एक बार फिर चुनावी राजनीति के नये-पुराने नेता जनता के सामने अपनी-अपनी प्रशंसा करके वोटरों को लुभाने में लगे हैं। चुनावी जुमलों के बीच आम जनता की ज़िन्दगी से जुड़े मुख्य मुद्दे, जिनके लिये देश के अस्सी फीसदी से अधिक नौजवानों, मज़दूरों और किसानों को हर दिन जद्दो-जहद करनी पड़ती है, सभी नेताओं की जुबान से ग़ायब हैं। एक कहता है कि मैं बनिया का बेटा हूँ मेरा सहयोग कीजिये मैं व्यापार करना आसान बना दूँगा (जिससे कि आम जनता की मेहनत की खुली लूट की जा सके), वहीं दूसरा कहता है कि मैं व्यापारी हूँ मेरा सहयोग कीजिये मैं नये-नये उद्योग लगाने के लिये सारे नियम सरल कर दूँगा (जिससे किसी भी शर्त पर लोगों को मुनाफ़ा बनाने के लिये काम पर रखा जा सके)।
मौजूदा हालात पर एक नज़र डालें तो राजधानी के लाखों काम करने वाले मज़दूर किसी न किसी कम्पनी में ठेकेदारों के लिये रोज़ाना 12-16 घण्टे काम करके 4000 से 6000 महीना की मज़दूरी पाते हैं। इन लाखों लोगों के लिये कोई वायदे न तो “ईमानदार” नेता कर रहे हैं न ही "अनुभवी", न खुद को व्यापारी कहने वाला कुछ बोल रहा है न खुद को बनिया कहने वाला इसके बारे में कोई बात कर रहा है।
क्या इन आत्ममुग्ध नेताओं से कोई यह पूँछेगा कि देश के काम करने वाले मज़दूरों-किसानों और छात्रों-नौजवानों की माँगों के बारे में ये लोग क्या करने वाले हैं। पूरे देश की अर्थव्यवस्था में व्याप्त खुली मुनाफाख़ोरी और लूट पर अंकुश लगाने के लिये इन लोगों का क्या रुख़ है, और अमीरों-ग़रीबों के बीच लगातार चौड़ी होती असमानता को रोकने के लिये यह लोग क्या करेंगे? कोई भी नेता इन सवालों को न तो उठा रहा है न कुछ बोल रहा है।
एक पार्टी के नेता ने अभी कुछ दिन पहले रवीश कुमार को दिये एक इण्टरव्यू में कहा है कि लोगों में “कुशलता” नहीं हैं इसलिये वे बेरोज़गार हैं। इसलिये यदि उनकी सरकार बनेगी तो वह लोगों में “कुशलता” के लिये नये सेण्टर बनायेंगे। इन जैसे नेता तो लगता है कि सरकारी आंकड़ें भी नहीं देखते। राजधानी की ही बात करें तो यहाँ काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर काम करते हैं, जो कपड़ा फ़ैक्टरी, सरिया बनाने वाले कारख़ानों, आटोमोबाइल बनाने वाली कंम्पनियों, दिहाड़ी मज़दूरी या ठेला लगाने जैसे काम करते हैं, और इन कामों के लिये उन्हें किसी विशेष कुशलता की आवश्यकता नहीं होती। और यदि कुशलता की ही बात करनी है तो देश में ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट छात्रों की बेरोजगारी के आंकड़े उठाकर देख लेना ही काफी है। एक आंकड़ा देखकर हम देश के करोड़ों "कुशल" मज़दूरों के हालात का अन्दाज लगा सकते हैं। जुलाई 2014 के New Indian Express की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले तमिलनाडु में 84 लाख बेरोज़गार नोकरियाँ ढूँढ़ रहे हैं जिनमें से 18 लाख ग्रेजुएट हैं और 6 लाख पोस्ट-ग्रेजुएट, जिनमें से 2.1 लाख इंजीनियर हैं। (See at : 70% Engineering Graduates Unemployed in State)। ऐसे में बेरोज़गारी का कुशलता से कोई सम्बन्ध होनेे का सवाल ही नहीं उठता, इसका मुख्य कारण है कुछ लोगों के हितों के लिये खुला निजीकरण और मुनाफ़ाखोरी।
इस परिस्थिति में सिर्फ नारेबाज़ी के झाँसे में आकर अपने “मशीहा” चुनने से क्या आम इंसानों के जीवन पर वास्तव में कोई फर्क पड़ेगा? यह गंभीरता से सोचने वाला सवाल है।
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