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राजनीतिक विचारधारा को बिना समझे अनुसरण करने वाले फेसबुक के "पढ़े-लिखे" भक्तों की बातें पढ़ कर और देश की मध्यवर्गीय आबादी की राजनीतिक चेतना का पिछड़ा स्तर और और उनकी राजनीतिक कूपमण्डूकता को देख कर जो निराशा होती है उसकी तुलना में आज पुस्तक मेले में प्रगतिशील साहित्य के स्टालों पर नौजवानो-बुजुर्गों की जो भीड़ दिख रही थी वह एक नई आशा पैदा करती है।
मोबाइल और कम्प्यूटर की स्क्रीन से नज़रें हटा कर बाहर नजर डालें तो समझ में आता है कि फेसबुक पर बैठ-कर तथ्यों को बिना जांचे परखे अनर्गल पोस्ट करने वाले लोगों की बड़ी संख्या वास्तव में उतनी बड़ी नहीं है, बस उनके पास समय और सुविधायें अधिक हैं, इसलिये सेसल मीडिया पर शायद उनकी उपस्थिति भी ज्यादा नज़र आती है।
पुस्तक मेले में प्रेमचन्द, गोर्की, शरतचन्द्र, तोलस्तोय, मार्क्स, लेनिन, विश्व इतिहास से लेकर वैज्ञानिक भौतिकवाद, और दर्शन तथा भारत के इतिहास से सम्बन्धित किताबों के कई स्टाल थे, और इन स्टालों पर लोगों की भीड़ इस बात का संकेत थी कि अभी भी प्रगतिशील साहित्य की माँग करने वाले युवाओं की संख्या काफी अधिक है, जो अँखें बन्द कर के तथ्यों का अनुसरण करने की बजाय उनकी जांच परख कर समाज की वर्तमान परिस्थितियों को समझना चाहते है।
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