कार्पोरेट जगत की तिजोरियाँ भरने के लिये जनहित
परियोजना का बलिदान
Published
in Mazdoor Bigul, February 2015 :
http://www.mazdoorbigul.net/archives/7063
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मनरेगा के तहत
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2009-10
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2010-11
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2011-12
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2012-13
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2013-14
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2014-15*
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कुल जारी किये गये जॉब-कार्ड
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11.25 Cr.
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11.98
Cr
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12.50
Cr.
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13.06
Cr.
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13.15
Cr.
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13.00
Cr
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परिवारों को मिला रोज़गार
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5.26
Cr.
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5.49
Cr.
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5.06
Cr.
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4.99
Cr.
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2.79
Cr.
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3.60
Cr.
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प्रति-व्यक्ति-दिन प्रति परिवार
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54
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47
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43
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46
|
46
|
34
|
* दिसम्बर 2014 तक, (स्रोत - मनरेगा
रिपोर्ट,in
Business Standard, 3 फरवरी 2015)
|
वर्तमान भाजपा सरकार ने मनरेगा में सामान
और उपकरण खरीदने के लिये दिये जाने वाले धन को बढ़ा दिया है और मज़दूरी के लिये
आवंटित धन को कम कर दिया है जिससे इस परियोजना को लागू करने वाले सरकारी अफसरों,
बिचौलियों, कॉन्ट्रैक्टरों, ग्राम-प्रधानों और ठेकेदारों को खुला भ्रष्टाचार करने
का बढ़ावा मिलेगा और काम करने वाले मज़दूरों को नुकसान होगा, यह तय है।
वर्तमान सरकार
इस परियोजना को बन्द करने की दिशा में लगातार प्रयास कर रही है, जो आंकड़ों से
स्पष्ट है। लेकिन ज़मीनी हक़ीकत देखें तो बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ रही है,
जिनको किसी और विकल्प के आभाव में इस परियोजना से थोड़ी सहुलियत मिल जाती है। 2009
से 2014 तक इस परियोजना के तहत जारी किये गये कुल जॉब-कार्डों की संख्या 11.25
करोड़ से बढ़कर 13.0 करोड़ हो गई है। परियोजना के पिछले सालों के कामकाज पर नज़र
डालें तो साल 2008-09
में
क़रीब 23.10 अरब प्रति व्यक्ति
कार्य
दिवस
रोज़गार मिला जिससे, एक सीमा तक ही सही, हर साल लगभग पाँच करोड़ परिवारों को फायदा
हुआ। रोज़गार पाने वाले लोगों में क़रीब आधे प्रति व्यक्ति कार्य दिवस महिलाओं को
मिले। इस परियोजना से स्त्रियों और पुरुषों के न्यूनतम मज़दूरी के अंतर में कुछ कमी
आई है और रोज़गार के लिए ग्रामीण इलाकों से मज़दूरों का पलायन थोड़ा कम हुआ था।
परियोजना में आवंटित
धन को कम करने के पीछे सरकार की तरफ से यह तर्क दिया जा रहा है कि सरकार के पास पैसों
की कमी है। सरकार के इस झूठ को समझने के लिये हमें कुछ आंकड़ों पर नज़र डालनी होगी।
मौजूदा वित्तीय वर्ष में मनरेगा के लिये दिया जाने वाला बजट 33,000 करोड़ रुपए है जो देश की जीडीपी के सिर्फ
0.3 फीसदी के बराबर है। जबकि
उद्योग जगत को दी जाने वाली करों
की छूट जीडीपी के तकरीबन तीन फ़ीसदी
के
बराबर है जो मनरगा के लिये जरूरी फण्ड की तुलना में 10 गुना अधिक है। उद्योगपतियों
को टैक्स में छूट देने से देश के सिर्फ 0.7
फीसदी मज़दूरों के लिए रोज़गार पैदा होगा,
जबकि मनरेगा के तहत 25 फ़ीसदी ग्रामीण
परिवारों को रोज़गार मिलता है।
केवल सोने और हीरे के कारोबार में लगी कंपनियों को मनरेगा पर आने वाले खर्च की
तुलना में दोगुने, यानि 65,000 करोड़ रुपये के बराबर
कर छूट दी गई है। अभी हाल ही में मोबाइल सर्विस देने वाली एक कम्पनी वोडाफोन को कर
में 3,200 करोड़ की छूट दे दी गई है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सरकार जनता के
पैसों को उद्योगपतियों के मुनाफ़े और उनकी विलासिता के लिये लुटाते समय पैसों की
कमीं के बारे में नहीं सोचती लेकिन जहाँ जनता के लिये कोई परियोजना लागू करने की
बात होती है वहाँ लोगों को गुमराह करने के लिये धन की कमी का बहाना बना दिया जाता
है।
लोगों को रोज़गार देने में असमर्थ
लुंज-पुंज और पिछड़ी भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जनता को सम्माननीय जीवन स्तर
देने में असमर्थ है, लेकिन सरकार जनता के लिये चलाई जा रही परियोजनाओं में भी
कटौती करके पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने के लिये प्रतिबद्ध है। गुजरात मॉडल से देश
के विकास का नारे लगाने वाली वर्तमान सरकार चाहती है कि देशी-विदेशी पूँजी को
मुनाफ़ा कमाने की खुली छूट देकर “विकास” को बढ़ावा दिया जाये
और जनता के लिये चलाई जा रही कल्याणकारी परियोजनाओं में खर्च को घटाकर कम से कम कर
दिया जाये। इस समय योजना आयोग की जगह लेने वाले नीति आयोग में जिन दो अर्थशास्त्रियों की
नियुक्ति की गई वो दोनों ही सामाजिक
सुरक्षा
वाले अन्य कार्यक्रमों समेत मनरेगा के मुखर आलोचक रहे हैं। स्पष्ट है कि यदि
व्यापक स्तर पर मज़दूरों ने जनता के अधिकारों में की जा रहीं इन कटौतियों के खिलाफ
आवाज़ न उठाई तो मनरेगा जैसी जन-कल्याणकारी परियोजनाओं को भी कार्पोरेट के मुनाफ़े
की भेंट चढ़ाकर बन्द कर दिया जायेगा। आज जिस तरह पूरे देश में रोजगार की अनिश्चितता
और बेरोज़गारी बढ़ रही है और ग्रामीण इलाकों से उजड़-उजड़ कर अनेक गरीब परिवार
शहरों तथा महानगरों में काम की तलाश में आ रहे हैं जिनकी आबादी महानगरों के आस-पास
मज़दूर वस्तियों के रूप में बस रही है, ऐसे समय में मनरेगा परियोजना में की जा
रहीं कटौतियों के खिलाफ़ आवाज उठाने के साथ जरूरी है कि शहरों में रहने वाले
करोड़ों गरीब मज़दूर परवारों के लिये रोज़गार गारण्टी की माँग भी उठाई जाये।
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