Saturday, November 29, 2025

Some interesting short stories by Tolstoy to Read, Think and Relate with yur surrounding- Part1

तोलस्तोय की कुछ रोचक लघु कहानियाँ, जो हमारे एसपास के सामाजिक परवेश के बारे में हमें सोचने के लिये मज़बूर करती हैं।
(Some interesting short stories by Tolstoy)




From Book: Lev Tolstoy Stories For Children Hindi - PPH Publication

Wednesday, November 19, 2025

आर्टीफ़िशियल इण्टेलिजेंस और आटोमेशन के दौर में भारत के उद्योगपतियों का 90 घण्टे काम करवाने का सपना

 Published in : आह्वान पत्रिका (https://ahwanmag.com/archives/8288)

भारत के उद्योगपति आजकल सपना देख रहे हैं कि उसके मज़दूर बिना छुट्टी, बिना आराम किये हर हफ़्ते 90 घण्टे काम करते रहें। कुछ दिनों पहले इन्फोसिस के मालिक नारायणमूर्ति ने बयान दिया कि आईटी कम्पनियों में पाँच दिन के साप्ताहिक काम के निर्णय से उन्हें काफ़ी निराशा हुई थी और यदि उनकी बात मानी जाये तो मज़दूरों को देश की आर्थिक तरक्की के लिये हर हफ़्ते 70 घण्टे काम करना चाहिये। ओला कम्पनी का मालिक भावेश दो क़दम आगे बढ़कर मूर्ति के बयान का समर्थन करते हुए वर्तमान उद्योगपतियों की इच्छा को और भी स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। उसका मानना है कि मज़दूरों को 140 घण्टे काम करना चाहिये और उन्हें कोई छुट्टी मिलनी ही नहीं चाहिये। इनके सुर में सुर मिलाते हुए लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन एस. एन. सुब्रह्मण्यन का कहना है कि वह कर्मचारियों से सप्ताह में 90 घण्टे सातों दिन काम करवाना चाहते हैं। देश के कई राज्यों की सरकारों ने इस दिशा में क़ानून बनाने के प्रयास भी शुरु कर दिये हैं। इन उद्योगपतियों के अनुसार मज़दूरों को छुट्टी की क्या ज़रूरत है और अपने घर पर अपने बीबी-बच्चों, परिवार के साथ समय बिताकर वे क्या हासिल करते हैं, उन्हें “देश के निर्माण” के नाम पर इन उद्योगपतियों का बेहिसाब मुनाफ़ा बढ़ाने में अपने समय का बलिदान करना चाहिये। 90 घण्टे काम करने की माँग करने वाले ये उद्योगपति यह नहीं बताते कि देश के श्रम क़ानूनों के अनुसार यदि कोई मज़दूर 48 घण्टे से ज़्यादा काम करता है तो उसे हर घण्टे के हिसाब से दोगुना वेतन मिलना चाहिये।

यही वजह है कि लगातार बयान देकर लोगों को एहसास कराया जा रहा है कि देश की तरक़्क़ी इसलिये नहीं हो रही क्योंकि मज़दूर कम काम करते हैं। लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। गुड़गाँव में काम करने वाले मज़दूरों की हालत की सर्वे रिपोर्ट देखें तो इन इलाक़ों में रहने वाले मज़दूर आटोमोबाइल और टेक्सटाइल जैसे कई क्षेत्रों में ठेके पर, बिना किसी स्थायी नौकरी के, बिना सामाजिक सुरक्षा के सप्ताह के सातों दिन 14 से 18 घण्टे काम करते हैं, जिसके बदले में उन्हे 10 से 18 हज़ार मज़दूरी मिलती है। यह मेहनतकश, जो उत्पादन की नींव हैं, वे 14-18 घण्टे काम करने के बाद 6 से 10 घण्टे के लिये 10X10 फ़ीट के कमरे में आराम करने के लिये आते हैं, ताकि अगले दिन फिर 18 घण्टे के काम पर जा सकें।
आगे बढ़ने से पहले एक नज़र देश के कॉरपोरेट क्षेत्र में काम करने वाले सफ़ेदपोश कर्मचारियों की स्थिति पर भी डाल लेते हैं। भारत के आईटी क्षेत्र में 2023 से 2024 बीच नौकरियों में जुड़े नये कर्मचारियों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई, बल्कि कई क्षेत्रों में वेतन कम हो गया है। 2024 में कुल 15 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट कामगारों की क़तारों में जुड़ें जिनमें से 1.5 लाख को ही काम मिल सका, यानि देश का आईटी सेक्टर 90% नौजवानों को नौकरी नहीं दे पाता। लेकिन इसी बीच इन कम्पनियो के सीईओ का वेतन 2012 से 2022 के बीच औसतन 835% की दर से बढ़ा है, और 3.37 करोड़ से 31.5 करोड़ हो गया, जबकि नये कर्मचारियों के वेतन में इस दौरान सिर्फ़ 42% बढ़ोत्तरी हुई जो 2012 में 2.45 लाख की तुलना में 2022 में 3.55 लाख सालाना है। इसका अर्थ है कि इन कम्पनियों में सीईओ का वेतन कर्मचारियों के वेतन से 870 गुना अधिक है और 10 साल में बढ़ोत्तरी 20 गुना ज़्यादा हुई है। मज़दूरों की बदहाली के समुद्र में बसे सफ़ोदपोश नौकरी करने वाले मध्यवर्ग की अय्याशी के टापू अब धीरे-धीरे डूबने लगे हैं।
लगातार काम करने का परिणाम कम मज़दूरी और श्रम अधिकारों का उल्लंघन तो होता ही है बल्कि मौज़ूदा शत्रुतापूर्ण (hostile) उत्पादन व्यवस्था में मज़दूरों के लिये उनके मानवीय अस्तित्व को बनाये रखने का भी सवाल पैदा करता है। 2021 की विश्व स्वास्थ संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार लम्बे समय तक काम करने से पूरी दुनिया में साल 2000 से 2016 के बीच हृदय रोगों से होने वाली मौतों में 42 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें वे लोग शामिल हैं जो हर सप्ताह 55 घण्टों से ज़्यादा काम करते हैं। आई.एल.ओ. की रिपोर्ट के मुताबिक काम के घण्टों के मामले में सबसे ज़्यादा काम करवाने वाले देशों की सूची में भारत 13वें स्थान पर है। देश की 51 प्रतिशत आबादी 49 घण्टे सप्ताह काम करती है जो काम के घण्टों के मामले में दुनिया में दूसरे नम्बर पर है। जबकि 2024 के आँकड़े देखें तो प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया में 141वे पायदान पर है।
वहीं ग्लोबल हंगर इण्डेक्स के आँकड़ों के आधार पर भारत 122 देशों में 111वें स्थान पर है। पूरी दुनिया की तुलना में भारत में सबसे अधिक बच्चे (18.7 प्रतिशत) कुपोषण के शिकार है। विश्व बैंक के अनुसार दक्षिण एशिया में 39 करोड़ लोग ग़रीबी में जी रहे हैं, जिनका 40 फ़ीसदी अकेले भारत में मौज़ूद है। जनता की ऐसी बदहाल स्थिति के बीच 2019 में सरकार ने मौज़ूदा कम्पनियों का कॉरपोरेट टैक्स घटाकर 30% से 22% कर दिया, और नयी कम्पनियों का कॉरपोरेट टैक्स 25% से घटाकर 15% कर दिया। जिसका नतीज़ा है कि 2024-25 में कॉरपोरेट कर का हिस्सा जीएसटी (26.65%) और आयकर (30.91%) से भी कम (सिर्फ 26.5 फ़ीसदी) रहने वाला है। जिससे देश को 1 लाख करोड़ का राजस्व घाटा होगा, यानि 1 लाख करोड़ रुपया जनता से छीन कर कॉरपोरेट को बाँट दिया गया। इन बदलावों से पिछले चार साल में कॉरपोरेट के मुनाफ़े में चार गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। 2024 में भारत अरबपतियों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुँच चुका है, जिनकी सम्पत्ति में पिछले एक साल में 42 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान मज़दूरों के वेतन और उनके जीवन स्तर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई और न ही नये रोज़गार पैदा हुए। आज देश की 94 फ़ीसदी आबादी के पास कोई स्थायी नौकरी नहीं है, 40 फ़ीसदी काम करने वालों की महीने भर की कुल कमाई 6 हज़ार से भी कम है, और 50 फ़ीसदी की आबादी की आमदनी 15 हज़ार महीना से कम है। वहीं सरकारी नीतियो से खुली लूट के दम पर देश की एक प्रतिशत आबादी के पास देश की 40 फ़ीसदी सम्पत्ति केन्द्रित हो चुकी है और 2022-23 में देश की राष्ट्रीय आमदनी का 22 फ़ीसदी से अधिक हिस्सा देश के ऊपरे के एक प्रतिशत लोगों की जेब में चला गया। आज आज़ाद भारत में असमानता की खाई ब्रिटिश शासन काल से भी अधिक चौड़ी हो चुकी है, और यह दुनिया के किसी भी और देश से ज़्यादा है।

भारत में आय असमानता 2022-23
आय वर्गवयस्कों की संख्याआय में हिस्सा (%)आय सीमा
(रुपये में)
औसत आय
(रुपये में)
औसत से अनुपात
औसत92,23,44,83210002,34,5511.0
नीचे की 50%46,11,72,41615071,1630.3
मध्यवर्ती 40%36,89,37,93327.31,05,4131,65,2730.7
ऊपर की 10%9,22,34,48357.72,90,84813,52,9855.8
ऊपर की 1%92,23,44822.620,73,84653,00,54922.6
ऊपर की 0.1%9,22,3459.682,20,3792,24,58,44295.8
ऊपर की 0.01%92,2344.33,46,06,04410,18,14,669434.1
ऊपर की 0.001%9,2232.120,01,98,54848,51,96,8752068.6

एक तरफ पूरी दुनिया के उद्योगपति और टेक्निकल मीडिया वाले प्रचार कर रहे हैं कि ए.आई., यानि आर्टीफ़िशियल इण्टेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता), के प्रचलन में आने के बाद आटोमेशन के क्षेत्र में नये स्तर की तरक़्क़ी हो रही है और आने वाले समय में काम करने वाले कर्मचारियों की काफ़ी कम संख्या की आवश्यकता होगी। यदि यह सच है तो नारायणमूर्ति या सुब्रह्मण्यन जैसे उद्योगपति 90 घण्टे काम करवाने की वकालत क्यों कर रहे हैं, वे ऐसा क्यों सोच रहे हैं कि उनकी कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर हर दिन बिना छुट्टी के, परिवार से अलग-थलग रहकर हर दिन 13 घण्टे काम में लगे रहें। इसे समझना इतना कठिन नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो पूँजीवादी उत्पादन में मशीनों, उपकरणों या ए.आई. जैसे टूल्स का उपयोग श्रम की उत्पादकता को बढ़ा तो देते है, जिससे पूरे समाज के जीवन स्तर में उन्नति होती है, लेकिन यह मुनाफ़े का स्रोत नहीं होते। सामाजिक उत्पादन में मुनाफ़े का स्रोत मज़दूरों द्वारा उत्पादन में लगाया गया अतिरिक्त श्रम होता है। यानि मज़दूर जितना ज़्यादा देर तक काम करेंगे वे उतना ही अतिरिक्त उत्पादन करेंगे और उतना ही ज़्यादा मुनाफ़ा बढ़ेगा। पूँजीवादी उत्पादन में पैदा होने वाला सारा मुनाफ़ा मज़दूरों के श्रम के शोषण से पैदा होता है या कहा जाये कि मुनाफ़ा मज़दूरों के उस श्रम से पैदा होता है जिसे पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में पूँजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है।
यदि सरल शब्दों में समझें तो उत्पादकता की वर्तमान अवस्था में यदि एक व्यक्ति किसी कम्पनी में 8 घण्टे काम करता है तो वह अपने वेतन के मूल्य के बराबर उत्पादन 2-3 घण्टे में ही कर लेता है और बचे हुए 5-10 घण्टे वह कम्पनी के मालिकों के मुनाफ़े के लिये काम करता है। यही कारण है कि आज भारत के उद्योगों के मालिक यह खुलकर बोल रहे हैं कि मज़दूरों को हर हफ्ते 90 घण्टे काम करना चाहिये जिससे पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा किया जा सके।
वास्तव में दुनिया के तमाम देशों में लागू आठ घण्टे काम का नियम वहाँ के शासक वर्गों की सदिच्छा या पूँजीपतियों की नेकनीयती के कारण नहीं, बल्कि मज़दूरों के संघर्षों के कारण लागू हुए। इनमें प्रमुख हैं – 1886 में शिकागो के मज़दूरो का 8 घण्टे काम, 8 घण्टे आराम और 8 घण्टे मनोरंजन के लिये संघर्ष का इतिहास, जिसे मई दिवस के रूप में आज भी पूरी दुनिया के मज़दूर याद करते हैं, और 1917 की रूस की समाजवादी क्रान्ति जिसके बाद निजी उत्पादन का पूरी तरह से सामाजीकरण कर दिया गया। एक सदी से भी पहले मज़दूरों की माँग थी कि 8 घण्टे काम के बदले में मज़दूरों को इतना वेतन मिलना चाहिये जिससे कि वे अपने परिवार को एक सम्माननीय जीवन स्तर दे सकें। इन ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव पूरी दुनिया के मज़दूरों के जीवन स्तर पर पड़ा।
बढ़ती उत्पादकता का लोगों के जीवन स्तर पर कैसे सकारात्मक असर होगा इसके कुछ उदाहरण देखें तो जिन देशों में राज्यसत्त्ता पर पूँजीपति वर्ग से साथ मज़दूरों के संगठन भी अपना प्रभाव रखते हैं वहाँ काम के घण्टों को कम करने की क़वायद चल रही है। जैसे आस्ट्रेलिया, जापान, स्पेन, यूके जैसे कई देशों में हर सप्ताह 30 घण्टे और चार दिन काम के प्रयोग किये जा रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकसित साम्राज्यवादी देश अपनी पूँजी वहाँ निवेश कर रहे हैं जहाँ सबसे सस्ता श्रम मौज़ूद हो। यदि भारत के मज़दूर सप्ताह में 70-90 घण्टे काम करते हैं तो इनके अतिरिक्त श्रम के शोषण से पैदा होने वाले मुनाफ़े के दम पर अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी देश अपने मज़दूरों को कम घण्टे काम करने के बाद भी अच्छा वेतन देते है।
कल्पना कीजिये कि यदि समाज के लिये आवश्यक उत्पादन के लिये ज़रूरी आवश्यक श्रमकाल 2 घण्टे हो और काम करने लायक हर एक व्यक्ति को समाज की आवश्यकता को पूरा करने लिये उत्पादन के काम पर लगाया जाये हो तो हर व्यक्ति को सिर्फ 2 घण्टे काम करने की ज़रूरत पड़ेगी। बचे हुए समय में लोगों को स्वतन्त्रता मिलेगी कि वे अपनी इच्छा के अनुरूप कोई भी काम कर सकें। लोगों का बचा हुआ समय समाज में कई प्रकार के शैक्षिक फोरम बनाने के लिये प्रेरणा का काम करेगा जो कला-साहित्य की कार्यशालाओं और विज्ञान व अनुसन्धान के अध्ययन मण्डल जैसी अनेक जन संस्थाओं को जन्म देगा। पूँजीवाद में भी ऐसे शैक्षिक फोरम मौज़ूद हैं, लेकिन यह समाज के एक अत्यन्त छोटे हिस्से तक सीमित हैं, जहाँ समाज की 90 फ़ीसदी मेहनत करने वाली जनता और उनके बच्चों के लिये कोई स्थान नहीं होता। क्योंकि आज ज्ञान भी एक माल बना दिया गया है, जिसके पास सम्पत्ति है वही उसे ख़रीद सकता है। सोचिये यदि ज्ञान समाज के हर व्यक्ति के लिये उपलब्ध हो तो इस प्रकार के समाज में आने वाली नयी पीढ़ी को अपने मानसिक और शारीरिक विकास के लिये कितना उन्नत सामाजिक ढाँचा मिलेगा और वह कितने अनुसन्धान करने में सक्षम होगी। इसकी कल्पना करना इतना कठिन भी नहीं हैं, क्योंकि आइंस्टीन ने अपना महान सापेक्षता का सिद्धान्त एक क्लर्क की नौकरी करते हुए खोजा था। समाज के ढाँचे में आमूलगामी बदलाव से कितने मस्तिष्क पूँजीवादी ग़ुलामी से मुक्त होकर अनेक आइंस्टीन, मोजार्ट या विथोवन या न्यूटन, आर्यभट्ठ को जन्म देंगे। जो आज-कल की होस्टाइल पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के बाद अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरे करने में ही अपना पूरा जीवन खपा देते हैं। ये नयी पीढ़ियाँ कितने ही आविष्कार करने में सक्षम होंगी जिससे उत्पादकता को उन्नत से उन्नतर स्तर तक ले जाया जा सके और समाज के लिये आवश्यक श्रमकाल को एक घण्टे से भी कर किया जा सके। सोचिये कि एक श्रमिक, 1 से 2 घण्टा ए.आई. से लैस अत्याधुनिक फ़ैक्ट्री में सामाजिक उत्पादन के लिये शारीरिक श्रम करता है और फिर बचे हुये 21-22 घण्टों में विज्ञान मण्डलों मे, अध्य्यन सर्किल और फोरमों में अपना योगदान देता है, जो कि उसके शौक़ का हिस्सा बन चुका होगा, तो ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझने में, चिकित्सा और विज्ञान की उन्नति का स्तर कहाँ तक उठाया जा सकता है।
जब लोगों में यह विश्वास पैदा होगा, यह भावना होगी कि वे समाज के विकास के लिये काम कर रहे हैं, न कि किसी व्यक्ति के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिये, तो यह अन्ततः नये उत्पादन पद्धतियों, नये रिसर्च के लिये लोगों को व्यक्तिगत रूप से प्रोत्साहित करेगा, इसने कई उदाहरण इतिहास में सोवियत यूनियन में 1917 से 1950 के बीच, चीन में 1950 से 1976 के बीच देखे जा सकते हैं। यह एक अलग से विमर्श का विषय है।
आज सोचने का मुद्दा यह है कि क्या हम एक ऐसा भविष्य चाहते हैं जहाँ नारायणमूर्ति, सुब्रह्मण्यन या भावेश लैसे पूँजीवादी मुनाफ़ाजीवी आपकी आने वाली पीढियों को अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिये एक रोबोट की तरह 90 घण्टे हफ्ते काम में धकेल दें या फिर एक ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज व राज्यसत्ता हर एक व्यक्ति को एक ऐसा परिवेश प्रदान करे जहाँ समाज की आवश्यकताओ के लिये हर व्यक्ति हफ्ते में 10 से 15 घण्टे काम करने के बाद बचे हुए समय में अपनी रुचि के अनुरूप विज्ञान, कला, साहित्य और चिकित्सा के क्षेत्रों में अपना योगदान करने के स्वेच्छा से प्रोत्साहित हो और जहाँ जनता को जीवन के लिये आवश्यक हर चीज, जैसे शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि को मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्यसत्ता की हो।
अन्त में एक बार सोचिये कि देश निर्माण के इतने सारे महत्वपूर्ण मुद्दे छोड़ कर सरकार मन्दिर-मस्ज़िद के गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रही है, क्यों गोदी मीडिया हर पल हिन्दू-मुसलमान को मुद्दा बनाने की कोशिश में लगा रहता है और क्यों कोई भी धर्मगुरू मेहनतकश जनता की बदहाली को दूर करने या समाज में लगातार चौड़ी हो रही असमानता की खाई को खत्म करने की बात नहीं करते। यह समझना इतना कठिन नहीं है। अगली बार जब कोई आपसे धर्म की बात करे तो उसे ऊपर वर्णित आँकड़ें दिखाये जाने चाहिये और पूछना चाहिये कि इसके लिये वह क्या करना चाहेगा।


श्रोत-

1.        ‘I don’t believe in work-life balance’: Narayana Murthy stands firm on 70-hour workweek (https://indianexpress.com/article/trending/trending-in-india/narayana-murthy-work-life-balance-six-day-week-9673180/ )

वर्किंग आवर पर क्यों छिड़ी बहस, हफ़्ते में 90 घंटे काम करने से शरीर पर क्या होता है असर (https://www.bbc.com/hindi/articles/clynz3xdn7go)

Not 70... but 140, no weekends: Ola founder Bhavish Aggarwal opens new front on work-life balance debate (https://www.deccanherald.com/india/not-70-but-140-no-weekends-ola-founder-bhavish-aggarwal-opens-new-front-on-work-life-balance-debate-2748002 )

2.        https://www.thehindubusinessline.com/info-tech/stagnant-salaries-a-decade-of-flat-growth-for-it-freshers-in-india/article68748757.ece

3.        'Only 10% of India's 1.5 mn engineering graduates to secure jobs this year' https://www.business-standard.com/finance/personal-finance/only-10-of-india-s-1-5-mn-engineering-graduates-set-to-secure-jobs-this-yr-124091600127_1.html

4.        https://economictimes.indiatimes.com/tech/ites/little-change-in-salaries-of-entry-level-it-jobs-in-india/articleshow/46926459.cms?from=mdr

5.        Long working hours increasing deaths from heart disease and stroke: WHO, ILO (https://www.who.int/news/item/17-05-2021-long-working-hours-increasing-deaths-from-heart-disease-and-stroke-who-ilo )

6.        Economy_of_India https://en.wikipedia.org/wiki/Economy_of_India)

List Of Top 10 Countries With Longest Work Hours: Here's Where India Stands (https://www.ndtv.com/feature/list-of-top-10-countries-with-longest-work-hours-heres-where-india-stands-7451112)

7.        At 18.7%, India's child-wasting rate highest on hunger index,  https://timesofindia.indiatimes.com/india/at-18-7-indias-child-wasting-rate-highest-on-hunger-index/articleshow/104382065.cms

Malnutrition in India: Challenges and Community-Led Solutions, https://outreach-international.org/blog/malnutrition-in-india/#:~:text=India%20also%20has%20the%20highest,both%20poverty%20and%20systemic%20inequalities

Income and Wealth Inequality in India, 1922-2023: The Rise of the Billionaire Raj : Link- https://wid.world/www-site/uploads/2024/03/WorldInequalityLab_WP2024_09_Income-and-Wealth-Inequality-in-India-1922-2023_Final.pdf

Concern in Govt: Private sector profit at 15-year high but salaries stagnant (https://indianexpress.com/article/business/concern-in-govt-private-sector-profit-at-15-year-high-but-salaries-stagnant-9719816/ )

Corporates in India see 4x profit but keep salaries stagnant: Report (https://www.indiatoday.in/business/story/corporate-private-sector-companies-4x-profit-salaries-wages-stagnant-inflation-high-cea-nageswaran-2648775-2024-12-12

India 3rd in highest number of billionaires in '24, wealth up 42%: Report, https://www.business-standard.com/india-news/india-3rd-in-highest-number-of-billionaires-in-24-wealth-up-42-report-124120700495_1.html

Did corporate tax cuts increase wages, https://www.thehindu.com/business/Economy/corporate-tax-cuts-effects-india-us-wages/article68602594.ece

8.        Australia Working Time and 4-day Workweek:

https://www.jibble.io/labor-laws/australia-labour-laws/work-time-and-4-day-workweek

https://business.uq.edu.au/momentum/4-day-work-week

Sunday, March 23, 2025

साहिब का भारत (प्राण नेविल की किताब पढ़ते हुये शहीद दिवस पर कुछ गम्भीर विचार)

"क्रांति से हमारा अभिप्रय है —अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।".. "जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, समाप्त कर दिया जाये

- भगत सिंंह (पूरा लेख यहाँ पढ़े)

आज क्रान्तिकारियों के शहादत दिवस पर हर एक नौजवान को संजीदगी के साथ यह समझना चाहिये कि इन क्रान्तिकियों ने देश के लिये अपनी कुर्बानी क्यों दी और वास्तव में आज़ादी का क्या अर्थ होता।

हाल ही में एक किताब को पढ़ने का मौका मिला, जिसका नाम है साहिब का भारत और लेखक हैं प्राण नेविल (Sahib’s India By Pran Nevile)। इसे पढ़ते समय हमें ब्रिटिश काल में देश में मौजूद असमानता और आम भारतीय लोगों की सामाजिक स्थिति और उनपर किये जाने वाले अत्याचारों की एक हल्की झलक मिलती है। ब्रिटिश राज में अंग्रेज और उनकी मुमाइंदगी करने वाले भारतीय, देश की आम जनता के साथ कैसा व्यवहार करते थे, और अपनी अय्याश जीवन-शैली के लिये किस तरह उनका शोषण करते थे जिसका कुछ वर्णन इस किताब में मिलता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि उपनिवेशवाद और सामंतवाद के उस दौर में देश की सत्ता पर काबिज अंग्रेजों और उनका साथ देने वाले सामंतो द्वारा भारत के मेहनतकश लोगों पर जो भी अत्याचार किये जाते थे वे सभी औपनिवेशिक और सामंती कानूनो के दायरे में अपराध नहीं माने जाते थे। इसका मुख्य कारण था कि इसे बनाने वाले वही लोग थो जो जनता का शोषण करते थे और खुद सत्ता पर काबिज थे। इस किताब में वर्णित अंग्रेज साहबों की अश्लील अय्याशी के दृश्यचित्र आपको यह सोचने के लिये मज़बूर कर देते हैं कि बहुसंख्यक आबादी के शोषण पर खड़ी व्यवस्था में कानूनो का वास्तविक मकसद सत्ता मे काबिज कुछ मुठ्ठीभर लोगों के विशेषाधिकारों की रक्षा करना होता है।

इन अंग्रेज साहबों के बारे में पढ़ते समय अनायास ही देश की उद्योगपतियों के बयान हमारी नज़रों को सामने तैरने लगते हैं जो अपने मज़दूरों से 90 घण्टे काम करवाने का सपना देख रहे हैं, ताकि अपनी अय्याशी के लिये और ज़्यादा सम्पत्ति जमा कर सकें। यह अनायास ही नहीं होगा यदि आने वाले दौर में देश की चुनी हुई सरकार श्रम कानूनों में बदलाव करके 90 घण्टे काम को भी वैद्धता प्रदान कर दे। आखिरकार सरकार किसका प्रतिनिधित्व करती है। कानून कौन बना रहा है और किसके लिये बनाये जा रहे हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि जनप्रतिनिधि किसकी नुमाइंदगी करते हैं। आज सत्ता पर काबिज लोग,वे किसके प्रतिनिधि हैं इसका अंदाज़ लगाने के लिये कोई कठिन प्रयास करने की ज़रूरत नहीं हैं।

यदि आप कुछ संजीदा समझ, और अन्ध-भक्ति के वर्तमान दौर में एक वैज्ञानिक विश्व-दृश्टिकोण बनाना चाहते हैं तो कई ज़रूरी किताबें है जिनके बारे में आपको जानने की ज़रूरत है और एक व्यापक विश्व-दृष्टि बनाने के लिये टीवी-सोशल मीडिया से हटकर अपने आस-पास मौज़ूद मजदूर बस्तियों में जाकर वहाँ रहने वाले मज़दूरों की जिन्दगी से रूबरू हो सकते हैं जो देश में उत्पादन होने वाली हर एक छोटी-बड़ी वस्तु के उत्पादन में लगे हैं। नहीं तो सुना है कि कई लोग मस्क के ग्रोक-एआई से सवाल पूछ कर ही सारी सच्चाई जानने की बचकाना कोशिश कर रहे हैं और सम्भव है कि आने वाले समय में उसे एआई क्रान्तिकारी घोषित कर दें।

इस किताब के कुछ पन्ने पढ़ने पर उपनिवेश दौर मे भारते के लोगों के शोषण की झलक देख सकते है-





Friday, May 7, 2021

एक छोटी कहानी - जो काफी पुरानी है

हमारे एक बुजुर्ग हैं जो छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते रहते हैं। यह इन्हीं की सुनाई हुई एक छोटी कहानी है। आगे बढ़ने से पहले यह बता दूँ कि यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है, इसका किसी से कोई सम्बन्ध नहीं है और यदि किसी को ऐसा लगता है कि तो यह मात्र एक संयोग होगा क्योंकि यह कहानी आज से 10 साल पहले सुनाई गई थी।

"एक बंदर था, दिन भर खूब उछल-कूद करता था, पेड़ों पर सरपट चढ़ जाता था। बंदर की प्रवीणता को देख कर जंगल के जानवरों ने इसे अपना मुखिया चुन लिया। कुछ दिनों के बाद जंगल में आग लग गई और चारों ओर फैलने लगी। घबराये हुये जानवर बन्दर से आग रोकने के लिये जरूरी व्यवस्था को दुरुस्त करने की माँग लेकर पहुँचने लगे।जानवर जब मदद के लिये बंदर के पास जाते तो बंदर सरपट पेड़ पर चढ़ जाता, फिर तुरंत पेड़ से नीचे उतरता, और फिर पेड़ पर चढ़ जाता, एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उछल-कूद करने लगता। सभी जानवर यह देख कर हैरान थे।लेकिन जंगल में ये बात फैल गई कि बंदर के पास जब भी कोई शिकायत लेकर जाता है तो बंदर शिकायत सुनने के बाद इधर से उधर इस पेड़ से उस पेड़ पर गुलाटी मारता रहता है।

आखिर में बेहाल होकर सारे जानवरों ने बैठक बुलाई और तय किया की बंदर से मिला जाय और जंगल में लगी आग से हो रही दुर्दशा के बारे में चर्चा की जाय। सारे जानवर इकट्ठे होकर बंदर के पास पहुँच गए। कहने लगे जंगल में भयानक आग लगी है जो लगातार फैल रही है और जनवर उसकी चपेट में आकर मर रहे हैं। लेकिन आपके पास जब कोई शिकायत लेकर आता है तो आप सिर्फ इस पेड़ से उस पेड़ पर गुलाटी मरते रहते हैं।

बंदर ने कहा भाई आप शिकायत लेकर आते हैं तो मैं गुलाटी मारता हूँ क्योंकि मेरी यही खूबी है, मेरी कोशिशों में अगर कोई कमी हो तो आप लोग मुझे दोषी ठहरा सकते हैं। मैं अपनी तरफ से बहुत ईमानदारी से कोशिश करता हूँ। मैं बहुत भाग-दौड़ कर रहा हूँ जो मैं कर सकता हूँ वो मैं कर रहा हूं। मैं बहुत मेहनत से अपने काम को अंजाम देता हूँ अब मेरी कोशिशें कामयाब नहीं होती तो मैं क्या कर सकता हूँ।

ये सुनकर सारे जानवरों ने बन्दर को उसकी गद्दी से नीचे खींचकर इतनी कुटाई की कि बंदर डर कर भाग खड़ा हुआ और फिर कभी वापस जंगल नहीं लौटा। और सभी  आपस में मिलकर जंगल की आग को बुझाने में जुट गये।" 

Friday, August 30, 2019

WhoWas Tolstoy - A Short Para by Gorky

I am posting this short paragraph written about Tolstoy by Russian writer Gorky. All who don't know who was Tolstoy, can read it and know him, as long as they know who Gorky was.
"I once saw him as, perhaps, no one has ever seen him. I was walking over to him at Gaspra along the coast, and behind Yussupor’s estate, on the shore among the stones I saw his smallish, angular figure in a gray, crumpled, ragged suit and crumpled hat. He was sitting with his head on his hands, the wind blowing the silvery hairs of his beard through his fingers: he was looking into the distance out to sea, and the little greenish waves rolled up obediently to his feet and fondled them as they were telling something about themselves to the old magician. It was a day of sun and cloud, and the shadows of the clouds glided over the stones, and with the stones the old man grew now bright and now dark. The bowlders were large, riven by cracks and covered with smelly seaweed; there had been a high tide. He, too, seemed to me like an old stone come to life, who knows all the beginnings and the ends of things, who considers when and what will be the end of the stone, of the grasses of the earth, of the waters of the sea, and of the whole universe from the pebble to the sun. And the sea is part of his soul, and everything around him comes from him, out of him. In the musing motionlessness of the old man I felt something fateful, magical, something which went down into the darkness beneath him and stretched up like a search-light into the blue emptiness above the earth; as though it were he, his concentrated will, which was drawing the waves to him and repelling them, which was ruling the movements of cloud and shadow, which was stirring the stones to life. Suddenly, in a moment of madness, I felt, “It is possible, he will get up, wave his hand, and the sea will become solid and glassy, the stones will begin to move and cry out, everything around him will come to life, acquire a voice, and speak in their different voices of themselves, of him, against him.” I cannot express in words what I felt rather than thought at that moment; in my soul there was joy and fear, and then everything blended in one happy thought: “I am not an orphan on the earth, so long as this man lives on it.”
“Reminiscences of Leo Nikolaevich Tolstoy” By Maxim Gorky

Sunday, June 30, 2019

Anton Makarenko Quote "बच्चे मानवीय विचार का एक अभिन्न अंग हैं, ऐसा लगता है कि वे उस सीमा के निशान हैं, जिनसे अधिक नीचे कोई आदमी गिर नहीं सकता है"

"साहित्य के महारथियों के प्रति न्याय करने के लिये यह कहना होगा कि वे अपने पतित नायकों के प्रति क्रूर कभी नहीं रहे, इन लेखकों ने हमेशा ऐतिहासिक मानवतावाद के प्रतिनिधियों की हैसियत से अपनी बात कही, जो निसन्देह एक उपलब्धि है और मानवजाति का एक ्रआभूषण है। ऐसा प्रतीत होता है कि सारे अपराधों में विश्वासघात ही एक ऐसा अपराध है जिसे साहित्य में, ... कोई सहानुभूति नहीं मिली। शेष सभी (आपराधिक) मामलों में अपराधी या टुच्चे-बदमाशों के अन्धकारपूरित-अन्ताकरण में सदैव एक उजाला कोना, एक मरुद्यान होता है, जिसके प्रभाव की दया से नीच से नीचतम मनुष्य भी मनुष्य बने रहते हैं।

बहुधा, यह कोना अपने या किसी और के बच्चे के प्रति प्यार का कोना होता था। बच्चे मानवीय विचार का एक अभिन्न अंग हैं, ऐसा लगता है कि वे उस सीमा के निशान हैं, जिनसे अधिक नीचे कोई आदमी गिर नहीं सकता है। बच्चों के विरुद्ध अपराध मानवता की सीमा से नीचे है."
आन्तोन मकारेन्को

देश में घटित हो रहे बच्चों  के प्रति अपराध की घटनाओं और प्रशासन व राज्यसत्ता की आपराधिक लापरवाही के कारण बीमारी और कुपोषण से मर रहे बच्चों के बारे में संजीदगी से सोचें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान समाज की मानवीयता नष्ट हो रही है। कुछ लोग उस सीमा तक असंवेदनसील हो चुके हैं कि उन्हे इंसान नहीं कहा जा सकता।

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