"किसी भी समाज में मेहनतकश जनता
का जीवन स्तर उस समाज के संघर्ष के इतिहास से निर्धारित होता है"
-कार्ल मार्क्स
[अज-कल के दौर में सभी काम करने वालों के सोचने के लिये जरूरी बिन्दु]
(From : www.desaarts.com) |
आगे बढ़ने से पहले इस संघर्ष से जनता के समाजिक जीवन
स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव को देखना होगा, जो यह समझने में मदद करेगा कि किसी समाज
के वर्ग संघर्ष का इतिहास उसके पूरे मेहनतकश वर्ग के सामाजिक जीवन स्तर को किस
प्रकार प्रभावित करता है। यदि पूँजीवादी जनतंत्र में मज़दूर और पूँजीपति के बीच
चलने वाले संघर्ष को लें, जिसमें मज़दूरों को अपने ट्रेड यूनियन बनाकर हड़ताल करके
दबाव बनाने का संवैधानिक अधिकार दिया जाता है, ('मज़दूरी, दाम और मुनाफा' लेख के नोट्स...)
1. मज़दूर अपका वेतन बढ़बाने के लिए हड़ताल करते
हैं ताकि वे एक बेहतर जीवन स्तर पा सकें... या कहना चाहिए.. कि वे दूसरे दिन काम
पर आने से पहले अपने श्रम का पुनर्उत्पादन थोड़ी अच्छी जीवन पर्स्थितियों में कर सकें।
2. और मान लें कि इस संघर्ष में मज़दूरों का वेतन
बढ़ जाता है, तो वह अपनी बड़ी हुई कमाई को खाने और रोजमर्रा की वस्तुओं पर खर्च करेगा
जिससे इन वस्तुओं की माँग बढ़ेगी और परिणाम स्वरूप बाज़ार में समान्य उपयोग की
वस्तुओं की माँग बढ़ जाएगी।
4. इसी के सथ मज़दूरी बढ़ने से पूँजापति का
हिस्सा घटेगा और उसका मुनाफा कम होगा,
5. मुनाफा कम होने से उनकी विलासिता मे खर्च
होने वाले धन की मात्रा भी कम होगी, जिससे विलासिता के उत्पादों की माँग घटेगी,
3. सामान्य वस्तुओं की मांग बढ़ने के कारण उनका
दाम कुछ समय के लिए बढ़ेगा,
4. विलासिता की वस्तुओं की माँग घटने से और
सामान्य बस्तुओं की माँग बढ़ने से सामान्य वस्तुओं के उत्पादन में निवेश भी बढ़ेगा
जिससे उनका दाम फिर कम हो जाएगा और सामान्य स्तर के आसपास बढ़ता-घटता रहेंगा।
5. अंतता विलासिता के सामान के उत्पादन में
निवेस कम होगा और मज़दूरी बढ़ने के कारण मेहनतकश जनता का का जीवन स्तर बढ़ेगा जो
अन्य पूँजीपतियों पर भी उसी जीवन स्तर के अनुशार वेतन देने का दबाब वनाएगा और अब
उत्पादन का ज्यादा हिस्सा मज़दूर वर्ग को मिलेने लगेगा।
और यही उस कथन की व्याख्या है कि किसी भी समाज
में जनता का जीवन स्तर उसके इतिहास के वर्ग संघर्ष पर निर्भर करता है, जिसके
प्रत्यक्ष उदाहरण यूरोप और अमेरिका, और भारत जैसे देश है जिनमें संघर्षों का
इतिहाश अलग-अलग होने के कारण जनता के जीवन स्तर में जमीन ओर आसमान का प्रत्यक्ष अन्तर
दिखता है। एक तरफ अमेरिका की गरीबी रेखा का स्तर प्रति माह $1000
की आमदनी है, और भारत में गरीबी रेखा के लिए आवश्यक आमदनी लगभग $20 (900 रु) है; जबकि पूँजीपति वर्ग और सत्ताधारी
पर्टियों के नेताओं के जीवन स्तर पर खर्च भारत में अमेरिका से अधिक ही होगा। (Ref: America Statics, Indian Statics)
इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि
पूँजीवादी जनतंत्र में सम्पत्ति के माध्यम से राज्य सत्ता के नियंत्रण में होने के
कारण पूँजीपति पूजीवाद के स्वभाविक संचय से पैदा होने वाले संकट के समय में अनेक
मज़दूरों को बेरोज़गारी और गरीबी में धकेलता रहता है । पूँजी के विश्वव्यापी इज़ारेदारी
(Monopoly) के वर्तमान युग में पूँजीपति वर्ग इतना सक्षम है कि वह मज़दूरों को
गुमराह करके, कानून बनाकर, बल प्रयोग करके, मज़दूरों के संगठन को तोड़कर और उनके
बीच से उनके दलालों को खरीदकर श्रम पर पूँजी का अधिनायकत्व लगातार बनाए रखता है।
इस प्रकार मजदूरों को असंगठित रखकर पूँजीपति वर्ग
पूँजी संचय की प्रक्रिया को जारी रखता है, और उत्पादन को लगातार केन्द्रत करता
जाता है और अपने समर्थन का आधार तैयार करने के लिए, मध्य और उच्च वर्ग के बाजार
में बेंचने के लिए, लगातार विलासिता के सामान का उत्पादन को बढ़ाता है, मज़दूरों
के शोषण से पैदा होने वाले मुनाफे को इन विलसिता के उत्पादों के प्रचार में खर्च
करता हैं जिसके तहत कोई उत्पादन न करने बाले अनेक श्रम के परजीवी पैदा होते हैं और
मज़दूरों का शोषण लगातार बढ़ता है। पूरे समाज में मज़दूरो और पूँजीपतियों के जीवन
स्तर का फ़ासला भी लगातार बढ़ता है। हम उदाहरण देख सकते हैं कि भारत जैसे राष्ट्र
में एक तरफ करोड़पतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है ओर दूसरी और बेरोजगारी और गरीबी
के कारण जनता का सापेक्ष जीवन स्तर लगातार नीचे होता जा रहा है।
1990 में लागू निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ
को इसी प्रकार समझा जा सकता है, जिनके तहत श्रम कानूनों को ढीला करके पूरे मज़दूर
वर्ग को (93 फीसदी) एक असंगठित क्षेत्र में ठेकाकरण के कामों में धकेल कर इस वर्ग
संघर्ष को कुचलने का पूरा प्रयास किया गया, जो आज भी देशी और विदेशी पूँजीपतियों
के लिए मुनाफे के लिए विश्व स्तर पर मज़दूरों के तीक्ष्ण शोषण को बरकरार रखने में लगा
है।
इस पूरी प्रक्रिया की रोशनी में देखने पर यह तो
सभी को समझ में आ जाता है कि 1990 के बाद अपनाई गईं निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ
और श्रम कानूनों को कमजोर करने की चाल ने पूरे देश के ज्यादातर मज़दूरों को असंगठित
क्षेत्र में धकेल दिया और उनके संगठनो को कमजोर बना दिया या मज़दूरों की ट्रेड
यूनियनों के नेताओं को अपना दलाल बनाकर उन्हे असंगठित क्षेत्र के मड़दूरों से अलग
कर दिया, और जिसका परिणाम है कि आज भारत की कुल मज़दूर आवादी का 93 फीसदी असंगठित है।
यदि यह न किया गया होता तो मज़दूर संघर्ष के माध्यम से उत्पादन में मेहनतकश जनता
का हिस्सा ज्यादा होता और कुछ मुठ्ठी भर लोगों को बहुमत के शोषण से मिलने वाली
विलासिता पर भी नियंत्रण होता; और सरकार गरीबों का मज़ाक भी न उड़ा पाती।
जबकि जनतंत्र में सभी सुविधायें जैसे चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार और आवास तो हर
व्यक्ति का अधिकार होने चाहिए और राज्या की जिम्मेदारी होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान
समय में समाज के चुने हुए शासक सिर्फ एक गरीबी रेखा बनाकर पूँजीपतियों की सेवा में
लगे रहना चाहते है और जनता छुपे रहना चाहते हैं।
ऐसे में समाज की पूरी व्यवस्था को जो मशीनों,
उत्पादन और वितरण के चारो ओर बनीं हुई है उसकी वैज्ञानिक समझ को हर एक तक पहुँचाने
के बाद ही किसी बेहतर समाज के निर्माण की बात सोची जा सकती है। और, क्योंकि
पूँजीवाद स्वयं लगातार जनता को बदहाली में धकेलकर अपनी स्वभाविक रूप से अपनी तबाही
की ओर बढ़ रहा है, इसलिए इसका समाधान सिर्फ एक ऐसी उत्पादन व्यवस्था के निर्माण
में निहित है जिसमें उत्पादन के उपकरण जनता के नियंत्रण में हों और उत्पादन मुनाफे
के लिए नहीं बल्कि आवश्यकता के लिए हो। यह सिर्फ तभी सम्भव है जब शोषित उत्पीड़ित
जनता की सामूहिक सामाजिक चेतना को पूँजीवाद की सच्चाई का प्रत्यक्ष
भण्डाफोड़ करते हुए विकशित किया जाए और उन्हे शिक्षित किया जाए कि वे अपने जनवादी
अधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें और उनको पाने के लिए संघर्ष कर सकें।
साम्राज्यवाद की भूमंडलीकरण की वर्तमान अवस्था
मे यह पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई है जिसको विस्तार से समझने के लिए कुछ-एक
पुस्तकें पढ़नीं पड़ेंगी इसलिए आपको सोचने के लिए यहीं पर छोड़ कर लेख को समाप्त
करना होगा...
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