20वीं शताब्दी के आरम्भ में
साम्राज्यवादी देश, जैसे इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, अपने औपनिवेशिक देशों में व्यापक मज़दूर-किसान आबादी के खुले शोषण कर अपने देश की
जनता के बड़े हिस्से को आरामतलब जीवन स्तर मुहैया कराते थे। इन विशेषाधिकारों के
दम पर साम्राज्यवादी देशों
ने अपने देश की मेहनतकश आबादी को पूरी दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित मज़दूरों के महान
मुक्ति के संघर्षों से काट कर अलग कर दिया था। 2014 में हम इतिहास के जिस
मोड़ पर खड़े हैं, दुनिया के ज्यादातर देश जो सम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश थे वे
आज व्यापक मेहनतकश जनता के संघर्षों के दम पर प्रत्यक्ष उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी
शासन से मुक्त हो चुके हैं, और भारत जैसे तीसरी दुनिया के
देशों में सत्ता में मौजूद पूँजीपति वर्ग उत्पादन के सम्बन्धों को मुनाफ़ा-केन्द्रित
उत्पादन सम्बन्धों में तब्दील करने के काम को अन्जाम दे चुका है।
20वी सताब्दी के दूसरे दशक में
लेनिन ने “साम्राज्यवाद पूँजीवाद
की चरम अवस्था” में लिखा है कि
साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों के लिये “आवश्यक रूप से
इस विशाल अति-मुनाफ़े (क्योंकि वे उस मुनाफे की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में
मुनाफा निचोड़ते हैं जो पूँजीपति “अपने” देश के मज़दूरों के निचोड़ते हैं) के दम पर यह सम्भव हो जाता है कि मज़दूर
नेताओं और अभिजात मज़दूरों की ऊपरी श्रेणी को रिश्वत दे दी जाए। और बिल्कुल यही “उन्नत” पूँजीवादी देशों के पूँजीपति कर रहे हैं :
वे इन मज़दूर नेताओं और अभिजात मज़दूरों की ऊपरी श्रेणी को हजारों
भिन्न-भिन्न रूपों मे रिश्वत दे रहे हैं, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, प्रकट और गुप्त
रूप में।” (साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरम अवस्था, लेनिन, अनुवाद
हमारा, देखें श्रोत 1)
आज देखें तो पूरी दुनिया के ज्यादातर पिछड़े
देशों में पूँजीवादी राज्य सत्ताएँ विकसित साम्राज्यवादी देशों के साथ मिलकर अपने
हितों के अनुरूप अपने ही देश की व्यापक मेहनतकश जनता के खुले दमन और शोषण के दम पर
पूँजीवादी उत्पादन से बड़ी मात्रा में अतिरिक्त मूल्य निचोड़ रही हैं। औद्योगिक
विकास के साथ-साथ इन पिछड़े देशों में एक टुटपुँजिया-मध्यवर्ग (petty-bourgeoisie)
पैदा हो चुका है, जिसमें सरकारी नौकरशाही, कलाकार, बौद्धिक काम करने वाले, पुलिस-प्रशासन के अधिकारी
और तकनीकि काम करने वाले आदि शामिल हैं। सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग समाज में अपने समर्थन आधार को मज़बूत करने
के लिये विशाल मज़दूर आबादी के शोषण से निचोड़े जाने वाले अतिरिक्त मूल्य का एक
छोटा हिस्सा मध्यवर्ग को सुविधायें देने में खर्च करता है। और इसका परिणाम यह है
कि पूँजीवादी देशों ने अपने ही देश में जनता के एक छोटे से हिस्से के रूप में मध्य-वर्ग
को व्यापक मेहनतकश जनता से काट कर अपने समर्थन आधार के रूप में अलग खड़ा कर दिया है।
वास्तव में मध्य-वर्ग मज़दूरों और गरीब किसानों के काफी निकट होना चाहिये लेकिन एक
वर्ग के रूप में श्रम के शोषण में पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूरों के शोषण से पैदा मुनाफ़े का एक छोटा सा हिस्सा रिश्वत के रूप में मिलने के कारण इसे देश की व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन संघर्षों से तात्कालिक
दौर में कोई सरोकार नहीं रहता। और इसका फायदा उठाकर शासक वर्ग अलग-अलग माध्यमों का
उपयोग कर भ्रामक प्रचार के माध्यम से काल्पनिक समस्याओं के बारे में उसे सम्मोहित
करके दिग्भ्रमित करने का काम करता है, जैसे वाले पूरी दुनिया में यह प्रचार किया
जा रहा है कि आज सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद है, जबकि पूंजीवाद के कारण आतंकवाद की
तुलना में लाखों गुना अधिक जनता बर्बादी में जी रही है। यह एक उदाहरण है, लेकिन पूंजीवाद इस तरह के अनेक भ्रामक प्रचारों का सहारा लोगों को भ्रमित करने के लिये लेता है।
हम अपने ही देश में मौज़ूद मध्य-वर्ग का आर्थिक-राजनीतिक
विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इसका चरित्र साम्राज्यवाद से स्वतन्त्रता
के लिये होने वाले आन्दोलनों में हिस्सा लेने वाले मध्य-वर्ग के साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी
चरित्र से बिल्कुल विपरीत है। आज का मध्यवर्ग वैसा नहीं है जो राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के समय समाज
के हर व्यक्ति के लिये एक बेहतर भविष्य का सपना लेकर साम्राज्यवाद के विरुद्ध
मज़दूरों और किसानों के साथ मिलकर लड़ रहा था। आज के मध्यवर्ग का जीवन
अन्धभक्तिपूर्ण व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के इर्द गिर्द सिकुड़ा-सिमटा हुआ
है।
अब मौज़ूदा हालात का विश्लेषण करें तो इन पिछड़े
पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में समय-समय पर संरचनागत मंदी के दौर आते रहते
हैं जिसमें अनेक मेहनत करने वाले सड़कों पर धकेल दिये जाते हैं और सम्पत्ति का और
अधिक केन्द्रीकरण हो जाता है (और आजकल पिछले कुछ सालों से लगातार मन्दी जारी है)।
इसका असर मध्य-वर्ग के ऊपर भी पड़ता है। पिछड़े देशों की व्यापक मज़दूर आबादी तो
यूँ भी पूँजीवादी विकास के "बूम" के दौर में बेहताशा मुनाफा निचोड़े
जाने के कारण बद-से-बदतर हालत में जीने के लिये धकेल दी जाती है। मेहनत-मज़दूरी
करके अपने जीने के संघर्ष में लगे करोड़ों मज़दूरों की एक बेरोजगार सेना पहले ही सड़कों पर होती है, जो मध्य-वर्ग के सामने भविष्य के बारे में अनिश्चितता
का एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाये रखने का काम करती है। मध्यवर्ग की इस आर्थिक-सामाजिक
स्थिति के आधार पर कहा जा सकता है कि जिस तरह का जीवन स्तर मध्य-वर्ग को पूँजीवाद
में मिला होता है उसके छिन जाने के खौफ़ लगातार इसके सामने खड़ा रहता है। मंदी के दौरों में पूँजीवादी मुनाफाखोरों द्वारा अपनी विशाल लूट से एक
छोटा सा हिस्सा पाने वाला मध्य-वर्ग अपने इन छोटे से विशेषाधिकारों को प्राप्त
करने के लिये किसी भी राजनीतिक ताकत का समर्थन करने के लिये तैयार रहता है। ऐसे
में नैतिकता, जनवाद या मानवतावाद या सामाजिक सम्बन्धों जैसी
किसी भी चीज का कोई महत्व या भूमिका नहीं बची रह जाती। पूँजीवादी वर्ग समाज के सामाजिक रिश्ते पूँजी के
इर्द-गिर्द संकुचित होते हैं। और यदि किसी भी वर्ग का कोई व्यक्ति सचेतन रूप से समाज की कार्य करने की गति को नहीं समझता तो
उसके विचार और उसका पूरा जीवन भी पूँजी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाता है।
ऐसी
आर्थिक परिस्थितियों में पूँजीवादी संकट के दौर में मध्य-वर्ग का मुख्य हित इस बात
में अन्तर्निहित होता है कि मज़दूरों के किसी भी स्तर के दमन और शोषण के दम पर इसे
इसके विशेषाधिकार मिलते रहें। यही कारण है कि विश्व इतिहास में जब भी पूँजीवाद
संकटग्रस्त होता है तो पूँजीवादी प्रेपोगेण्डा तन्त्र मध्य-वर्ग के बीच फासीवाद के
समर्थन का बड़ा आधार खड़ा करता है। फासीवादी विकल्प पूँजीवादी शोषण की बजह से अनेक
समस्याएँ झेल रही व्यापक जनता को उसकी मूल समस्याओं से दिग्भ्रमित करने में और
लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाने में पूँजीपति वर्ग को एक कारगर दमन-तन्त्र मुहैया
कराता है। फासीवाद मध्य-वर्ग को विशेष अधिकार देने का भी वायदा करता है, और भिन्न-भिन्न रूपों में समाज की व्यापक मज़दूर आबादी के बर्बर-से-बर्बर्तम
दमन और शोषण के तरीके इज़ाद करता है। इस काम को अन्जाम देने के लिए कभी मध्यवर्ग
के सहयोग से खड़ी की जाने वाली फासीवादी सत्ताएँ खुले दमन के रूप में यातना
शिविरों में किसी धर्म या जाति विशेष के नाम पर समाज के एक हिस्से को गुलाम बनाकर उनके
शोषण को लोगों के बीच प्रचारित करती हैं, लेकिन फसीवादी दमन
की पहुँच से मध्य-वर्ग भी अछूता नहीं बचता, इतिहास इसका उदाहरण है। वैसे पूँजीवादी
विकास को नजदीक से देखा जाये तो कारखानों में काम करने वाले में गरीब मज़दूरों के
लिये उनकी फैक्टरियों में होने वाला शोषण और बेरोज़गारों के रहते पूरा पूँजीवादी समाज
ही मेहनतकशों के लिये एक यातना शिविर जैसा होता है। लेकिन जब पूँजीवाद का संकट बढ़
जाता है और इसके अन्तरविरोध तीखे हो जाते हैं तो ऐसे समय में यदि मेहनतकश वर्ग की
संगठित ताकत मौज़ूद न हो तो खुले दमन के लिये फासीवाद का सहारा लेने में पूँजीपति वर्ग कोई संकोच नहीं करता।
अब यदि
कल्पना करें तो क्या यह सम्भव है कि आने वाले समय में भी कुछ लोगों के आराम के लिये समाज की
बड़ी आबादी बर्बादी और तबाही में जीती रहेगी; काम करने
वाले लोग अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता के अंधेरे में ही जीते रहेंगे, मुनाफा-केन्द्रित कम्पनियों के बन्द होने से लोग सड़कों पर धकेले जाते रहेंगे; प्रकृति को मुनाफे की हवस
के शिकार चढ़ने दिया जायेगा जिससे कि कुछ लोग अपनी पाशविक इच्छाओं को शान्त करते रहे;
समाज में हर साधन होने के बावजू़द लोग गरीबी और भुखमरी और साधारण
बीमारियों से मरने के लिये छोड़े जाते रहेंगे; गैर-बराबरी और
भेदभाव को यूँ ही पाला पोशा जाता रहेगा, जिससे कि समाज का 80-90
फीसदी हिस्सा कुछ सम्पत्तिधारियों की चाकरी करता रहे; और क्या यह सम्भव है कि अपने व्यक्तिगत हितों के लिये मुनाफ़ा कमाने वाले
पूँजीपतियों और उनकी सत्ताओं को अपना भविष्य सौंप कर मनुष्यता अपनी अज्ञानता और
अस्वतन्त्रता का जश्न और मातम मनाती रहेगी।
मनुष्यता के विकास की ऐतिहासिक भौतिक
श्रोतों का अध्ययन के आधार पर एंगल्स ने लिखा था, "आवश्यकताओं की जानकरी होना ही स्वतन्त्रता
है। जिन आवश्यकताओं की समझ नहीं होती वह अन्धी (blind)
आवश्यकताएँ मात्र बनी रहती है।”...“स्वतन्त्रता
प्राकृति के नियमों से मुक्त होने की कपोल-कल्पना में निहित
नहीं है बल्कि प्रकृति के इन नियमों की जानने में निहित है, और
यह स्वतन्त्रता आवश्यक रूप से उद्धेश्यों का पूर्वनिर्धारण करके व्यवस्थित रूप से
उन उद्धेश्यों को पूरा करने के लिये प्रेरित करती है। यह बाहरी प्रकृ्ति और मनुष्य
के भौतिक तथा मानशिक अस्तित्व को निर्धारित करने वाले नियमों, दोनो के ही सम्बन्ध में
सच है -- दो प्रकार के नियमों के श्रेणी को हम ज्यादा से ज्यादा अपने मानशिक-पटल
में ही अलग-अलग रख सकते हैं लेकिन वास्तविकता में नहीं। इसलिये इच्छा की स्वतन्त्रता
वास्तव में और कुछ नहीं बल्कि किसी विषय की जानकारी के आधार पर निर्णय करने की
क्षमता होती है।” एंगल्स आगे लिखते हैं, “आरम्भिक मनुष्य जिन्होंने खुद को पशु-जगत से अलग
किया था वे हर रूप में उतने ही अस्वतन्त्र (unfree) थे जितना
कि कोई भी अन्य जीव, लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में हर कदम
आगे बढ़ाने के साथ वे स्वतन्त्रता के और करीब पहुँचते गये।" (ड्ह्यूरिंग मत खण्डन, एंगल्स, अनुवाद हमारा, देखें श्रोत 2)
आब सोचने का सवाल यह है कि क्या एक लक्ष्य
निर्धारित कर और अधिक स्वतन्त्र समाज के निर्माण के लिये मेहनत करने वाले लोगों को
व्यापक स्तर पर सचेतन प्रयास नहीं करने चाहिये (क्योंकि जो बिना मेहनत के जीते हैं
वे वर्तमान सामाजिक अवस्था को किसी भी हालत में नहीं बदलना चाहेंगे..), और क्या मुनाफ़ा-केन्द्रित
पूँजीवादी उत्पादन की जगह समाज की आवश्यकता पर केन्द्रित उत्पादन को मेहनतकश जनता
को अपने हाथों में नहीं ले लेना चाहिये। पूँजीवाद की आन्तरिक गति और इसके परजीवी
तथा मानवद्रोही चरित्र के कारण इसका तबाह होना तो तय है, लेकिन
यह भी सच्चाई है कि यह अपने आप ध्वष्त नहीं होगा। गुलामी समाज से सामन्ती समाज और
फिर पूँजीवादी समाज तक, और दो समाजवादी समाजों के निर्माण तक
के अनुभवों से, यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि आने वाले समय में जनता की संगठित
शक्ति ही बल के प्रयोग से पूँजीवादी को उखाड़ सकती है और पूँजीवाद की जड़ता इसे
रोक नहीं सकती।
श्रोत 1: Obviously, out of such enormous superprofits (since they are obtained over and
above the profits which capitalists squeeze out of the workers of their “own”
country) it is possible to bribe the labour leaders and the upper stratum of
the labour aristocracy. And that is just what the capitalists of the “advanced”
countries are doing: they are bribing them in a thousand different ways, direct
and indirect, overt and covert.
This stratum of
workers-turned-bourgeois, or the labour aristocracy, who are quite philistine
in their mode of life, in the size of their earnings and in their entire
outlook, is the principal prop of the Second International, and in our days,
the principal social (not military) prop of the bourgeoisie. For they are the
real agents of the bourgeoisie in the working-class movement, the labour
lieutenants of the capitalist class, real vehicles of reformism and chauvinism.
In the civil war between the proletariat and the bourgeoisie they inevitably,
and in no small numbers. take the side of the bourgeoisie, the “Versaillese”
against the “Communards”.
(PREFACE TO THE FRENCH AND GERMAN EDITIONS, , Imperialism, the Highest Stage of Capitalism, Lenin , https://www.youtube.com/watch?v=Hu6hvzyS_ZY)
श्रोत 2: (freedom is the
insight into necessity {die Einsicht in die Notwendigheit}. "Necessity is
blind only in so far as it is not understood [begriffen]." Freedom does
not consist in any dreamt-of independence from natural laws, but in the
knowledge of these laws, and in the possibility this gives of systematically
making them work towards definite ends. This holds good in relation both to the
laws of external nature and to those which govern the bodily and mental
existence of men themselves -- two classes of laws which we can separate from
each other at most only in thought but not in reality. Freedom of the will
therefore means nothing but the capacity to make decisions with knowledge of
the subject. The first men who separated themselves from the animal
kingdom were in all essentials as unfree as the animals themselves, but each
step forward in the field of culture was a step towards freedom.)
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