Sunday, May 6, 2012

"सत्यमेव जयते" के पहले प्रसारण में सिर्फ भावनात्मक अपील के पीछे छिपी मूल समस्याओं का एक विश्लेषण!!

पिछले काफ़ी समय से टीवी पर एक कार्यक्रम को लेकर ख़ूब प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, सड़कों के किनारे बड़े-बड़े बैनर देखे जा सकते हैं, और लोगों को "ज़ागरुक" करने के एक प्रयास के रूप में आमिर ख़ान को इस पूरे कार्यक्रम के हीरो के रूप में दिखाया जा रहा है। कई लोग उम्मीद लगा कर बैठे हैं कि लोगों के बीच जागरुकता लाने के लिए और उन्हें आन्दोलित करने के लिए यह एक सराहनीय प्रयास होगा जिससे कि देश की "उन्नति" के सभी रास्तों को साफ किया जा सके।
छह मई को सुबह 11 बजे लोगों का इंतजार समाप्त हो गया और "सत्यमेव जयते" नाम के इस टीवी प्रोग्राम का पहला प्रसारण लोगों नें देखा। जिसमें कन्या भ्रूण हत्या  और महिलाओं की सामाजिक स्थिति के एक पहलू की झलक को लेकर एक बातचीत को प्रस्तुत किया गया और कुछ उदाहरणों को दिखाकर वर्तमान सामाज और पारिवार में महिलाओं की स्थिति के यथार्थ के एक छोटे से अंश को जैसे का तैसा (as it is) रखने का एक प्रयास किया गया। कुछ लोगों का मानना है कि यह वास्तव में एक सराहनीय प्रयास है, जो अब तक आँख-कान बंद रखने वाले समाज के मध्यवर्ग में और ज़्यादातर नौजवानों में समाज की कुछ समस्याओं के प्रति भावनात्मक दृश्टिकोंण पैदा करने का काम करेगा!
ध्यान से देखने के बाद ऐसा लगा कि एक ऐसा विषय लेने के बाद भी इसमें यथार्थ की एक तस्वीर को दिखा कर छोड़ दिया गया और उसके किसी भी अन्य पहलू को दिखाने की कोई कोशिश नहीं की गई। कन्या भ्रूण हत्या और महिलाओं की सामाजिक असमानता का कोई भी तर्कसंगत विश्लेषण नहीं दिया गाया, सिवाय इसके कि जिन उदाहरणों को दिखाया गया उनमें सम्मिलित लोगों के प्रति कानूनी कार्यवाही की जाए और इसे रोका जाना चाहिए (और इसके लिए जनता को एस.एस.एस करने के लिए आन्दोलित किया गया!!)। लेकिन व्यक्ति को अपने पारिवारिक और आसपास के आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक परिवेश को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के लिए न कोई विचार ही देने की कोशिश की गई और न ही इसकी कोई आवश्यकता स़ायद कार्यक्रम से ज़ागरुकता फ़ैलाने में लगे लोगों को लगती है।
वास्तव में यह समस्या मूल रूप से महिलाओं की आर्थिक गुलामी और सामाजिक दासता से जुड़ी हुई है, जिसे कि पूरे कार्यक्रम के दौरान बड़ी चालाकी से दर्शकों के सामने नहीं लाया गया। आज जिस प्रकार के पारिवारिक संबन्ध समाज में मौज़ूद हैं, जिस प्रकार की सम्पत्ति आधारित पित्र-सत्तात्मक पारिवारिक संस्था समाज में बनी हुई है, जो कि पुराने सामंतवादी मूल्यों का जनता द्वारा पीठ पर ढोने का नतीजा है, वही आज समाज के रूढ़िवादी विचारों के रूप में अनेक कुप्रथाओं, विषमताओं और शोषण पर आधारित संपत्ति-संबन्धों को जन्म दे रही हैं। एक बहुत छोटे स्तर तक यह पुराने सामंती संस्कार टूट तो रहे हैं लोकिन पूरी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में कभी भी इनके प्रति लोगों में सचेतन ज़ागरुकता लाने का प्रयास नहीं किया जाता, जिसका फ़ायदा लोगों को बंधनों में जकड़ कर उनकी पहलकदमी को दबाने के रूप में अनेक प्रकार से उठाया जाता है। वास्तव में पुराने संस्कारों को ढोने का प्रचलन और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनायें परिवार और समाज में महिलाओं की आर्थिक गुलामी से उपजी अनेक घिनौनी कुरीतियों का ही एक हिस्सा हैं। क्योंकि हर सम्पत्तिधारी परिवार अपनी सम्पत्ति का वारिस चाहता है, और गरीब परिवार लड़की के रूप में संतान नहीं चाहते क्योंकि उन्हें वर्तमान शादी व्यवस्था के अनुसार लड़की के लिए दहेज का बोझ सर पर लेना पड़ेता है। लेकिन मुख्य रुप से यह समस्या मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग में ज्यादा मौज़ूद है, जैसा कि इस प्रोग्रम में एक उदाहरण भी दिया गया था। जब तक संपत्ति संबन्धों पर आधारित परिवारों की संस्था को तोड़ा नहीं जाता और महिलाओं का एक आर्थिक स्तंत्रता नहीं मिलेगी और उनका एक स्वतंत्र आस्तित्व नहीं होगा तब तक इस प्रकार की विषमताओं को समाज से समाप्त नहीं किया जा सकता।
आज आधुनिक से आधुनिक परिवारों में भी महिलाओं को पुरुषों के अधीन माना जाता है और उन्हें लड़के के रूप में संपत्ति के वारिस के पालन-पोषण और घर सम्भालने की जिम्मेदारी दी जाती है, जिसके मालिक पुरुष होते हैं। जिसका एक स्वरूप यह है कि आज भी समाज में रिश्ते व्यक्तिगत और वैचारिक मानवीय संबन्धों के आधार पर नहीं, बल्कि पारिवारिक संपत्ति संबन्धों के आधार पर होती हैं। आज जो पारवारिक संबन्ध हमारे समाज में मौज़ूद हैं उसमें महिलाओं का कोई स्वतंत्र आस्तित्व ही नहीं होता और उन्हें पहले पिता और फिर पति के अधीन माना जाता है (यह तो हिंदू विवाह के समय कहे जाने वाले वचनों में भी स्पष्ट है)। जैसा कि एक घटना के रूप में इस कार्यक्रम में भी दिखाया गया कि कई जगह शादी के लिए पिता अपनी बेटियों को बेंच देते हैं, क्योंकि उनकी मौज़ूदा आर्थिक परिस्थितियों में जिंदगी और मौत का सवाल हमेशा उनके सिर पर मंडराता रहता है। एक और उदाहरण तमिलनाड़ु का भी है, जहां पर दहेज की आदायगी के नाम पर बच्चियों से कारखानों के मालिक गुलामी करवाकर मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगे हुए हैं (द हिंदू, २८ मई २०११, यहाँ देखें)। इस तरह यदि देखा जाए तो कन्या भ्रूण हत्या या बच्चियों को बेंचने और घरेलू हिंसा जैसी घटनायें महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक ग़ुलामी के ही अनेक कुरूपों का एक पहलू हैं।
ऐसी स्थिति में अनेक नौजवानों से बात करने पर भी पता चलता है कि वर्तमान पारवारिक संस्था, शादी के तरीके और संबन्धों के रूपों को वह ठीक नहीं मानते, लेकिन कोई सैद्धांतिक समझ न होने के कारण और वैचारिक रूप से काफी पिछड़े होने की बजह से यह नौजवान (पुरुष और महिलायें) पुरानी परंपराओं को ढोते हुए यह अपने विचारों से अनेक प्रकार के समझौते करते हुए लकीर के फ़कीर बने रहते हैं।
अब इस कार्यक्रम के मुद्धे को देखें तो समस्या की मुख्य बाद फ़िर से इसी सवाल पर आ जाती है कि क्या इस प्रकार के कार्यक्रम सही में जनता को ज़ागरुक करने के लिए बनाए जाते हैं। क्या इसमें जो सामाजिक समस्यायें दिखाई गईँ उनका सही विश्लेषण प्रस्तुत नही किया जाना चाहिए था। और यदि ऐसा था तो पहले ही प्रसारण में पूरे कार्यक्रम को अधूरे नतीजे और एक भावनात्मक अपील तक ही क्यों सीमित किया गया? एक कारण तो यह कहा जा सकता है कि आज जिस प्रकार सामाजिक समस्याओं पर मध्यवर्ग के लोगों के बीच भी थोड़ी चहल पहल का माहौल है उससे इस कार्यक्रम के प्रयोजकों को काफ़ी मुनाफ़ा कमाने का भी मौका मिलेगा और जनता के धन पर अति-विलासिता की ज़िन्दगी जीने वाले कुछ लोगों को जनता के बीच अपनी एक अच्छी छवि का प्रचार करने का मौका भी मिल जाएगा। नहीं तो यदि इस प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से पारिवारिक-समाजिक संबन्धों की सही विवेचना जनता के सामने लाकर लोगों को जाग़रुक करने का यह कोई ठोस प्रयास होता तो वर्तमान पारिवारिक संबन्धों का एक आर्थिक और राजनीतिक भण्डाफोड़ करना आवश्यक हो जाता। और वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था द्वारा पैदा की गईं अनेक विषमताओँ पर एक सवाल खड़ा किया जाता। लेकिन कार्यक्रम प्रयोजक और मेज़बान कभी भी यह नहीं कर सकते थे क्योंकि अंततः सारी बात लोगों को अंधेरे में रखकर मुनाफ़े कमाने की होड़ पर आकर समाप्त हो जाती है।

6 comments:

  1. बस हमारी यही आदत सबसे खराब हैं.हम खुद तो सामाजिक समस्याओं को लेकर कुछ कर नहीं पाते और दूसरे कुछ करते हैं तो टाँग खिंचाई में लग जाते हैं.देखा जाए तो आमिर खान ने इस शो के माध्यम से जनता को कन्या भ्रूण हत्या और उसके परिणामों के बारे में उसीकी भाषा में समझाया हैं.आम आदमी ऐसी ही भाषा समझता हैं वो कोई बुद्धिजीवी नहीं हैँ.
    और हम ये क्यों चाहते हैं कि हमारे सितारे नुक्कड पर मूँगफली का ठेला लगाएँ? क्या उन्हें पैसे कमाने का हक नहीं हैं.हम लोग भी खूब कमाते हैं लेकिन उसमें से कितना समाजिक बुराईयों को खत्म करने के नाम पर खर्च करते है? फिर ये बाध्यता सितारों पर ही क्यों? आमिर खान चाहते तो कोई मनोरंजक टीवी शो लेकर आ सकते थे,सफलता तो उन्हें वहाँ भी मिल जाती लेकिन उन्होने सामाजिक सरोकारों से जुडना ज्यादा सही समझा क्या इस बात के लिए उनकी प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए.आप कह सकते हैं कि आमिर ने बस एक भावुक अपील ही की लेकिन कुछ भी कहें पर उस अपील में दम तो था.मैंने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर ना जाने कितने लेख पढे हैं और ना जाने कितनों को इस विषय पर आँसू बहाते और हाय तौबा मचाते हुए देखा हैं लेकिन इस कार्यक्रम ने जैसा असर मुझ पर किया वैसा कभी नहीं हुआ जिसे मैं अनमने ढंग से देखने बैठा था.

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    1. आपने इतना समाय देकर पढ़ा और अपने विचार देनी की कोशिश की यह वास्तव में एक अच्छा प्रभाव है, इस कार्यक्रम का. लेकिन समस्या दरअसल आपने खुद अपने ही कमेन्ट में स्पष्ट कर दी, कि मध्य वर्ग के लोग जो खुद को समझदार तो मानते हैं, और चीजों की आलोचना शब्दों में तो कर देते हैं, लेकिंग उनमे समाज के दरियाकनुसी पूर्ण मूल्यों को चुनौती देने का सहस नहीं है, और ज्यादातर लोग अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में अनेक रुढ़िवादी मूल्यों, घिसे-पिटे विचारों और संस्थाओं से समझौता करते हुए जीते हैं.. और जब इन्हीं लोगों के सामने कोई सामान्य सी बात सिर्फ शब्दों में फेर-बदल करके कह दी जाती है तो यह लोग नायक पूजा के लिए प्रशंशा की थालियें लेकर निकल पड़ते हैं, लेकिन अपनी समझौता परस्ती और स्वार्थपूर्ण मूल्यों को कभी छोड़ नहीं पाते ।
      जब हमारे पास अपनी कोई वैचारिक समझ और दृष्टिकोण ना हो तो हम किसी भी तरह के कोई भी विचार हमें प्रभावित कर देते हैं, चाहे उनका वैचारिक स्तर कुछ भी हो.
      मैं आपकी भावनाओं को समझ सकता हूँ, लेकिन क्या सिर्फ एक अपील करने से, और पूरी व्यवस्था के किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण के बिना कुछ किया जा सकता है, मैंने इसी लिए लिखा है की आँख-कान बंद करके बैठे हुए मध्य वर्ग को आंदोलित करने का नारा दे रहे हैं. लेकिन यदि समस्या का कोई विश्लेषण न दिया जाए तो लोग कुछ आंशू बहाकर दूसरे दिन उसे भूल जाते हैं, और ऐसा तो उनके साथ हर रोज़ होता हैं.
      भावना विचारों से पैदा होनी चाहिए , न की बिना विचारों के खोखली भावना आंशू बहाते रहें .
      वैसे राजन, आपको खुद ही स्पष्ट करना चाहिए की यह कार्यक्रम लोगों को आंदोलित, या जागरूक करने के लिए है या पैसे कमाने के लिए. और "पैसे तो सभी कम रहे हैं", इस अधूरे और गलत तथ्य पर आपको सोचना चाहिए, और कभी अपने सामाजिक दायरे का विस्तार कर के देखना और समझाना चाहिए कि सिर्फ सही तथ्य और सही विचार ही जनता को आंदोलित कर सकते है, सिर्फ भावुकता नहीं.
      वैसे यदि किसी सामाजिक रूढ़िवादी संस्था को चुनौती देने का सहस कोई व्यक्ति कर सके तो शायद वह भी इस प्रोग्राम को एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण से ही देकहेगा.... आपने कहा है की "हम खुद तो कुछ करते नहीं", यह बात समाज के अनेक लोगों के लिए बिलकुल सही है , ... वैसे सिर्फ प्रशंसा के अलावा यदि कुछ और भी करना चाहते हैं तो हम विस्तार से बात-चीत कर सकते है, अनेक संघर्षों की नीव डालनी अभी बाकी है,

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  2. राजू भाई मैं अक्सर आपके लिखों को पढता रहता हूँ और शयद ये कहने की जरुरत नहीं है की उसके पीछे छिपी मंशा के कारन मैं आपका सम्मान भी करता हूँ
    मैं ये मान सकता हूँ की आप का विश्लेषण अच्छा है और कम हे ल्लोग इसे ऐसे सोच पते हैं पर मुझे कई बार लगता है की आप भी ज्यादा नकारात्मक हो जाते हैं मैं मानता हूँ की ये कार्यक्रम कुछ बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं ला रहा है लेकीन एक छोटा परिवर्तन भी महत्वपूर्ण होता है
    एक साहित्यकार या कलाकार अगर अपने लेखन या कला से अगर किसी को भी सोचने के लिए मजबूर कर रहा है तो बहुत बड़ी बात है और इस शो मव इतना तो दम था की वो सोचने के लिए आपको मजबूर करे और ये समझा पाए की कई ऐसी समस्याएं जो हम छोटी लगती है वो बहुत बड़ी होती है
    किसी भी समाज का उत्थान तभी हो सकता है जब वो सोचना शुरू करे मैं मानता हूँ की आमिर खान कोई हल नहीं सुझा रहे पर समस्या को उठाना भी एक बड़ा और सराहनीय प्रयास है हम कभी भी एक सीढ़ी से छत पर नहीं चढ़ सकते हैं हमे एक एक कदम रखना होता है और लगातार रखना होता है
    मेरा आपसे निवेदन है की ऐसे किसी भी प्रयास का क्या सकारात्मक पक्ष है उसपे ज्यादा लिखे जिससे लोग आपके पक्ष को भी सोचेंगे
    नहीं मैं ये नहीं का रहा की आप समर्थन के लिए गलत लिखे बल्कि ये कह रहा हूँ की लोगो की जागरूकता को बढ़ने के लिए और उन्हें अपनी बात समझाने के लिए पहले उनसे मानसिक साम्यता तो बनाएं
    बाकि कहने को बहुत कुछ है कभी मिला तो खूब बातें होंगी ... उम्मीद है आप मेरी बातो को सकारात्मक रूप से लेंगे

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    1. सुभाषिश भाई, "सोचने के लिए मज़बूर करने" वाली बात और "छोटा सा परिवर्तन भी महात्वपूर्ण होता है", इन दोनो तथ्यों पर कहा जा सकता है कि यदि कोई कलाकार सोचने के लिए मज़बूर कर सके तो यह वास्तव में एक महात्वपूर्ण प्रयास कहा जाएगा, लेकिन यदि सिर्फ भावात्मक रूप से यथार्त को दिखा कर तथ्यों का कोई विश्लेषण दिए बिना, सिर्फ परिणाम के बारे भावात्मक रूप से व्यक्ति को दुखी कर दिया जाए तो यह आंसू बहाना तो किसी काम का नहीं हो सकता। एक और बात यह कि जब तक विचारों को प्रमुखता नहीं दी जाती और भावना का जन्म विचारों से नहीं होता तब तक व्यक्ति कोई कार्य करने के लिए आगो नहीं आ सकता, और यदि आता है तो जोश में कुछ उछल-कूद करके बैठ जैता है।
      दूसरी मुख्य बात यह है कि यदि कार्यक्रम का प्रसारण करने वाले व्यक्ति सही में एक प्रगतिशील समाज बनाने की मंशा रखते हैं तो उन्हें पूरे समाज के मूल्यों और लोभ-लालच पर आधारित पारिवारिक सम्पत्ति सम्बन्धों का विश्लेषण देना ही चाहिए था, जो महिलाओं की असमानता की प्रमुख कारण है । और ऐसा करने में कोई रोक भी नहीं थी।
      आप कह रहे हैं कि सोच नकारात्मक हो जाती है, और छोटा सा परिवर्तन भी महात्वपूर्ण होता है, तो मैं कहूँगा कि जब कोई व्यक्ति इन कुप्रथाओँ, असमानताओं, कूपमंडूपताओं से भरे समाज में शान्ति से रहते हुए भी उसे बदलने के लिए कुछ नही कर रहा होता तो उसे उपनी निरर्थकता अहसास तो अवश्य रहता होगा, और जब भी, कोई इस प्रकार की घटना होती है या ऐसा ही कोई किसी भी स्तर का विचार दिखता है वे प्रभावित हो जाते हैं। और वे अपनी निर्थकता से थोड़ा बाहर निकल आते हैं (जैसे अभी एस.एम.एस करके लोगों के सर आत्मसम्मान से ऊँचे हो गये होंगे), जो कि समाज के विकास के लिए निराशापूर्ण ही कहा जा सकता है। तोलस्तोय ने एक जगह लिखा था कि व्यक्ति को अपनी निर्थकता का अहसास बना रहना चाहिए तभी वह प्रगति कर सकता है। तो इस हिसाब से तो यह प्रोग्राम वास्तव में समाज के लोगों को विचारों से निशस्त्र करके उन्हे सामाजिक परिस्थितियों की सच्चाई से भटकना कर शान्त करने का काम कर रहा है (आंशू बहाने या क्रोध में चीखने चिल्लाने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति जाग उठा है, जब तक कि कोई विचार न हों उसके पास)।
      "मानसिक साम्यता" वाली बात आपकी ठीक है, लेकिन यदि जो सच्चाई बताई जानी चाहिए, नहीं बताई जाए, जो समस्या का मूल कारण है उसे ही छुपा दिया गाया हो, तब साम्य कैसे बनया जा सकता है। और सायद आप को इस प्रोग्राम के प्रायोजकों के बारे में भी थोड़ा विश्लेषल कर लेना पड़ेगा, क्योंकि यह लोग जो इस प्रकार की बातें करते हैं वे वास्तव में अपने फ़ायदे के लिए कई सालों से समाज में असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं जैसा अनेक समस्यायें पैदा कर के आपना मुनाफा लोगों को निचोड़ कर कमा रहे हैं, उसमें यदि "मानसिक साम्यता" बन गई तो कोई भी व्यक्ति जो मानवीय सम्बन्धों और प्रगतिशी विचारों के साथ चीज़ों को बदलते हुए जीना चाहता हो वह भ्रष्ट हुए बीना नहीं रह सकता। और मीडिया की बात करें तो यही मीडिया हर दिन जनता की आनेक घटनाओं को इस लिए छुपा देता है कि भुखमरी और गरीबी से बदहाल लोगों का "मानसिक साम्य" इन अति-विलासिता से जीने वाले लोगों के साथ बना रह सके।
      अपने उपन्यास "युद्ध और शान्ति" में इन आंशू बहाने बाले लोगों के बारे में एक अन्य जगह पर तोलस्तोय ने लिखा है कि उनका हाल "उस अमीर महिला जैसा है जो अपने सामने बछड़े को मारते हुए देख कर पछाड़ खाकर बेहोश हो जाती है, और शाम को अपनी खाने की मेज पर उसी बछड़े के गोस्त को बड़े चाव के साथ खाती है।"
      यदि हमारे और आप जैसे लोग वास्तम में कुछ करना चाहें तो कर तो करते हैं, लोकिन वास्तव में कभी भी कोई सही और ठोस विचार (विचार थोंड़ा विस्तार से सोचना होगा) उनके सामने नहीं रखा जाता, कोई ठोस योजना उन्हें नहीं दिखाई जाती, और सालों साल सिर्फ भावना की धुट्टी पिलाकर उन्हें शान्त कर दिया जाता हैं। जैसा कि सदियों से हर समस्या और शक्तिशाली लोगों की धूर्तता को भाग्य और ईश्वर का खेल कहकर आम जनता को बेबकूफ बनाया जाता रहा है।
      खैर इस पर आप भी थोड़ा और विस्तार से सोचियेगा, और कभी समय हो तो मिलकर बैठते हैं और विस्तार से बात करेंगे। यह हमारा कोई व्यग्तिगत चर्चा नहीं है, इसलिए सभी को अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता है, और इसी से और लोग आगे आकर वास्तव में कुछ कर भी सकते हैं....

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  3. Subhashish, I want to add one more point here, that it may possible that you can reject the comment made by the article on the program in your first glance, but I promise you and all others that we must accept that this type of comments after thinking a while, and it will surly provide us some base to think in more detail.
    Also, if I say everything will look good to all, and all start praising it without taking any view from it, then it will have not any worth.
    So, you will understand while criticizing it, if I have said it in a "polite" way, then it will not force you to post your comment and also you have not thought for such a long time!!
    So, aim is to force people to think on a solid base of thoughts, criticize with the help of science, and take a stand only after it.

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  4. I agree with Raj, a lot of things were shown on that show but no comments were there why people want only a boy and not a girl, no one who has forced female foeticide was interviewed.
    Real problem was not at all addressed there. They only talked about forcing people not to let them do this but they did not talk about how can we bring a situation where people will not want to do this crime.

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