिशत है। इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस और विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कम आय वाले लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को चिकित्सा के लिये पैसे उधार लेने पड़ते हैं, और 16 फीसदी परिवार चिकित्सा की बजह से ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिये जाते हैं। (स्रोत – 8)।
यह वर्तमान स्वास्थ्य परिस्थितियों के अनुरूप एक शर्मनाक परिस्थिति है और यह प्रकट करता है कि भारत की पूँजीवादी सरकार किस स्तर तक कार्पोरेट परस्त हो सकती है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य-सुविधाओं में कटौती के साथ-साथ बेशर्मी की हद यह है कि सरकार ने फार्मा कम्पनियों को 509 बुनियादी दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट दे दी है, जिनमें डायबिटीज, हेपेटाइटस-बी/सी कैंसर, फंगल-संक्रमण जैसी बीमारियों की दवाओं के दाम 3.84 प्रतिशत तक बढ़ जायेंगे (स्रोत – 9)। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर देखें तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज का खर्च काफी अधिक है जो आम जनता की पहुँच से काफी दूर है। इसका मुख्य कारण है कि कोई भी कार्पोरेट-परस्त पूँजीवादी सरकारें इनके रिसर्च पर खर्च नहीं करना चाहती क्योंकि इससे मुनाफ़ा नहीं होगा, और जो निजी कम्पनियाँ इनके शोध में लगी हैं वे मुनाफ़ा कमाने के लिये दवाओं की कीमत मनमाने ढंग से तय करती हैं।
वैसे तो मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में सरकारों से पूँजी-परस्ती की इन नीतियों के अलावा और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन इस मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचा कितना असंवेदनशील और हत्यारा हो सकता है यह इस बात से समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य-सुविधा जैसी बुनियादी जरूरत भी बाज़ार मे ज़्यादा-से-ज़्यादा दाम में बेंच कर मुनाफ़े की हवस पूरी करने में इस्तेमाल की जा रही हैं (स्रोत – 10)। वर्तमान सरकार का एक साल पूरा हो चुका है और जनता के सामने इसकी कलई भी खुल चुकी है कि जनता की सुविधाओं में कटौती करके पूँजीपतियों के अच्छे दिन और विकास किया जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्री, नेता और पत्रकाल यह कुतर्क दे रहे हैं कि सरकार क्या करे, पैसों की कमी है इसलिये वर्तमान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिये आवंटित धन में कटौती करनी पड़ रही है। एसे लोगों को सायद यह नहीं पता कि पैसों की कमी कहकर सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने वाली सरकारें, चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा, हजारों करोड़ रूपये बेल-आउट, टेक्स-छूट या लोन में पूँजीपतियों को दान दे चुकी हैं और आज भी दे रही हैं।
अब फरवरी 2015 के टाइम्स ऑफ इंण्डिया में छपी की एक रिपोर्ट पर नज़र डाले, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ उन्हीं डॉक्टरों को काम पर रखा जाता है जो ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीज़ों से भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज़ के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15 हजार रुपये दिये जाते हैं और बाकी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते है। इस रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त करते हुये यह भी कहा गया है कि निजी अस्पतालों की कार्पोरेट लॉबी लगातार सरकार पर Clinical Establishments Act of 2010 को हटा कर चिकित्सा क्षेत्र से सभी अधिनियम समाप्त करने और इसे मुनाफ़े की खुली मण्डी बनाने का दबाव बना रही है, और सरकार इन बदलावों के पक्ष में है (स्रोत – 11)। वैसे इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि लेखक को यह अनुमान ही नहीं है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में चिकित्सा सुविधायें बाज़ार में बिकने वाले अन्य मालों (commodities) की तरह ही पूँजीपतियों के लिये मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े अस्पताल और फार्मा कम्पनियाँ खुलेआम मरीज़ों को लूटते हैं और सच्चाई यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य-सुविधाओं में सरकार द्वारा की जाने वाली कटौतियों का सीधा फायदा निजी अस्पतालों और फार्मा कम्पनियों के मालिकों को ही होगा।
16 मई को जनता के वोटों से चुनकर आई नई मोदी सरकार का एक साल पूरा हो गया और देश के करोड़ों ग़रीब, बेरोज़गार लोगों ने अपने बदहाल हालात थोड़े बेहतर होने की जिस उम्मीद में नई राजनीतिक पार्टी भाजपा को वोट किया था उसमें कोई परिवर्तन नज़र नहीं आ रहा है। उल्टे पहले से चलाई जा रहीं कल्याणकारी योजनाओं को भी पूँजीवादी विकास को बढ़ावा देने के नाम पर बन्द किया जा रहा है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती करके और फार्मा कम्पनियों को दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट देकर सरकार कार्पोरेट मालिकों की जेबें भरने की पूरी तैयारी में लगी है।
References:
2.   Children of urban poor more likely to die: Report, Business Standard, May 5, 2015
4.   Around half of Indian kids under 5 are stunted, The Hindu, April 1, 2015
8.   Medical bills pushing Indians below poverty line: WHO, India Today, November 2, 2011
10.  The High Cost of Cancer Drugs and What We Can Do About It, US National Library of Medicine National Institutes of Health Search, Oct 2012
11.  Doctors with conscience speak out, TOI, Feb 22, 2015

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