Thursday, January 15, 2015

क्या राजनीति करना सिर्फ जनता की मेहनत पर पलने वाले देश के "ठेकेदारों" और शेयर-मार्केट के दलालों का काम है ?

Published in Mazdoor Bigul, January 2015
(http://www.mazdoorbigul.net/archives/6636



सबसे निकृष्ट अशिक्षित व्यक्ति वह होता है जो राजनीतिक रूप से अशिक्षित होता है। वह सुनता नहीं, बोलता नहीं, राजनीतिक सरगर्मियों में हिस्सा नहीं लेता। वह नहीं जानता कि ज़िन्दगी की क़ीमत, सब्जियों, मछली, आटा, जूते और दवाओं के दाम तथा मक़ान का किराया यह सब कुछ राजनीतिक फैसलों पर निर्भर करता है। राजनीतिक अशिक्षित व्यक्ति इतना घामड़ होता है कि इस बात पर घमण्ड करता है और छाती फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफ़रत करता है। वह कूढ़मगज़ नहीं जानता कि उसकी राजनीतिक अज्ञानता एक वेश्या, एक परित्यक्त बच्चे और चोरों में सबसे बुरे चोर एक बुरे राजनीतिज्ञ को जन्म देती है जो भ्रष्ट तथा राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का टुकड़खोर चाकर होता है।
- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (जर्मन चिन्तक, कवि, नाटककार)
पिछले कुछ महीनों से देश में राजनीतिक उठा-पटक का दौर लगातार जारी है, लोकसभा चुनाव से लेकर कई राज्यों में विधानसभा के चुनावों तक कभी एक तो कभी दूसरी पार्टी के नेता खुद को जनता की सभी समस्याओं का समाधान करने वाले मसीहा के रूप में प्रस्तुत करके चुनाव जीत कर सत्ता हथिया चुके हैं। इसी क्रम में अगले "मसीहा" दिल्ली में होने वाले चुनाव में उभरना शुरू हो चुके हैं। इन सभी चुनावी सरगर्मियों के बीच आंकड़ों की तरफ ध्यान दें तो हालत यह है कि देश में हर साल एक करोड़ नये काम करने वाले नौजवान श्रम के बाजार में आ रहे हैं, जिनमें से सिर्फ 5 लाख को ही स्थाई काम मिलता हैं, जबकि बाकी 95 लाख बेरोज़गारी में या कहीं सब्जी-भाजी बेंचकर या दिहाड़ी करके किसी तरह जीते हुये काम की तलाश में भटकते रहते हैं (Report on Third Annual Employment & Unemployment Survey 2012-13)। इन्हीं बेरोज़गार नोजवानों के सहारे मेक इन इंडिया के नाम पर सरकार की तरफ से पूरी दुनिया के पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कमाने का न्यौता दिया जा रहा है और निवेश के लिये अच्छा-माहौल बनाने के नाम पर कई सरकारी उपक्रमों, जैसे ओ.एन.जी.सी. और रेलवे को भी निजी लूट के लिये खोल दिया गया है। साथ ही मज़दूरों के बचे-खुचे कानूनों को लागू करना तो दूर बल्कि इन कानूनों को बदलकर निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें तेज हो चुकी हैं जिससे पूँजी का निवेश करने वाले देशी-विदेशी पूँजीपतियों को किसी समस्या का सामना न करना पड़े।

इन सभी सरगर्मियों के बीच अक्सर छात्रों और मज़दूरों के बीच एनजीओ, धार्मिक संगठनों, बाबाओं, धर्मगुरुओं जैसे अनेक माध्यमों से यह प्रचार किया है कि उन्हें राजनीति के चक्कर में पड़कर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिये और अपने काम पर ध्यान देना चाहिये। साथ ही सभी धर्मों के कोई न कई राजनीतिक या गैर-राजनीतिक संगठन भी पूरे देश में मौजूद हैं जो अपने-अपने धर्म के नाम पर देश के बेरोजगार नौजवानों और मज़दूरों के बीच फूट डाल कर मूल मुद्दों से उनका ध्यान भटकाने काम करते हैं। सभी गैर-राजनीतिक छात्रों-युवाओं को इन गैर-राजनीतिक सद्विचारों पर काफी संजीदगी से सोचने और इनमें अन्तर्निहित सच की पड़ताल करने की जरूरत है।
सबसे पहले मज़दूरों के गैर राजनीतिक बने रहने की बात करें तो फैक्टरियों, दफ्तरों और कम्पनियों में मज़दूरी के रूप में जो वेतन उन्हें दिया जाता है और काम की परिस्थितियाँ निर्धारित करने के लिये जो कानून बने हैं उनको लागू करवाने का काम प्रशासन द्वारा किया जाता है। और इन कानूनों को बनाने और उन्हें लागू करने में आने वाली समस्याओं का समाधान करने का काम सत्ता में मौज़ूद राजनीतिक पार्टियों के निर्देश पर होता है। मज़दूरों के जीवन में हर पल मौजूद इस राजनीतिक दख़ल के बावजूद उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है कि राजनीति उनके जीवन से अलग कोई पराई वस्तु है, और राजनीति कुछ विशेष लोगों का काम हैं। आज हमारे देश के पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र की राजनीति में यह एक अधकचरा सच भी है, क्योंकि वोट बैंक की राजनीति में ज्यादातर पैसे के दम पर चुनाव लड़ा जाता है जिसमें ठेकेदारों, दलालों और बड़े-बड़े पूँजीपतियों के पैसों पर खड़ी की गईं राजनीतिक पार्टियों के सिवाय आम लोगों के लिये कोई स्थान नहीं होता। लेकिन इसके अलावा राजनीति सिर्फ वोट डालकर सरकार चुनना ही नहीं है, इतिहास की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले व्यक्ति को इतना पता होगा कि राजनीति से सर छुपाकर गुलामों की तरह काम करके आज तक जनता ने कुछ भी हासिल नहीं किया है। गुलामी और सम्राज्यवाद-सामन्तवाद से लेकर वर्तमान पूँजीवादी समाज में आने तक जो भी अधिकार आज हमें मिले हैं वे सभी समय-समय पर पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता के किसी न किसी संगठित राजनीतिक संघर्ष और आन्दोलनों के दम पर हासिल किये गये हैं।
लेकिन पूँजी के दम पर खड़ी की गईं अनेक राजनीतिक पार्टियाँ लोगों के सामने उनके मसीहाओं को खड़ा कर अपने शातिर कार्यकर्ताओं के सहारे समाज के कोने-कोने में मज़दूरों-नौजवानों को गुमराह करने के लिये उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि राजनीति में समय लगाना समय की बर्बादी है, सिर झुकाकर कारखानों और फैक्टरियों में अपना समय बेंचते रहोंऔर आगर काम नहीं करोगे तो खाओगे क्या”, “बाकी सारी जिम्मेदारी नेताओं पर छोड़ दो। बचपन से इस तरह के भ्रामक प्रचार के साये में पले बढ़े लोगों पर इसका असर जरूर पड़ता है जो मज़दूरों-नौजवानों को राजनीतिक रूप से उदासीन एक वेतन गुलाम में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
इसी तरह छात्रों के बीच एक आम राय का प्रचार किया जाता है कि कॉलेज सिर्फ पढ़ाई करने के लिये होते हैं जहाँ राजनीति में समय बर्बाद नहीं करना चाहिये। लेकिन साथ ही यह भी कहा जाता है कि छात्र-नौजवान देश का भविष्य होते हैं। लेकिन क्या छात्र नौजवान देश का भविष्य सिर्फ इसलिये होते हैं कि चुपचाप स्कूल-कालेज में पढ़ाई करके किसी एक क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करके कारखानों या आफिसों में सिर झुकाकर मशीनों की तरह काम करने में लग जाएँ? बिना यह जाने कि वे पढ़ कर जिस काम में विशेषज्ञता हासिल कर रहे हैं उसका क्या सामाजिक महत्व है, क्या उससे जनता का कुछ भला हो रहा है या सिर्फ पूँजी की जुगाली करने वाले कुछ मुठ्ठीभर लोगों की जेबें गरम हो रही हैं, जो जनता की मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ने के नये-नये तरीके इजाद करने में लगे हैं, और जो काम करने वाली व्यापक आबादी को उदासीन बनाकर और उन्हें आपस में बाँटकर खुद बिना किसी मेहनत के अय्याशी भरी जिन्दगी जी रहे हैं। जबकि दूसरी ओर देश-समाज की बड़ी आबादी बेरोजगारी, कुपोषण और शोषण की शिकार है। क्या छात्रों को ऐसे ही भविष्य के निर्माण के लिये प्रेरणा और शिक्षा दी जाती है जिससे कि आज का छात्र कल किसी कारखाने या आफिस में अराजनीतिक रूप से शिक्षित होकर कुछ लोगों के मुनाफे के लिये उत्पादन के काम में या सेवा करेन में लग जाये? क्या छात्रों को राजनीतिक रूप से अशिक्षित करके उन्हें अर्द्ध-शिक्षित उत्पादन मशीन नहीं बनाया जा रहा है।
छात्र और नौजवान देश का भविष्य होते हैं लेकिन उस तरह नहीं जैसा कि हमें आज बताया जाता है। छात्र और नौजवान भविष्य में खटने वाले मज़दूर ही नहीं होते हैं, बल्कि इतिहास बनाने वाले राजनीतिक रूप से सचेत मेहनतकश होते हैं, जो विज्ञान और तकनीकि विशेषज्ञता के साथ ही देश की राजनीति और संस्कृति को अपने काम से संगठित एकता बनाकर बदलते आये हैं और नये मुल्यों तथा नये विचारों का सूत्रापात करते हैं। आज छात्रों और मेहनतकश नौजवानों को यह नहीं बताया जाता उनकी सारी सृजनशीलता को पुरानी घिसी पिटी राजनीति, सामाजिक मूल्यों और संस्कृति के पाटों के बीच कुचला जा रहा है और एक उत्पादन मशीन तथा सिर झुकाकर आज्ञा पालन करने वाले रोबोट में बदलने का काम किया जा रहा है।
राजनीति पर अपनी इजारेदारी बनाये बैठें लोगों को लगता है कि यदि देश की युवा आबादी को राजनीतिक रूप से उदासीन और अशिक्षित कर दिया जायेगा तो वे बेरोजगार होकर काम की तलाश में भटकते रहेंगे, या किसी कारखाने में या किसी आफिस में किसी भी शर्त पर काम करने लगेंगे और कुछ मुठ्ठीभर देशी विदेशी पूँजीवादी-सम्राज्यवादी मुनाफाख़ोरों को देश की प्राकृतिक तथा मानव सम्पदा को खुले आम लूटते हुये देखते रहेंगे। एक सीमा तक वर्तमान प्रचार तन्त्र मज़दूरों और नौजवानों के बीच लम्पट और कूपमण्डूक संस्कृति के माध्यम से ऐसा करने में सफल भी हो रहा है। राजनीति में हिस्सा लेने के नाम पर कुछ राजनीतिक पार्टियॉ मिस-कॉल करके सदस्यता दे रही हैं, लेकिन मिस-काल करके समाज के भविष्य का ठेका किसी और को दे देना राजनीति नहीं हैं, बल्कि देश की मेहनतकश जनता के साथ एक मजाक है। इन सच्चाईयों के बीच भी यह सम्भव नहीं है कि देश की व्यापक आबादी को उसकी अपनी बदहाली के वास्तविक कारण के बारे में हमेशा के लिये अंधेरे में धकेले रखा जये। पूँजीवाद के रहते जहाँ श्रम शक्ति एक माल हो, और जहाँ इंसान को बाजार में बिकने वाले माल में तब्दील कर दिया गया हो वहाँ छात्रों और मज़दूरों को राजनीतिक रूप से अशिक्षित बनाकर सिर झुकाकर काम करने वाली भेंड़ों में तब्दील करके नहीं रखा जा सकता। आने वाले समय में शोषक सम्बन्धों के कारण पैदा हुईं जीवन की बदतर परिस्थितियाँ बार-बार मज़दूरों, किसानों और नौजवानों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी हासिल करने के साथ संघर्षों के इतिहास को समझते हुए मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में व्याप्त दरियाकनूशी मान्यताओं और प्रचलनों को बदलने के लिये खुद आगे आने और व्यापक स्तर पर हर प्रकार के शोषण के विरुद्ध संगठित होने का आह्वान करती रहेंगी। और जैसा कि कई मज़दूर नेताओं ने कहा था, कि यह संघर्ष तब तक जारी रहेंगे जब तक शोषक सम्बन्धों को पूर्ण उन्मूलन नहीं हो जाता।

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