प्रेमचंद के शब्दो में, (एक
जनवादी लेखक के बारे में, जो सिर्फ लिखता था सोचता था, और बिना किसी परेशानी के "समाज-कल्याण" के बारे में सोचता रहता था..):
"प्रभु सेवक और कितने ही
विलास-भोगियों की भाँति सिद्धान्त रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में
उनका लालन पालन हुआ था, जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ था,
उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस की उद्दंडता की जरूरत होती है, उससे वह
रहित थे। वह विचार क्षेत्र में भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उनपर गर्व
करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर
देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय था, और बस! आज तक कभी किसी ने उनके
आचरण की आलोचना न की थी, किसी ने उनको व्यंग का निसाना न बनाया था, और मित्रों पर
अपने विचार-स्वातंत्र्य की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफी थे।" (उपन्यास "रंगभूमि" से)
"न्याय करना उतना कठिन नहीं है जितना (अपने किए हुए) अन्याय को स्वीकार करना"
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