Monday, August 29, 2011

Cont. . . नैतिकता, इतिहास, कानूनी, बदलाव :[बाल्ज़ाक के उपन्यास किसान (Balzac) से..

बाल्ज़ाक (Balzac) के उपन्यास किसान (Sons of the Soil) के कुछ उद्धरण

आम लोग प्रतिशोध की भावना से सिर्फ नतीजे देखते हैं, 
उनके कारणों पर सायद ही कभी ध्यान देते हैं -पृ-69
 

वर्ग समाज की नैतिकता का सच, जहाँ,
इंसानो को तो मारा जा सकता है लोकिन स्वार्थों को नहीं मारा जा सकता। (पृ-138.6),
हम जीवन में समता की बात करते हैं, लेकिन कानून में असमानता का राज है। (पृ-156.1)
बूर्ज्वा राजनीतिक प्रचार का सच,
किसी व्यक्ति को राजनीतिक रूप से प्रताड़ित कीजिए और आप पायेंगे कि न केवल उसका कद बढ़ जायेगा बल्कि उसके अतीत का कलंक भी धुल जायेगा। (पृ-143.2)
समाज और इतिहास,
अपन समय के रीति-रिवाजो, प्रथाओं और नैतिकताओं के इतिहासकार को महज तथ्यों के इतिहासकार के मुकाबले कहीं ज्यादा कड़े नियम का पालन करना पड़ता है। उसे हर चीज की यहाँ तक कि सच की भी सम्भाव्यता दिखानी होती है; जबकि इतिहास के क्षेत्र में असम्भव को भी महज इसलिये स्वीकार कर लिया जाता है कि वह वास्तव में घटित हुआ था। सामाजिक या निजी जीवन में होने वाले बदलाव एक हजार स्थितियों से उपजे छोटे-छोटे कारणों का परिणाम होते हैं। (पृ-164) 
बदलाव,
बदलिये! अपनी नैतिकताएँ बदलिये इससे आपकी जीवन-चर्या बदलिये और आपके कानूनों में भी बदलाव आयेगा। (पृ-188.1)
फ्रांसीसी क्रांति के बाद सत्ता में आये बूर्ज्वा,
...देखा! इन बूर्ज्वा लोगो के खिलाफ लड़ने का क्या मतलब है- जब से वे सत्ता में आये हैं उन्होंने इतने सारे कानून बना डाले हैं कि उनके पास हर चाल को लागू कराने के लिए एक कानून है-... (पृ-197.2)
चोरी और कानूनी लूट पर,
एक कुदरत से चुराई गई चीजों पर पलता था तो दूसरा कानूनी लूट पर ऐश करता था। दोनो ठाठ से जीना पसन्द करते थे। यह एक ही स्वभाव की दो अलग-अलग प्रजातियाँ थीं -एक कुदरती था, और दूसरे की भूख को मठ के बन्द माहौल में प्रशिक्षण ने उभाड़ दिया था। (पृ-213.7)
जन क्रांतियों के सबसे बड़े दुश्मन वे होते हैं जो खुद उनके बीच से पैदा होते हैं। (पृ-245)

Sunday, August 28, 2011

नैतिकता , संस्कृति, शिक्षा, एकता, अपराध :[बाल्ज़ाक के उपन्यास किसान (Balzac) से..]

1799-1850
बाल्ज़ाक (Balzac) के उपन्यास किसान (Sons of the Soil) के कुछ उद्धरण

नैतिकता की धारणा पर बाल्ज़ाक,
नैतिकता जिसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, एक निश्चित स्तर की योग्यता पर ही आरम्भ होती है -ठीक वैसे ही, जैसे उच्चतर धरातल पर हम देखते हैं कि आत्मा में कोमल भाव तभी पनपते हैं जब जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो। (पृ-73.3)

कुलीनों की संस्कृति पर बाल्ज़ाक की नजर,
किसान और मेहनतकश का हास्य जरा बारीक होता है। वह अपने मन की बात बोल देता है और जानबूझ कर उसे भोंड़े ढंग से अभिव्यक्त करता है। यही चीज हम पेरिस के बैठककक्षों में पाते हैं। वहाँ इस चित्रात्मक फूहड़ता का स्थान महीन वाक्विदग्धता ले लेती है बस और कोई फर्क नहीं होता… (पृ-76.2)

एक किसान अपने नाती से शिक्षा पर,

मैं उसे ईश्वर से भय खाने के लिए नहीं कहता, बल्कि आदमियों से डरने की सलाह देता हूँ। ईश्वर भला है; जैसा कि आप लोग कहते हैं, उसने हम गरीबों को स्वर्ग का वादा किया है, क्योंकि अमीर लोग धरती को तो अपने लिए ही रखते हैं।... कोई भी चीज चुराओ नहीं, ऐसा करो  कि लोग खुद ही उसे तुम्हें दे दें। ... इंसाफ की तलवार -इसी से तुम्हें डरना है; यह अमीरों को चैन से सोने देती है और गरीबों को जगाये रहती है। पढ़ना सीखो । शिक्षा तुम्हे कानून के पर्दे में पैसे हथियाना सिखायेगी,...। असल चीज यह है कि अमीरों के साथ लगे रहो, और उनकी मेजों से गिरने वाले टुकड़े उठाते रहो...(पृ-99.4)

एक किसान एक बुर्जुआ सूदखोर से,
पूरी दुनियाँ में ऐसा ही है। अगर एक अमीरी में लेट-पोट हो रहा है तो सौ कीचड़ में पड़े हैं।.. इसका जबाब ईश्वर और सूदखोरों से माँगिये। ... हममें से जितने लोग ऊपर उठ पाने में कामयाब हो पाते हैं उनकी तादात उनके आगे कुछ नहीं है जिन्हें आप नीचे धकेल देते हैं।... आप हमारे स्वामी बने रहना चाहते हैं और हम हमेशा ही दुश्मन रहेंगे...। आप के पास सब कुछ है, हमारे पास कुछ नहीं; आपको उम्मीद नहीं करनी चाहिये कि हम कभी दोस्त बनेंगे। (पृ-101.1)
कानून की सख्ती उत्पीड़न की पराकाष्ठा होती है..(पृ-104.2)

अपराधियो की एकता और वर्ग हित,
हितों की ऐसी एकता, जो अन्त: करण के धवल वस्त्र पर पड़े दाग धब्बों की पारस्परिक जानकारी पर आधारित होती है, इस दुनियाँ के उन बन्धनो मे से एक है जो सबसे कम पहचाने जाते हैं और जिन्हें खोलना सबसे कठिन होता है। (पृ-114.3)

भ्रष्टाचार और अपराध का श्रोत,
गुप्त दुष्टताओं और छुपी हुई नीचताओं का मुख्य कारण शायद खुशियों का अधूरा रह जाना ही होता है। इंसान लगातार ऐसी बदहाली को सहन कर सकता है जिससे निकलने की उसे कोई आशा न दिखाई देती हो, लेकिन शुख और दुख का धूप-छाँव का खेल उसके लिये असहनीय हो जाता है। जैसे शरीर को रोग लगते ही दिमाग को ईर्ष्या का कोढ़ हो जाता है। क्षुद्र मस्तिष्कों में यह कोढ़ एक नीचतापूर्ण और क्रूर, कभू शान्त न होने बाली उद्धत तृष्णा को रूप धारण करता है, जबकि परिष्कृत मस्तिष्कों में यह समाजविरोधी सिद्धान्तों को जन्म देता है जो व्यक्ति के लिये अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों को पार करके ऊपर चढ़ने की सीढ़ी का काम कमा करते हैं। (पृ-125.2)
[जन क्रांतियों के सबसे बड़े दुश्मन वे होते हैं जो खुद उनके बीच से पैदा होते हैं। (पृ-245)]

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Tuesday, August 16, 2011

अन्ना की गिरफ्तारी, स्वतंत्रता और जनवाद का हनन, और "सभ्य-समाज"

आज सुबह अन्ना हजारे के गिरफ्तार होने के बाद पूरी मीडिया और अखबारों में बयान आ रहे थे कि सरकार जनवादी अधिकारों और स्वतंत्रता का हनन कर रही है । आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस पूरे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे अन्ना हजारे, जो अब तक सिर्फ भ्रष्टाचार को हर समस्या का आधार बता रहे थे, और जनता को विश्वास दिला रहे थे कि भ्रष्टाचार समाप्त होने के साथ ही सभी समस्याएँ भी दूर हो जाएँगी। लेकिन आज, जब अन्ना हजारे गिरफ्तार हुए तो सारा कार्य "संवैधानिक" तरीके से किया गया । भले ही बाद में उन्हें रिहा कर दिया जाये, फिर भी गिरफ्तारी संविधान के कानूनो के दायरे में ही हुई है । सरकार ने उनके आन्दोलन को सुरक्षा व्यवस्था के लिये खतरा बताकर जेपी पर्क में धारा 144 लगाई, और सुबह उन्हें जाते समय गिरफ्तार कर लिया । इस पूरी घटना में, जिसे जनवादी अधिकारो का हनन कहा जा रहा है, "भ्रष्टाचार" का कोई हाथ नहीं है, और सरकार हर चीज़ संविधान के कानूनों के अनुसार कर रही है । (Reference: NDTV India)
"सभ्य-समाज" (सिविल सोसाइटी) को साधारण जनता का मसीहा बनानें में लगे अन्ना जी, जो खुद भी "सभ्य-समाज" के एक प्रतिनिधि हैं, उन्हें और उनके जैसे अनेक "सभ्य-समाज" के लोगों को यह समझनें में काफी समय लग गया (ज़रूरी नहीं कि समझ ही गये हों, लेकिन हम मान लेते है!!) कि पूँजावादी जनवाद में शासक वर्ग हर समय जनता की स्वतंत्रता का हनन करता है । "सभ्य-समाज" के लोगों को यह बात कभी-कभी सिर्फ तब समझ में आती है जब मज़बूरी में राज्य़ सत्ता को उनके ऊपर थोड़ा सा बल प्रयोग करना पड़ता है ।
लेकिन, अन्ना हजारे जैसे "सभ्य-समाज" के लोग एक गरीब मज़दूर या किसान की स्वतंत्रता की सच्चाई को कभी नहीं समझ सकते, जिसका पूँजीवाद में एक गरीब व्यक्ति के लिये कोई मतलब नहीं हैजहाँ एक गरीब मज़दूर की स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों का हनन उसकी फ़ैक्टरी का एक सुपरवाइजर भी उसे गालियाँ देते हुए, उसपर भौतिक एवं मानशिक रूप से हिंसा करते हुये, हर दिन करता है। और एक गरीब व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके जनवादी अधिकार तो एक छुटभैया पुलिस के सिपाही के डंडे के सामने भी कोई मायने नहीं रखतेऔर यह सब भ्रष्टाचार के कारण नहीं बल्कि असमानता और शोषण पर आधारित समाज के भीतर सम्पत्ति के आधार पर होता है। जिसे व्यापक जनता को शिक्षित, आन्दोलिद और जन पहलतदमी पैदा किये बिना लागू नहीं किया जा सकता।
अन्ना हजारे जी शायद अब स्वतंत्रता की इस सच्चाई को समझ सकेंगे, लेकिन उन्हें और उनके जैसे "सभ्य-समाज" के अन्य लोगों को यह समझनें में काफी समय लगता है, और ज्यादातर तो अपने पूरे जीवन भर में यह नहीं समझ पाते, क्योंकि उन्हें कभी ऐसी अमानवीय परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता । लेकिन गरीब लोग (मज़दूर, किसान और बेरोजगार जनता), जिनकी स्वतंत्रता का रोज अनेक प्रकार से हनन होता है, उन्हे इसका अहसास व्यवहारिक जीवन में रोज होता है, जिसका एक बहुत ही छोटा सा नगण्य अहसास शायद अन्ना जी को आज सुबह हुआ होगा । लेकिन इन गरीब लोगों के पास न तो मीडिया का समर्थन है, और न ही "सभ्य-समाज" उनके साथ है, और उनकी हर आवाज़ को बिना किसी को पता चले दबा दिया जाता है। आन्ना हजारे के साथ तो हजारों लाखों की संख्या में जनता है, और पूरा पूँजीवादी मीडिया उनका साथ दे रहा है, लेकिन, एक व्यक्ति, यदि उसके पास पैसा न हो, तो उस अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
मैं इन्तजार कर रहा हूँ कि, कब "सभ्य-समाज" के लोगों को पूँजीवाद की इस सच्चाई का पता लगेगा और अन्ना हजारे कहेंगे कि पूँजीवादी जनतंत्र सम्पत्तिधारी वर्ग की तानाशाही होता है, जहाँ आम-जनता की स्वतंत्रता सिर्फ सम्पत्ति से निर्धारित होती है ।
[नोट: अभी ताजी खबर मिल रही है कि अन्ना को रिहा किया जा रहा है, और सरकार से बातचीत के बाद उनके रवैये में नरमी भी आई है!! (Reference: NDTV )]

Monday, August 15, 2011

"आग्नेय वर्ष" के कुछ उद्धरण (by फेदिन)

फेदिन के उपन्यास "आग्नेय वर्ष" के कुछ उद्धरण [आग्नेय वर्ष, 1947-48 में प्रकाशित, लोखक- फेदिन]
 

"हम हमेशा एक दूसरे को पढ़कर सुनाया करेंगे। मेरा मतलब हमारे मनपसन्द लेखकों की रचनाओं से है। अगर हम कभी अभागे लोगों के बारे में पढ़ेंगे, तो अपनें को और भी सौभाग्यशाली महसूस करेंगे, क्योंकि उस समय मन ही मन सोचेंगे: कितने सौभाग्य की बात है कि हम इनकी तरह अभागे, दुखी नहीं हैं!"... "नहीं", किरील नें जवाब दिया, "हम पढ़ेंगे और सोचेंगे कि इन अभागे लोगों को भी सौभाग्यसी कैसे बनाया जाये। हमारे लिये सबसे अधिक हर्ष और सौभाग्य की बात यही होगी" (163.4, 163.5)
"हताषा और विषाद के क्षणों में मनुष्य के मस्तिष्क में ऐसे दुस्साहसिक और उतावली-भरे जाने कितने विचार उठते होंगे लेकिन इस तरह के बहुत कम विचार ही मस्तिष्क की सीमायें लाँघकर व्यवहार में साकार बन पाते हैं, क्योंकि मस्तिष्क में वे वैसे ही चैन शान्ति से रहते हैं, जैसे कि नेक इरादे मनुष्य के ह्रदय में उस पर किसी भी प्रकार बोझ बने बिना।" (165.4)
"जब नगर में बाढ़ का खतरा हो तो सभी नगरवासी बाँध बनाने आते हैं, बिना किसी शर्त के । और जो आये, दुबककर बैठा रहे, वह भगोड़ा होता है।" (247.16)
"क्या हम भविष्य में मानव सम्बन्धों को बदलना चाहते हैं ज़रूर बदलना चाहते हैं। तो मैं सोचता हूँ कि हमें अपने वर्तमान जीवन में इन परिवर्तनों के लक्षण ढूँढ़ना चाहिये, ताकि इनमें से कुछ अभी से हमारे जीवन का अंग हो जायें।"... "हमें अपने विचारों को जीते-जाते लोगों में, उनके आपसी सम्बन्धों में उतारना चाहिये। अपने विचारों को व्यवहारिक रूप देना चाहिये। नहीं तो हम अपने सपनों में ही खो जाएँगे.... और हम अपने सपने की ही पूजा करने में इतने आदी हो जाएँगे कि लोगों को भूल ही जाएँगे। इसलिये हमें आज ही इस सपने को साकार करना चाहिए..." (431-432)
"कोई भी उड़ान पृथ्वी धरती के बिना नहीं हो सकती। उड़ने के लिये ठोस ज़मीन जाहिये.... हम भविष्य की उड़ान का मैदान बना रहे हैं। यह बड़ा बड़ा मुश्किल और लम्बा काम है। शायद सभी कामों से मुश्किल काम है यह। इसके लिये हमे सुख-सुविधाओं को भूलना होगा। ज़रूरी हुआ तो हम अपने हथों से ज़मीन खोदेंगे, अपने नाखूनों से इसे ठीक करेंगे, नंगे पैरों से इसे कूटेंगे। और तब तक पीछे नहीं हटेंगे, जब तक कि हमारी उड़ान का मैदान तैयार नहीं हो जाता। हमारे पास आराम करने का समय नहीं है। कभी-कभी तो मुस्कुराने भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती। हमें जल्दी करनी चाहीये।....... मैं तब तक ज़मीन कूटता रहूँगा जब तक की बह उड़ान की दौड़ भरने के लिये तैयार नहीं हो जायेगी। ताकि इतनी ऊँची उड़ान भरी जा सके, जिसकी लोगों ने कल्पना भी नहीं की है। यह ऊँचाई सदा मेरी आँखों के सामने रहती है, हर पल .. मैं लोगों को, उनके साथ स्वयं को भी बिल्कुल दूसरा, नया मनुष्य बना देखता हूँ.... "(462.14)
क्या आज़ भी हम ऐसा ही सोचते हैं और इसके लिये कुछ करते है......

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