पिछले कुछ समय से भारत के वैदिक विज्ञान को लेकर सरकारी खेमों, मीडिया और लोगों के बीच काफी बहसें चल रही हैं। भारतीय विज्ञान सम्मेलन में भी कुछ लोग यह सिद्ध करते हुये दिखे कि भारत के प्राचीन काल में ही कई ऐसी खोजें हो चुकी थीं जिनके बारे में आज के वैज्ञानिक तक नहीं जानते। कुछ लोगों ने जोश में आकर यहाँ तक कह दिया कि रामायण और महाभारत के समय में ही ऐसे विमान मौजूद थे जो सिर्फ पृथ्वी पर ही नहीं बल्कि जिनसे लोग ग्रहों के बीच आया-जाया करते थे। इस तरह की बातों से हवाई जहाजों के होने की सत्यता तो सिद्ध नहीं होती लेकिन यह ज़रूर सिद्ध हो जाता है कि यदि धार्मिक-विश्वास वैज्ञानिक-तर्क पर हावी हो जाये तो लोग “हवाई” बातें ज़रूर करने लगते है।
साइंस कांग्रेस में वैदिक-विज्ञान के बारे में किये गये दावों पर आते हैं। इस कांग्रेस के आरम्भ होने से पहले ही वैदिक विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में कई बयान आ चुके थे। लेकिन हर दावे की सत्यता को परखने के लिये अब तक किये गये शोधों को छाँटना तो यहाँ सम्भव नहीं होगा लेकिन एक दावे को, कि प्राचीन भारत में विमान ग्रहों के बीच आया जाया करते थे, हम विस्तार से देखेंगे, क्योंकि इसके बारे में साइंस कांग्रेस शुरू होने के बाद अब तक काफी “तर्क” दिये जा चुके हैं।
वैदिक काल के विमानों की मान्यता पर एक नज़र
भारतीय साइंस कांग्रेस में वैदिक-विज्ञान पर प्रस्तुत एक पेपर में कहा गया है कि, “विमान-विज्ञान के बारे में संस्कृत के 100 खण्डों, 8 अध्यायों, 500 सिद्धान्तों और 3000 श्लोकों में वर्णन किया गया है। आधुनिक समय में सिर्फ 100 सिद्धान्त ही ज्ञात हैं। महाऋषि भरद्वाज ने 7000 साल पहले ही विमानों के बारे में बताया था जो एक देश से दूसरे देश, एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप और एक ग्रह से दूसरे ग्रह के बीच यात्रा किया करते थे। उन्होंने विमान-विज्ञान के बारे में 97 किताबों का वर्णन किया है।” (स्रोत-3)
यह विवरण एक किताब वैमानिक-शास्त्र पर आधारित है, जिसे महाऋषि भरद्वाज द्वारा 7000 साल पहले लिखा बताया गया है। कई श्रोता, कई छात्र, और विज्ञान तथा तकनीकि में रुचि रखने वाले कई लोग इसे सच मान लेंगे, क्योंकि यह घोषणा भारतीय विज्ञान की सर्वोच्च मीनार पर बैठ कर की गई है। ‘अश्वत्थामा हतो हता’ की तरह। लेकिन, ‘नरो वा कुंजरो वां’ की तरह जिस बात के बारे में इस मीनार से कोई घोषणा नहीं की गई है वह यह कि क्या पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित विमानों की कहानियाँ वास्तव में वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो चुकी हैं? क्या वास्तव में हमारे देश के ऋषी-मुनि विज्ञान कि उन ऊँचाइयों में पहुँच चुके थे जिनके बारे में आज भी पूरी दुनिया के वैज्ञानिक नहीं जानते? यह कल्पना करना अपने मन को सुकून देने के लिये तो ठीक है लेकिन विज्ञान के लिये और इस दौर में पल-बढ़ रही नई पीढ़ी के लिये काफी खतरनाक हैं।
आज से 40 साल पहले IISC बंग्लौर के प्रोफेसर मुकुन्द, एस.एस.देशपाण्डे, एच.आर. नागेन्द्र, ए.प्रभु और एस.पी गोविन्दराजू की टीम ने 1974 में Scientific Opinion में एक पेपर प्रकाशित किया था जिसका शीर्षिक था “Critical Study of the Work Vyamanika Shastra”। इस पेपर में इन वैज्ञानिकों ने वैमानिक-शास्त्र किताब के अध्ययन के अधार पर कुछ निश्कर्ष निकाले थे जो गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोंण वाले लोगों की काल्पनिक उपलब्धियों पर पानी फेरने के लिये काफी हैं। इस पेपर में वैज्ञानिकों ने किताब के अध्ययन के आधार पर कहा है कि यह किताब पण्डित सुभ्भार्या शास्त्री द्वारा 1900 से 1922 के बीच खोजी गई है, जिसे 1951 में International Academy of Sanskrit Research at Mysore के संस्थापक ए.एम. जोयसेर द्वारा प्रकाशित किया था। यह कहना कि यह किताब 7000 साल पहले ऋषि भरद्वाज द्वारा लिखी गई है गलत है। इस पेपर में वैमानिक-शास्त्र में लिखे गये विमानों के बारे में प्रोफेसर मुकुन्द ने टीम के साथ काफी विस्तार से निरीक्षण किया और बताया है कि “इस किताब में विमानों के बारे वास्तविक तथ्यों के बज़ाय मनगढ़ंत विवरण दिये गये हैं। किसी भी वर्णित विमान की न तो ऐसी योग्यता है और न ही ऐसे लक्षण जिसके आधार पर उन्हें उड़ाया जा सके; इनका ज्यामितीय स्वरूप उड़ाने के हिसाब से अकल्पनीय रूप में भयावह है, और जिन सिद्धान्तों का वर्णन विमान को उड़ाने के लिये किया गया है वे वास्तव में ऐसे सिद्धान्त हैं जो उसे उड़ने नहीं देंगे। (स्रोत-4)
अब ज्ञात हो कि IISC के वैज्ञानिकों का यह विश्लेषण आज से 40 साल पहले 1974 का है। और इसके बारे में आज के वैज्ञानिकों को न पता हो ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन इसके बावजूद कुछ दिनों से किसी नेता या किसी पत्रकार के माध्यम से लगातार वैदिक-विज्ञान पर बयान आ रहे हैं और एक पेपर भारतीय विज्ञान कांग्रेस में पढ़ा गया जिसके कुछ तथ्य इसी किताब पर आधारित हैं जिसकी सत्यता IISC के वैज्ञानिक काफी पहले गलत सिद्ध कर चुके हैं।
Indian Express ने प्रोफेसर मुकुन्द के अभी के एक इंटरव्यू को उद्धरिक करते हुये लिखा है, “हमें यह दुर्भाग्यपूर्ण लगता है, कि कुछ लोग हमारे इतिहास में जो भी है उसे बिना किसी प्रमाण के महिमामण्डित करते हैं। प्रमाण के आभाव में जो कोशिश की जायेगी वह पुरातनता के पक्ष में ही कुछ अधूरे प्रमाण प्रस्तुत करेगी। मुझे नहीं पता कि हम इतिहास का महिमामण्डन करके क्या हासिल कर रहे हैंI... एक तरह से मुझे उस पेपर को लिखने के लिये” (विमान-शास्त्र की आलोचना) ”की गये सारी मेहनत के लिये खेद है। अन्तता उस मेहनत का कोई औचित्य नहीं था।” (स्रोत- 5)
अपने इतिहास और प्राचीन-विज्ञान को समझने और उसका प्रचार करने का सही आधार
यदि हम वास्तव में अपने देश के इतिहास के गौरवशाली उपलब्धियों से जनता को जोड़ना चाहते हैं तो हमें कल्पनालोक और विज्ञान में अन्तर कर करना पड़ेगा और संजीदगी के साथ इतिहास के तथ्यों का अध्ययन करना होगा। यदि प्राचीन-विज्ञान की ही बात करनी हो तो भारत के इतिहास में आर्यभट्ट, ब्रहामगुप्त और पिंगल जैसे गणितज्ञों के बारे में लोगों को बताना चाहिये जो उस दौर की सीमाओं में महाना वैज्ञानिक टेम्पर वाले लोग थे (स्रोत-1)। लेकिन वैज्ञानिक ईमानदारी के साथ यह भी स्वीकार करना चाहिये कि दुनिया के दूसरों भू-खण्डों के इतिहास में भी अलग-अलग दौरों में कई खोजों के साक्ष्य मौजूद हैं। और साथ ही लोगों को यह भी बताना चाहिये के कोपरनिकस, न्यूटन से लेकर आइंस्टीन और डार्विन जैसे अनेक वैज्ञानिकों ने अपने-अपने समय में दुनिया को देखने के नज़रिये और समझने में महत्वपूर्ण अग्रवर्ती भूमिका निभाई जिसके कारण आज प्रकृत के बारे में हमारी जानकारी का क्षेत्र काफी उन्नत हुआ है। न कि इस तरह के अन्धविश्वास को बढ़ावा दिया जाये कि “पुरातन विज्ञान तो आज के विज्ञान से काफी आगे था!!”
आज तक हमारे समाज में मौजूद अतार्किकता और वर्तमान समस्याओं के हल के लिये लोगों को पुरातन की ओर ताकने की आदत डालने में लोगों को कुछ लोगों को सफलता मिल पा रही है इसका मुख्य कारण जनता का औपनिवेशिक गुलामी के दैर में ज्ञान-विज्ञान से कटे रहना है। ब्रिटिश-शासन ने हमारे देश के औद्योगिक विकास को सालों पीछे धकेल दिया था, और अपने उद्योगों की ज़रूरत के मुताबिक भारत को कच्चे माल के एक स्रोत के रूप में सालों तक लूटते रहे। और इसी ग़ुलामी ने देश की व्यापक जनता को उसके इतिहास की उपलब्धियों से काट दिया और यह विश्वास दिला दिया कि यह “सपेरों का देश” है। 1947 में देश के बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सत्ता हस्तानान्तरण के बात भी पिछड़े पूँजीवादी विकास के कारण आज तक कई लोग इस औपनिवेशिक ग़ुलामी से मानसिक रूप से उबर नहीं सके हैं। रोमिला थापर, आर.एस.शर्मा, देवीप्रसाद चटोपाध्याय, इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में मिले ग्रन्थों के अध्ययन के से यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत के प्राचीन इतिहास में समाज और सामाजिक सम्बन्धओं को समझने के लिये महाभारत, रामायण जैसे महाकाव्यों, और वेदों के साथ बौद्ध तथा जैन धर्मों के अब तक मिले ग्रन्थों का अध्ययन भी ज़रूरी है। इन सभी ग्रन्थों को एक साथ रख कर ही इतिहास की ज्यादा सही जानकारी मिल सकती है (स्रोत– 2)।
ऐतिहासिक ग्रन्थों और महाकाव्यों को देखने का नज़रिया
इस तरह के आधे-अधूरे तथ्यों और भ्रमों का प्रचार क्यों किया जा रहा है इसके बारे में हम विस्तार से आगे चर्चा करेंगे, लेकिन अभी रुककर एक बार ऐतिहासिक साहित्य को देखने के नज़रियों पर एक नज़र डाल लेते हैं। एक उदाहरण लेते हैं। महाभारत में संजय (“टेलीपैथी” से) महाभारत की लड़ाई का आँखों देखा वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाते हैं, भीम के पास कई हजार हाथियों के बराबर बल था, गान्धारी ने 100 पुत्रों को घड़ों की मदद से जन्म दिया था; रामायण में रावण के पास पुष्पक विमान था, और पत्थर की अहिल्या राम के छूने मात्र से मनुष्य बन गई थी, आदि। यह सभी काव्यात्मक उपमायें है, और हमें महाभारत जैसी रचनाओं के लेखकों की प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने उस दौर में अपनी कल्पनाशक्ति और सामाजिक ढ़ाँचे के विश्लेशण के आधार पर इन महाकाव्यात्मक साहित्यिक कृतियों की रचना की और जीवन के प्रति देखने का एक दार्शनिक दृष्टिकोंण प्रदान किया, जो आज तक हमें भारत के इतिहास को समझने में मदद करता हैं। लेकिन यह कहना कि इन कृतियों में वर्णित कई मिथकों का विज्ञान से कोई सम्बन्ध है यह अन्धविश्वास के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा।
अगर किसी को पौराणिक कहानियों से विज्ञान निकालने में दिलचस्पी हो तो भारत ही क्यों पूरी दुनिया के कई देशों के प्राचीन ग्रन्थों के ऐसे स्रोत मौजूद हैं जिनसे कई ऐसे वैज्ञानिक “खोजें” मिलेंगी जो आज तक वैज्ञानिकों को ज्ञात नहीं हैं। चीन का इतिहास भी ड्रैगन की दंतकथाओं से भरा पड़ा है जो आग उगलते थे और आसमान में उड़ सकता थे, तो इसका अर्थ यह तो नहीं है कि चीनी लोग आज यह दावा करने लगे कि उस दैर में चीन में वास्तव में ड्रैगन जैसे आग उगलने वाले जीव मौजूद थे जिनपर सवारी करके लोग आसमान की सैर पर जाया करते थे? (स्रोत- 6)
यदि साहित्य में मिथकों को देखें तो कई आधुनिक लेखकों जैसे मार्खेज़, जोर्ग लुईस, लौरा स्कूवेल, की रचनाओं में ऐसे चरित्र, उपकरण और जीव मिल जाते हैं जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता बल्कि वे सभी लेखक की कल्पना से पैदा हुये है। साहित्यिक भाषा में आज इसे जादुई-यथार्तवाद कहा जाता है। (स्रोत- 7) लेकिन आज-कल "वैदिक विज्ञान" को लेकर जो हो रहा है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि आज भी कुछ लोग वैज्ञानिक टेम्पर (Scientific Temper) और खोजी-प्रवृत्ति (Attitude of Inquiry) की कमी और अतार्किकता के चलते साहित्यिक-मिथकीय उपमाओं और वास्तविक वैज्ञानिक उपलब्धियों के बीच अन्तर को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। और इन मान्यताओं के आधार पर वर्तमान में मेहनत कर रहे अनेक वैज्ञानिकों और तकनीकि विशेषज्ञों के यह अहसास करवाने की कोशिश की जाती है कि वैदिक काल के “विज्ञान” के सामने तो आज-कल के वैज्ञानिक बच्चे हैं; वैदिक काल में तो यान दूसरे ग्रहों के बीच आते-जाते रहते थे, जबकि आज-कल तो हमने एक मंगल यान ही भेज पाया है! यह कहना गैर-ईमानदारी ही नहीं बल्कि वैज्ञानिकों का अपमान भी होगा जो, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के हितों के लिये ही सही, लेकिन कड़ी मेहनत कर रहे है।
विज्ञान के मंच पर वैदिक-पौराणिक “विज्ञान” पर जारी बहसों का जिक्र करते हुये द हिन्दू अखबार ने लिखा है, “क्या साइंस फिक्सन के निर्माता को विज्ञान के उन सिद्धान्तों की कार्यविधि का खोज करने वाला माना जा सकता है?” “विज्ञान कांग्रेस ने साइंटिफिट टेम्पर को बढ़ावा देने की बजाय एक ऐसा मंच तैयार किया है जहाँ नौजवानों के दिमाग में ढद्म-विज्ञान (pseudoscience) के बीज बोये जा रहे हैं।” (स्रोत- 8)
पुरातनपन्थी प्रचारों के पीछे छुपे मूल कारण
अब वर्तमान घटनाओं पर आगे बढ़ते हैं। आज कई माध्यमों से साइंटिफिक टेम्पर का सत्यानाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। अब सोचने वाली बात यह है कि ऐसा किया क्यों जा रहा है? लेकिन इसपर सोचने से पहले हम देश की जनता की स्थिति पर एक नज़र डाल लेते हैं, क्योंकि विज्ञान का सीधा सम्बन्ध समाज और समाज की आर्थिक संरचना में मौजूद लोगों के बीच सम्बन्धों से है।
1990 के बाद लगातारी जारी निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के परिणामस्वरूप आज देश के उत्पादन के सारे संसाधन धीरे-धीरे निजी इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग के हाथों में लुटा दिये गये हैं और बचे हुये लुटाने की तैयारी चल रही है। इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर बढ़ रही आर्थिक मंदी की स्थिति के चलते देश में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है, पढ़े लिखे ग्रेजुयेट और तकनीकि शिक्षा प्राप्त लाखों युवा काम की तलाश में भटक रहे हैं और खेती छोड़ कर गाँव के नौजवान काम की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। CRISIL के आंकड़ों के अनुसार 2005 से 2010 के बीच भारत में 2.7 करोड़ नई नौकरियाँ पैदा हुईं जबकि पूँजीवादी "विकास" के कारण मौजूदा 2.5 करोड़ स्व-रोज़गार समाप्त हो गये, यानि रोज़गार के कुल 20 लाख नये मौके पैदा हुये। इसके साथ ही हर साल लेबर मार्केट में जुड़ रहे एक करोड़ मज़दूरों में से सिर्फ 5 फीसदी को ही स्थाई रोज़गार मिल पा रहा है। (औद्योगिकीकरण, लेबर-बाजार और बेरोज़गारी पर CRISIL के आंकड़ों सहित विस्तृत रोपोर्ट आगले पोस्ट में देखेंगे) (स्रोत- 9)।
इसके साथ ही वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आटोमेशन के क्षेत्र में नई वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं जिसके कारण मेहनतकश जनता लगातार बेरोज़गार होकर सड़कों पर धक्के खा रही है। विकास की हर सीढ़ी चढ़ने के साथ पूँजीपतियों-ठेकेदारों-दलालों के सापेक्ष मेहनतकश जनता का जीवन स्तर लगातार पीछे जा रहा है। पूँजीवाद की वर्तमान अवस्था में विज्ञान प्रद्योगिकी और अनुसन्धान इजारेदार पूँजी के मुनाफ़े की हबस को पूरा करने का उपकरण बन चुके है, और आज विज्ञान का समाज के साझा हितों से कोई लगाव नहीं है। बेरोजगारों की संख्या बढ़ने के कारण काम करने वाले वर्गों के भविष्य की अनिश्चितता और प्रतिस्पर्था में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसे में आजीविका कमाने के लिये सभी छात्र, वैज्ञानिक, और तकनीकि-कर्मी भिन्न-भिन्न रूपों में विज्ञान की सेवा करने के नाम पर अपने लिये सम्पत्ति इकठ्ठी करने की कोशिशों में लगे हुये हैं, ताकि अपना भविष्य शुनिश्चित कर सकें। पूँजीवादी शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत विज्ञान और टेक्नोलाजी के क्षेत्र में डिग्री लेकर काम की तलाश में आने वाले ज्यादातर "पढ़े-लिखे" नौजवान ऐसे हैं जिन्हें कभी अपने देश के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक इतिहास के बारे में, विज्ञान और तकनीकि के सामाजिक सरोकारों के बारे में या दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में हुये जनता के संघर्षों के बारे में कोई सांगोपांग समझ नहीं होती। जिन्हें इतिहास और साहित्य पढ़ने का मौका मिलता है उनमें से भी ज्यादातर छात्र इतिहास को संघर्षों की गति के रूप में नहीं देखते बल्कि कुछ जड़ आंकड़ों और नामों के रूप में याद कर लेते हैं।
कांग्रेस सरकार के शासन काल में तैयार हुईं इन परिस्थितियों के बीच जनता में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति गुस्सा लगातार बढ़ रहा था। जनता के इस असंतोष का फायदा उठाकर देश की दूसरी बढ़ी पूँजीवादी पार्टी भाजपा ने सरकार बना ली, जिसपर जनता को पहली सरकार से ज्यादा भरोषा है। लेकिन यदि जनता अधिक तार्किक होगी तो वह अपनी परिस्थितियों पर सवाल उठाएगी और सरकार से माँग करेगी। इसलिये ज़रूरी है कि जनता को तर्क से काटकर भ्रम में डाला जाये। वैसे तो यह काम टीवी-अखबारों के माध्यम से लगातार चलता रहता है। लेकिन पिछड़ी वैज्ञानिक चेतना वाले हमारे देश में सरकार में मौजूद प्रतिनिधियों के बयानों पर जनता बिना तर्क विश्वास कर लेती है। औज यदि यही काम वैज्ञानिकों की मदद से विज्ञान के मंच पर खड़े होकर किया जाये तो उसकी मान्यता और बढ़ जाती है। बाद में वैज्ञानिकों के बीच बहसों से उन तर्कों की आलोचना हो और उन्हें गलत सिद्ध भी कर दिया जाये तब भी आम जनता की सोच पर जो प्रभाव पड़ चुका होता है उसे पलटा नहीं जा सकता, कम से कम समाज को अपनी तार्किक चेतना को सटीक करने में अधिक समय तो लग ही जाता है। यदि किसी व्यक्ति की सवाल उठाने और तर्क करने की क्षमता छीन ली जाये तो वह बिना कोई विरोध किये अपनी दुर्गति को स्वीकार कर लेगा। लोगों को तार्किकता से काटने का काम कांग्रेस सरकार के समय से जारी था जब स्कूल की किताबों से कुछ ऐसे कार्टून हटाने के लिये सारकार ने पहल की थी जो छात्रों को सोचने के लिये मजबूर करते हैं, यही प्रयास नई सरकार के अन्तर्गत भी ज़ोर-शोर से जारी है। (स्रोत- 10)। द हिन्दू की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की एक भी यूनिवर्सिटी में विज्ञान के इतिहास से सम्बन्धित कोई विभाग नहीं है जिससे कि आज-कल हो रही बहसों के बारे में जनता को कोई तथ्यपरक स्रोत मिल सकें (स्रोत- 11)।
पूँजीवादी मुनाफ़ाख़ोरी में बदहाली की मार झेल रही जनता को शान्त रखने के लिये वर्तमान पूँजीवादी विशेषज्ञों को यह ज़रूरी लग रहा है कि समाज की व्यापक मेहनतकश आबादी और इस माहौल में पल और पढ़ रहे छात्रों-नौजवानों को उनके तर्क करने, अपने आस-पास मौजूदा हालातों पर सवाल उठाने और खोज-बीन करने की क्षमता से वंचित कर दिया जाये। और शिक्षा को ऐसे कुशल मज़दूर तैयार करने तक सीमित कर दिया जाये जो रेस के घोड़े की तरह प्रतिस्पर्धा में दूसरों से आगे निकलने की होड़ में दौड़ते रहें, और जिन्हें विज्ञान से पहले अपने आने वाले अनिश्चित कल के लिये कुछ सम्पत्ति हासिल करने की अधिक चिंता हो।
इस तरह की वैचारिक अराजकता और बिभ्रमों के बारे में देश के नौजवानों को शान्ति से बैठ कर सोचना होगा, कि हम आज अपने वैज्ञानिक सोच से क्या कर सकते हैं, जिससे कि आने वाले दौर में देश की व्यापक जनता की लूट को रोका जा सके और बेराजगारी, गरीबी, निरक्षरता, भुखमरी जैसी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सके और जनता के विकास में बाधा बन चुकी पिछड़ी पूँजीवादी व्यवस्था का एक सकारात्मक विकल्प खड़ा किया जा सके।
References:
1. Calculus & India, Frontlie, January 23, 2015,
2. “A historical consciousness existed in texts from early times in India and we need to know which are these texts and the form in which this consciousness is expressed in them.”
“However, we can at least see how these historical texts have represented their own society and the society that preceded them, if we are to treat them as historiography. This has been done and is continuing to be done by historians of early India. But it seems that those wanting to write history from the epics and Puranas are unaware of this research and the publications that have followed.”
“From this perspective the epics and the Puranas are only a segment and constitute two distinct categories of texts. Apart from these there are multiple other texts that are being analysed for historiography, as has been mentioned by Gurukkal. There is also the massive corpus of Buddhist and Jaina literature. The epics and Puranas are only a small part of such texts that are being consulted and analysed.”
3. “The knowledge of aeronautics is described in Sanskrit in 100 sections, eight chapters, 500 principles and 3,000 verses. In the modern day, only 100 principles are available" Maharishi Bharadwaj spoke, 7,000 years ago of “aeroplanes which travel from one country to another, one continent to another and one planet to another. He mentioned 97 reference books for aviation." (TOI, 5 Jan 2015, Heard at science meet: Ancient Indian planes flew to planets)
4. In a paper titled “Critical Study of the Work Vyamanika Shastra’’, published in the journal Scientific Opinion in 1974, Mukunda, S M Deshpande, H R Nagendra, A Prabhu and S P Govindaraju said: “The planes described are at the best poor concoctions rather than expressions of something real. None of the planes has properties or capabilities of being flown; the geometries are unimaginably horrendous from the point of view of flying; and the principles of propulsion make then resist rather than assist flying.” “brought into existence sometime between 1900 and 1922 by Pandit Subbaraya Shastry’’ The work, according to the paper by the IISc scientists, was discovered in 1951 by A M Joyser, the founder of an International Academy of Sanskrit Research at Mysore, who published it.
“What we feel unfortunate… is that some people tend to eulogise and glorify whatever they can find about our past, even without valid evidence. In the absence of any evidence, efforts will be made to produce part of the evidence in favour of antiquity,’’
“I don’t know where we are going by glorifying the past. It makes sense if the ancient knowledge is put to use, not otherwise. In a way, I regret doing all that work to write the paper. Ultimately it seems to have no meaning,’’ said Prof Mukunda.
(Indian Express, 7 January 2015, Science meet didn’t hear: 40 years ago, IISc debunked flying claims)
5. Copy of the Paper A CRITICAL STUDY OF THE WORK “VYMANIKA SHASTRA”, 1974, by H.S. MUKUNDA, S.M. DESHPANDE, H.R. NAGENDRA, A. PRABHU, AND S.P. GOVINDARAJU, Indian Institute of Science, Bangalore ‐ 560012 (Karnataka)
6. The Chinese dragon is one of the most important mythical creatures in Chinese mythology, considered to be the most powerful and divine creature as well as controller of all waters. They were believed to be able to create clouds with their breath. The dragon symbolized great power and was very supportive of heroes and gods.
At sunset Ra passes through the akhet, the horizon, in the west. At times the horizon is described as a gate or door that leads to the Duat. At others, the sky goddess Nut is said to swallow the sun god, so that his journey through the Duat is likened to a journey through her body.[94] (Hornung 1992, pp. 96–97, 113)
7. “Mythology should be read as mythology, and therefore with a rich, and separate identity. Ancient myth-makers, among the Egyptians, Greeks, Indians, Chinese and others, saw myth as involving gods and the supernatural, so it is perhaps sensible not to confuse it with history or science. Myths are old legends; history is what is thought to have happened, of which science is a part. To replace the latter with the former is incorrect and, some would say, rather fanciful, as illustrated by the comments made by Prime Minister Narendra Modi recently in which he connected ancient mythology with contemporary science by claiming that present day inventions had already been materially invented in our ancient past.” (Mythology, science and societ, Romila Thapar, The Hindu, 7, Nov, 2014)
8. “Should the creators of the science fiction then be credited with devising the procedures? “Instead of fostering scientific temper, the congress has provided a forum to seed the minds of young people with pseudoscience.” (The Hindu, 6 January 2015, Mythology and science)
9. CRISIL Insight, January 2014,
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