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21 जून को विश्व
योग दिवस बीत चुका है और अब योग का ख़ुमार उतार पर है। लेकिन यहाँ हम योग की बात
नहीं करेंगे, पर चूकि योग जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा है इसलिये हम इस अत्यन्त
महत्वपूर्ण मुद्दे, देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति और
सरकार द्वारा उनके लिये उठाये जा रहे कदमों पर पर बात करेंगे।
मई 2015 में
दुनिया के 179 देशों के सर्वेक्षण के आधार पर एक सूची प्रकाशित की गई जिसे वैश्विक
स्तर पर मातृत्व के लिये अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर बनाया गया है। इस सूची में
भारत पिछले साल के 137वें स्थान से 3 पायदान नीचे खिसक कर 140वें स्थान पर पहुँच
गया है। यूँ तो 137वाँ स्थान हो या 140वाँ, दोनों में कोई खास अन्तर नहीं है,
लेकिन यह विकास के खोखले नारों के पीछे की हकीक़त बयान कर रही है, कि देश में आम
जनता के जीवन स्तर में सुधार होने की जगह पर परिस्थितियाँ और भी बदतर हो रही हैं। भारत
अब माँ बनने के लिये सुविधाओं के हिसाब से ज़िम्बाब्वे, बांग्लादेश और
इराक़ से भी पीछे हो चुका है। यह आंकड़ा अच्छे दिनों और विकास का वादा कर जनता का
समर्थन हासिल करने वाली मोदी सरकार का एक साल पूरा होने से थोड़ा पहले आया है जो
यह दर्शाता है कि भविष्य में इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के रहते “विकास” की हर एक नींव रखी जाने के साथ जनता के लिये और भी बुरे दिन आने वाले
हैं।
इसी रिपोर्ट में
सर्वेक्षण के आधार पर बताया गया है कि भारत के शहरी इलाकों में रहने वाली ग़रीब
आबादी में बच्चों की मौत हो जाने की सम्भावना उसी शहर में रहने वाले अमीरों के
बच्चों की तुलना में 3.2 गुना (320 प्रतिशत) अधिक होती है (स्रोत – 1)। बच्चों के ज़िन्दा
रहने की इस
असमानता का मुख्य कारण ग़रीब परिवारों में माताओं और बच्चों का कुपोषित होना, रहने
की गन्दी परिस्थितियाँ, स्वास्थ सुविधायें उपलब्ध न होना है तथा महंगी स्वास्थ्य
सुविधायें है (स्रोत
– 2)। हक़ीकत यह है कि भारत
में पाँच वर्ष की उम्र पूरी होने से पहले ही मरने वाले बच्चों की संख्या पूरी
दुनिया की कुल संख्या का 22 फीसदी है (स्रोत – 3)। अप्रैल 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के आधे से
अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें विटामिन और मिनिरल की कमी है (स्रोत – 4)।
देश के अलग-अलग
शहरों की बस्तियों और गाँवों में रहने वाली ग़रीब आबादी के बीच कुपोषण और बीमारियों
के कारण होने वाली मौतों का मुख्य कारण यहाँ रहने वाले लोगों की जीवन और काम की
परिस्थितियाँ होता है। यहाँ रहने वाली बड़ी ग़रीब आबादी फ़ैक्टरियों
में, दिहाड़ी पर
या ठेला-रेड़ी लगाकर अपनी आजीविका कमाते हैं और इनके बदले में इन्हें जो मज़दूरी
मिलती है वह इतनी कम होती है कि शहर में एक परिवार किसी तरह भुखमरी का शिकार हुये
बिना ज़िन्दा रह सकता है। समाज के लिये हर वस्तु को अपने श्रम
से बनाने वाले मेहनतकश जनता को वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था एक माल से अधिक और कुछ
नहीं समझती, जिसे सिर्फ़ जिन्दा रहने लायक मज़दूरी दे दी जाती है जिससे कि वह हर
दिन 12-16 घण्टों तक जानवरों की तरह कारखानों में, दिहाड़ी पर काम करता रहे। इसके
अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच इन मज़दूर बस्तियों और गाँवों में
रहने वाले ग़रीबों तक कभी नहीं होती। देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य
सुविधाओं का स्तर भी लगातार नीचे गिर रहा है।
लेकिन स्वास्थ्य
सुविधाओं को बढ़ाने की जगह पर वर्तमान मोदी सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च किये
जाने वाले ख़र्च में भी 2014 की तुलना में 29 फीसदी कटौती कर दी। 2013-14 के बजट
में सरकार ने 29,165 करोड़ रूपये स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये आवंटित किये थे
जिन्हें 2014-15 के बजट में घटाकर 20,431 करोड़ कर दिया गया है (स्रोत – 5)। पहले
ही भारत अपनी कुल जीडीपी का सिर्फ 1.3 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं
पर ख़र्च करता है जो BRICS (Brazil, Russia, India, China, South Africa)
देशों की तुलना में सबसे कम है, भारत के बाद चीन का नम्बर है जो कि अपनी जीडीपी का
5.1 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है, जबकि साउथ-अफ्रीका सबसे अधिक, 8.3 फीसदी,
खर्च करता है। डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के
ढाँचे पर किये जाने वाले खर्च के मामले में भी भारत BRICS
देशों की तुलना में काफी पीछे है। भारत में स्वास्थ्य पर जनता द्वारा खर्च किये
जाने वाले कुछ खंर्च में से 30 फीसदी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के हिस्से से
और बाकी 69.5 प्रतिशत लोगों की जेब से खर्च होता है। भारत में 10,000 की आबादी पर डॉक्टरों
की संख्या 7 है जो BRICS देशों की तुलना में सबसे कम है। वहीं
BRICS देशों की तुलना में मलेरिया जैसी आम बीमारियों के
मामले भारत में कई गुना अधिक रिपोर्ट होते हैं जिनसे बड़ी संख्या में मरीज़ों की
मौत हो जाती है। भारत में हर साल मलेरिया के 10,67,824 मामले रिपोर्ट होते हैं
जबकि चीन और साउथ-अफ्रीका में यह संख्या 5,000 से भी कम है (स्रोत – 6)। भारत में हर दिन कैंसर जैसी बीमारी से हर दिन 1,300 लोगों की मौत हो
जाती है, और यह संख्या 2012 से 2014 के बीच 6 प्रतिशत बढ़ चुकी है। (स्रोत – 7)
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पिछड़ी
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण हमारे देश में ग़रीब आबादी अपनी आमदनी का
बड़ा हिस्सा, लगभग 70 प्रतिशत, चिकित्सा पर खर्च करने के लिये मजबूर है, जबकि
श्रीलंका जैसे दूसरे एशियाई देशों में यह मात्रा सिर्फ 30-40 प्रतिशत है। इण्डियन
इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस और विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार
भारत में कम आय वाले लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को चिकित्सा के लिये पैसे उधार लेने
पड़ते हैं, और 16 फीसदी परिवार चिकित्सा की बजह से ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिये
जाते हैं। (स्रोत – 8)।
यह वर्तमान
स्वास्थ्य परिस्थितियों के अनुरूप एक शर्मनाक परिस्थिति है और यह प्रकट करता है कि
भारत की पूँजीवादी सरकार किस स्तर तक कार्पोरेट परस्त हो सकती है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य-सुविधाओं
में कटौती के साथ-साथ बेशर्मी की हद यह है कि सरकार ने फार्मा कम्पनियों को 509 बुनियादी दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट दे दी है, जिनमें डायबिटीज,
हेपेटाइटस-बी/सी कैंसर, फंगल-संक्रमण जैसी बीमारियों की दवाओं
के दाम 3.84 प्रतिशत तक बढ़ जायेंगे (स्रोत – 9)। इसके अलावा
वैश्विक स्तर पर देखें तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज का खर्च काफी अधिक
है जो आम जनता की पहुँच से काफी दूर है। इसका मुख्य कारण है कि कोई भी कार्पोरेट-परस्त
पूँजीवादी सरकारें इनके रिसर्च पर खर्च नहीं करना चाहती क्योंकि इससे मुनाफ़ा नहीं
होगा, और जो निजी कम्पनियाँ इनके शोध में लगी हैं वे मुनाफ़ा कमाने के लिये दवाओं
की कीमत मनमाने ढंग से तय करती हैं।
वैसे तो मुनाफ़ा
केन्द्रित व्यवस्था में सरकारों से पूँजी-परस्ती की इन नीतियों के अलावा और कोई
उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन इस मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचा कितना
असंवेदनशील और हत्यारा हो सकता है यह इस बात से समझा जा सकता है कि
स्वास्थ्य-सुविधा जैसी बुनियादी जरूरत भी बाज़ार मे ज़्यादा-से-ज़्यादा दाम में
बेंच कर मुनाफ़े की हवस पूरी करने में इस्तेमाल की जा रही हैं (स्रोत
– 10)। वर्तमान सरकार का एक साल पूरा हो चुका है और जनता के
सामने इसकी कलई भी खुल चुकी है कि जनता की सुविधाओं में कटौती करके पूँजीपतियों के
अच्छे दिन और विकास किया जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्री, नेता और पत्रकाल यह कुतर्क
दे रहे हैं कि सरकार क्या करे, पैसों की कमी है इसलिये वर्तमान सार्वजनिक स्वास्थ्य
सेवाओं के लिये आवंटित धन में कटौती करनी पड़ रही है। एसे लोगों को सायद यह नहीं
पता कि पैसों की कमी कहकर सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने वाली सरकारें, चाहे वह
कांग्रेस हो या भाजपा, हजारों करोड़ रूपये बेल-आउट, टेक्स-छूट या लोन में पूँजीपतियों
को दान दे चुकी हैं और आज भी दे रही हैं।
अब फरवरी
2015 के टाइम्स
ऑफ इंण्डिया में छपी की एक रिपोर्ट पर नज़र डाले, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों
से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ उन्हीं डॉक्टरों को
काम पर रखा जाता है जो ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीज़ों से
भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल
कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज़ के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15
हजार रुपये दिये जाते हैं और बाकी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते है।
इस रिपोर्ट में “चिन्ता” व्यक्त करते हुये यह भी कहा गया है कि निजी
अस्पतालों की कार्पोरेट लॉबी लगातार सरकार पर Clinical Establishments Act of 2010 को हटा कर चिकित्सा
क्षेत्र से सभी अधिनियम समाप्त करने और इसे मुनाफ़े की खुली मण्डी बनाने का दबाव
बना रही है, और सरकार इन बदलावों के पक्ष में है (स्रोत – 11)। वैसे इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि लेखक को यह अनुमान
ही नहीं है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में चिकित्सा सुविधायें बाज़ार में
बिकने वाले अन्य मालों (commodities) की तरह ही
पूँजीपतियों के लिये मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े
अस्पताल और फार्मा कम्पनियाँ खुलेआम मरीज़ों को लूटते हैं और सच्चाई यह है कि
सार्वजनिक स्वास्थ्य-सुविधाओं में सरकार द्वारा की जाने वाली कटौतियों का सीधा
फायदा निजी अस्पतालों और फार्मा कम्पनियों के मालिकों को ही होगा।
16 मई को जनता के वोटों से चुनकर आई नई मोदी
सरकार का एक साल पूरा हो गया और देश के करोड़ों ग़रीब, बेरोज़गार लोगों ने अपने
बदहाल हालात थोड़े बेहतर होने की जिस उम्मीद में नई राजनीतिक पार्टी भाजपा को वोट
किया था उसमें कोई परिवर्तन नज़र नहीं आ रहा है। उल्टे पहले से चलाई जा रहीं
कल्याणकारी योजनाओं को भी पूँजीवादी “विकास” को
बढ़ावा देने के नाम पर बन्द किया जा रहा है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य सुविधाओं में
कटौती करके और फार्मा कम्पनियों को दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट देकर सरकार
कार्पोरेट मालिकों की जेबें भरने की पूरी तैयारी में लगी है।
References:
10. The
High Cost of Cancer Drugs and What We Can Do About It, US National
Library of Medicine National Institutes of Health Search, Oct
2012