Friday, July 4, 2014

मुनाफा केन्द्रित समाज में जनता के संघर्ष और उसके जीवन स्तर का सवाल

"किसी भी समाज में मेहनतकश जनता का जीवन स्तर उस समाज के संघर्ष के इतिहास से निर्धारित होता है"
-कार्ल मार्क्स
[अज-कल के दौर में सभी काम करने वालों के सोचने के लिये जरूरी बिन्दु]
 
(From : www.desaarts.com)
संघर्ष के इस तथ्य के इर्द-गिर्द समाज का आर्थिक सामाजिक अवलोकन करने पर इन शब्दों का वास्तविक अर्थ समझा जा सकता है। इस सामान्य निरीक्षण में हम यह मानकर चलेंगे कि हमें यह पता है कि पूँजीवादी उत्पादन का आधार मज़दूरों के शोषण पर खड़ा होता है, और पूँजीवाद में वर्ग संघर्ष का अर्थ है कि मज़दूर अपना वेतन बढ़ाने के लिए और पूँजीपति अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए एक दूसरे से लगातार संघर्ष करते है (For detail visit: Here)। और मज़दूर यूनियन बनाकर लगातार इस संघर्ष को मजबूत करने का प्रयास करते है, जबकि पूँजीपति यूनियन न बन सके इसके लिए अनेक हथकंडे अपनाते हैं।
आगे बढ़ने से पहले इस संघर्ष से जनता के समाजिक जीवन स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव को देखना होगा, जो यह समझने में मदद करेगा कि किसी समाज के वर्ग संघर्ष का इतिहास उसके पूरे मेहनतकश वर्ग के सामाजिक जीवन स्तर को किस प्रकार प्रभावित करता है। यदि पूँजीवादी जनतंत्र में मज़दूर और पूँजीपति के बीच चलने वाले संघर्ष को लें, जिसमें मज़दूरों को अपने ट्रेड यूनियन बनाकर हड़ताल करके दबाव बनाने का संवैधानिक अधिकार दिया जाता है, ('मज़दूरी, दाम और मुनाफा' लेख के नोट्स...)
1. मज़दूर अपका वेतन बढ़बाने के लिए हड़ताल करते हैं ताकि वे एक बेहतर जीवन स्तर पा सकें... या कहना चाहिए.. कि वे दूसरे दिन काम पर आने से पहले अपने श्रम का पुनर्उत्पादन थोड़ी अच्छी जीवन पर्स्थितियों में कर सकें।
2. और मान लें कि इस संघर्ष में मज़दूरों का वेतन बढ़ जाता है, तो वह अपनी बड़ी हुई कमाई को खाने और रोजमर्रा की वस्तुओं पर खर्च करेगा जिससे इन वस्तुओं की माँग बढ़ेगी और परिणाम स्वरूप बाज़ार में समान्य उपयोग की वस्तुओं की माँग बढ़ जाएगी।
4. इसी के सथ मज़दूरी बढ़ने से पूँजापति का हिस्सा घटेगा और उसका मुनाफा कम होगा,
5. मुनाफा कम होने से उनकी विलासिता मे खर्च होने वाले धन की मात्रा भी कम होगी, जिससे विलासिता के उत्पादों की माँग घटेगी,
3. सामान्य वस्तुओं की मांग बढ़ने के कारण उनका दाम कुछ समय के लिए बढ़ेगा,
4. विलासिता की वस्तुओं की माँग घटने से और सामान्य बस्तुओं की माँग बढ़ने से सामान्य वस्तुओं के उत्पादन में निवेश भी बढ़ेगा जिससे उनका दाम फिर कम हो जाएगा और सामान्य स्तर के आसपास बढ़ता-घटता रहेंगा।
5. अंतता विलासिता के सामान के उत्पादन में निवेस कम होगा और मज़दूरी बढ़ने के कारण मेहनतकश जनता का का जीवन स्तर बढ़ेगा जो अन्य पूँजीपतियों पर भी उसी जीवन स्तर के अनुशार वेतन देने का दबाब वनाएगा और अब उत्पादन का ज्यादा हिस्सा मज़दूर वर्ग को मिलेने लगेगा।
और यही उस कथन की व्याख्या है कि किसी भी समाज में जनता का जीवन स्तर उसके इतिहास के वर्ग संघर्ष पर निर्भर करता है, जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण यूरोप और अमेरिका, और भारत जैसे देश है जिनमें संघर्षों का इतिहाश अलग-अलग होने के कारण जनता के जीवन स्तर में जमीन ओर आसमान का प्रत्यक्ष अन्तर दिखता है। एक तरफ अमेरिका की गरीबी रेखा का स्तर प्रति माह $1000 की आमदनी है, और भारत में गरीबी रेखा के लिए आवश्यक आमदनी लगभग $20 (900 रु) है; जबकि पूँजीपति वर्ग और सत्ताधारी पर्टियों के नेताओं के जीवन स्तर पर खर्च भारत में अमेरिका से अधिक ही होगा (Ref: America Statics, Indian Statics)
इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूँजीवादी जनतंत्र में सम्पत्ति के माध्यम से राज्य सत्ता के नियंत्रण में होने के कारण पूँजीपति पूजीवाद के स्वभाविक संचय से पैदा होने वाले संकट के समय में अनेक मज़दूरों को बेरोज़गारी और गरीबी में धकेलता रहता है । पूँजी के विश्वव्यापी इज़ारेदारी (Monopoly) के वर्तमान युग में पूँजीपति वर्ग इतना सक्षम है कि वह मज़दूरों को गुमराह करके, कानून बनाकर, बल प्रयोग करके, मज़दूरों के संगठन को तोड़कर और उनके बीच से उनके दलालों को खरीदकर श्रम पर पूँजी का अधिनायकत्व लगातार बनाए रखता है।
इस प्रकार मजदूरों को असंगठित रखकर पूँजीपति वर्ग पूँजी संचय की प्रक्रिया को जारी रखता है, और उत्पादन को लगातार केन्द्रत करता जाता है और अपने समर्थन का आधार तैयार करने के लिए, मध्य और उच्च वर्ग के बाजार में बेंचने के लिए, लगातार विलासिता के सामान का उत्पादन को बढ़ाता है, मज़दूरों के शोषण से पैदा होने वाले मुनाफे को इन विलसिता के उत्पादों के प्रचार में खर्च करता हैं जिसके तहत कोई उत्पादन न करने बाले अनेक श्रम के परजीवी पैदा होते हैं और मज़दूरों का शोषण लगातार बढ़ता है। पूरे समाज में मज़दूरो और पूँजीपतियों के जीवन स्तर का फ़ासला भी लगातार बढ़ता है। हम उदाहरण देख सकते हैं कि भारत जैसे राष्ट्र में एक तरफ करोड़पतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है ओर दूसरी और बेरोजगारी और गरीबी के कारण जनता का सापेक्ष जीवन स्तर लगातार नीचे होता जा रहा है।
1990 में लागू निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ को इसी प्रकार समझा जा सकता है, जिनके तहत श्रम कानूनों को ढीला करके पूरे मज़दूर वर्ग को (93 फीसदी) एक असंगठित क्षेत्र में ठेकाकरण के कामों में धकेल कर इस वर्ग संघर्ष को कुचलने का पूरा प्रयास किया गया, जो आज भी देशी और विदेशी पूँजीपतियों के लिए मुनाफे के लिए विश्व स्तर पर मज़दूरों के तीक्ष्ण शोषण को बरकरार रखने में लगा है।

इस पूरी प्रक्रिया की रोशनी में देखने पर यह तो सभी को समझ में आ जाता है कि 1990 के बाद अपनाई गईं निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ और श्रम कानूनों को कमजोर करने की चाल ने पूरे देश के ज्यादातर मज़दूरों को असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया और उनके संगठनो को कमजोर बना दिया या मज़दूरों की ट्रेड यूनियनों के नेताओं को अपना दलाल बनाकर उन्हे असंगठित क्षेत्र के मड़दूरों से अलग कर दिया, और जिसका परिणाम है कि आज भारत की कुल मज़दूर आवादी का 93 फीसदी असंगठित है। यदि यह न किया गया होता तो मज़दूर संघर्ष के माध्यम से उत्पादन में मेहनतकश जनता का हिस्सा ज्यादा होता और कुछ मुठ्ठी भर लोगों को बहुमत के शोषण से मिलने वाली विलासिता पर भी नियंत्रण होता; और सरकार गरीबों का मज़ाक भी न उड़ा पाती। जबकि जनतंत्र में सभी सुविधायें जैसे चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार और आवास तो हर व्यक्ति का अधिकार होने चाहिए और राज्या की जिम्मेदारी होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान समय में समाज के चुने हुए शासक सिर्फ एक गरीबी रेखा बनाकर पूँजीपतियों की सेवा में लगे रहना चाहते है और जनता छुपे रहना चाहते हैं।
ऐसे में समाज की पूरी व्यवस्था को जो मशीनों, उत्पादन और वितरण के चारो ओर बनीं हुई है उसकी वैज्ञानिक समझ को हर एक तक पहुँचाने के बाद ही किसी बेहतर समाज के निर्माण की बात सोची जा सकती है। और, क्योंकि पूँजीवाद स्वयं लगातार जनता को बदहाली में धकेलकर अपनी स्वभाविक रूप से अपनी तबाही की ओर बढ़ रहा है, इसलिए इसका समाधान सिर्फ एक ऐसी उत्पादन व्यवस्था के निर्माण में निहित है जिसमें उत्पादन के उपकरण जनता के नियंत्रण में हों और उत्पादन मुनाफे के लिए नहीं बल्कि आवश्यकता के लिए हो। यह सिर्फ तभी सम्भव है जब शोषित उत्पीड़ित जनता की सामूहिक सामाजिक चेतना को पूँजीवाद की सच्चाई का प्रत्यक्ष भण्डाफोड़ करते हुए विकशित किया जाए और उन्हे शिक्षित किया जाए कि वे अपने जनवादी अधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें और उनको पाने के लिए संघर्ष कर सकें।
साम्राज्यवाद की भूमंडलीकरण की वर्तमान अवस्था मे यह पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई है जिसको विस्तार से समझने के लिए कुछ-एक पुस्तकें पढ़नीं पड़ेंगी इसलिए आपको सोचने के लिए यहीं पर छोड़ कर लेख को समाप्त करना होगा...

Saturday, June 28, 2014

अग्नि-दीक्षा (How The Steel Was Tempered) उपन्यास के लेखक और क्रान्तिकारी निकोलाई आस्त्रोविश्की की पुस्तक ‘जय जीवन’ के कुछ हिस्से


सोवियत यूनियन में महान समाजवादी निर्माण के दौर में आस्त्रोविश्की अथक मेहनत करते हुये अपनी बीमारी के कारण विस्तर से उठ भी नहीं सकते थे उस समय कुछ और न कर पाने की स्थिति में अग्नि-दीक्षा उपन्यास लिख रहे है। आस्त्रोविश्की (29 Sep 1904 – 22 Dec 1936) (Nikolai Astrovishki) के शब्दों में,
यदि इन्सान के पास-पड़ोस की जिन्द़गी भयावनी और उदास हो, तो वह अपने निजी सुख की शरण लेता है। उसकी खुशी सारी की सारी अपने परिवार में केन्द्रित रहती है – अर्थात् केवल व्यक्तिगत रुचियों के घेरे में रहती है। जब ऐसा हो, तो कोई भी निजी दुर्भाग्य (जैसे बीमारी, नौकरी छुट जाना इत्यादि) उसके जीवन में विषम संकट पैदा कर देता है। उस आदमी के लिए जीवन के कोई लक्ष्य नहीं रहता। वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिये वह प्रयास करे, क्योंकि उसके लक्ष्य केवल निजी जिन्द़गी तक सीमित होते हैं। उसके बाहर, उसके घर की चारदीवारी के बाहर, एक क्रूर जगत् बस रहा होता है। जिसमें सभी दुश्मन हैं। पूँजीवाद जान-बूझकर शत्रुता और विरोधाभाव का पोषण करता है। वह भयाकुल रहता है कि कहीं काम करने वाले लोक एकता न कर लें।
 मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ – बैलों की तरह हस्ट-पुस्ट मगर मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्डा खून बहता है – निद्राग्रस्त, उदासीन, शिथिल, ऊबे हुए। उनकी बातों से कब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घ्रणा करता हूँ। मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्वस्थ और तगड़े लोग, आज के उत्तेजनापूर्ण ज़माने में ऊब सकते हैं।...
कई लोग हैं जो केवल जिन्दाभर रहने से ही सन्तुष्ट हैं, केवल यही चाहते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा देर तक जिन्दगी से चिपके रहें, और अपनी यथार्थ स्थिति पर आंखें मूँदे रहें।
कुछ वर्ष पहले एसी स्थिति को सहन करने मेरे लिये आसान था। उस समय मैं भी उसे उसी तरह झेलता जैसे अधिकांश लोग झेलते हैं। पर अब स्थिति बदल गई है।
कुछ लोग अपने रोग का इलाज आराम द्वारा करते हैं, और कुछ लोग काम द्वारा।
“Man's dearest possession is life. It is given to him but once, and he must live it so as to feel no torturing regrets for wasted years, never know the burning shame of a mean and petty past; so live that, dying he might say: all my life, all my strength were given to the finest cause in all the world- the fight for the Liberation of Mankind.”

Wednesday, June 11, 2014

"Let's try and avoid death in small doses" - Pablo Neruda

"Slow Death" by Pablo Neruda

He who becomes the slave of habit,
who follows the same routes every day,
who never changes pace,
who does not risk and change the color of his clothes,
who does not speak and does not experience,
dies slowly.
 
He or she who shuns passion,
who prefers black on white,
dotting ones "its" rather than a bundle of emotions, 
the kind that make your eyes glimmer,
that turn a yawn into a smile,
that make the heart pound in the face of mistakes and feelings,
dies slowly.
 
He or she who does not turn things topsy-turvy,
who is unhappy at work,
who does not risk certainty for uncertainty,
to thus follow a dream,
those who do not forego sound advice at least once in their lives,
die slowly.
 
He who does not travel, who does not read,
who does not listen to music,
who does not find grace in himself,
she who does not find grace in herself,
dies slowly.
 
He who slowly destroys his own self-esteem,
who does not allow himself to be helped,
who spends days on end complaining about his own bad luck, 
about the rain that never stops,
dies slowly.
 
He or she who abandon a project before starting it, 
who fail to ask questions on subjects he doesn't know, 
he or she who don't reply when they are asked something they do know,
die slowly.
 
Let's try and avoid death in small doses,
reminding oneself that being alive requires an effort far greater than 
the simple fact of breathing.
 
Only a burning patience will lead
to the attainment of a splendid happiness. 

Tuesday, May 27, 2014

सैन्य तानाशाही और खुले पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध एक बार फिर सड़कों पर आ रहे हैं मिस्र के मज़दूर

(मज़दूर बिगुल, मई 2014, पत्र में प्रकाशित - http://www.mazdoorbigul.net/archives/5339)
आज एक बार फिर पूँजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध मिस्र के मज़दूरों का असन्तोष एक के बाद एक जुझारू हड़तालों के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। कपड़ा, लोहा तथा स्टील कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर, डॉक्टर, फ़ार्मासिस्ट, डाकख़ाना-कर्मी, सामाजिक कर्मी, सामाजिक यातायात-कर्मी, तिपहिया ड्राइवर, और अब संवाददाता जैसे दसियों हज़ार मज़दूर काम की परिस्थितियों को बेहतर करने, वेतन बढ़ाने और अन्य मज़दूर अधिकारों से जुड़ी माँगों को लेकर लगातार सड़कों पर आ रहे हैं। जनवरी 2014 से मज़दूर हड़तालों के उभार का यह सिलसिला पूरे मिस्र में दिख रहा है जो अब्दुल अल फ़तह-सिसी के नेतृत्व में साम्राज्यवाद द्वारा पोषित सैन्य तानाशाही के तहत होने वाले नंगे पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त कर रहा है।
फ़रवरी 2014 में सरकारी कपड़ा फ़ैक्टरी महाल्ला इल-कुबरा में 20,000 से अधिक मज़दूरों ने हड़ताल की, ये मज़दूर मैनेजर को हटाने और मज़दूरी को वर्तमान 520 मिस्र पाउण्ड मासिक से बढ़ाकर 1200 मिस्र पाउण्ड करने की माँग कर रहे थे, जो कि सरकारी विभाग की न्यूनतम मज़दूरी है। महाल्ला फ़ैक्टरी के मज़दूरों की हड़ताल के समर्थन में इससे जुड़ी अन्य 16 फ़ैक्टरियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दी थी। इनमें काफ़िर अल-दव्वार स्पिनिंग और वीविंग कम्पनी, टाण्टा डेल्टा टेक्सटाइल कम्पनी, जाकाजिक स्पिनिंग और वीविंग कम्पनी, और मिस्र हेल्वान टेक्सटाइल कम्पनियों के हज़ारों मज़दूर शामिल थे। इन सभी कम्पनियों के मज़दूरों की भी वही माँगें थीं, जो महाल्ला फ़ैक्टरी के मज़दूरों उठा रहे थे।
यहाँ लगातार हो रही हड़तालों पर नज़र डालें तो फ़रवरी 2014 में यातायात-कर्मियों की हड़ताल हुई, जिसमें ग्रेटर काहिरा अथोरिटी की सभी 28 गैराजों की बसें ठप कर दी गयीं, जिनमें 42,000 मज़दूर काम करते हैं। 9 मार्च 2014 से सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर तथा अन्य चिकित्साकर्मी चिकित्सा पर सरकारी ख़र्च बढ़ाने और कर्मियों का वेतन बढ़ाने की माँगों को लेकर आंशिक रूप से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। मैन्यूफ़ैक्चरिंग और लोहा तथा स्टील उत्पादन करने वाली इल-अशर, सिकन्दरिया और स्वेज़ में मज़दूरों ने हड़ताल की। इसके साथ ही फ़ार्मासिस्ट और समाजसेवा कर्मचारियों ने सिकन्दरिया, काफ़र, इल-शेख़ और काहिरा में हड़ताल की।
मिस्र की सैन्य-तानाशाही खुली पूँजीवादी लूट के समर्थन में इन मज़दूर हड़तालों को कुचलने के लिए सेना और पुलिस का इस्तेमाल करती है। यह मज़दूर संघर्ष मूलतः कॉरपोरेट घराने की सम्पत्ति और जनता के बीच अन्तरविरोधों के साथ ही राज्यसत्ता द्वारा कॉरपोरेट घरानों के इसारे पर की जा रही हिंसा, बेरोज़गारी, लगातार बढ़ रहा किराया, सरकारी मशीनरी में भ्रष्टाचार, प्राकृतिक बर्बादी, जीवन की परिस्थितियों में हो रही लगातार बदहाली, सैन्य तानाशाही द्वारा हत्या और जेलों में डाल दिये गये हज़ारों बेकसूर लोगों तथा प्रदर्शन विरोधी क़ानून जैसी परिस्थितियों के विरुद्ध मिस्र के मज़दूर वर्ग में व्याप्त गुस्से की अभिव्यक्ति है। सत्ता द्वारा किये जा रहे खुले दमन के कारण ये हड़तालें सीधे सैन्य तानाशाही के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष का रूप ले रही हैं।
मिस्र में मज़दूर संघर्षों पर नज़र डालें तो 2004 से 2008 के बीच 17 लाख मज़दूरों ने हड़तालों में हिस्सा लिया था, और 2010 से पहले नील डेल्टा के कपड़ा मज़दूरों की हड़तालों से ही वह ज़मीन तैयार हुई थी, जिस पर खड़े होकर मुस्लिम ब्रदरहुड ने मध्य-वर्ग को साथ लेकर मुबारक सरकार को सत्ता से बेदख़ल होने के लिए मजबूर कर दिया था। उस समय मिस्र में कोई क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन नहीं था, जो इन मज़दूर संघर्षों का सही राजनीतिक दिशा में नेतृत्व कर सकता और पूँजीवादी सत्ता को ध्वस्त कर सही मायने में मेहनतकश जनता की सत्ता को स्थापित करता। मध्यवर्ग को साथ लेकर मुबारक को बेदख़ल करने के बाद सत्ता में आयी मोहम्मद मुर्सी की सरकार ने पूँजीवादी व्यवस्था को जैसे का तैसा रखते हुए अपना काम शुरू किया था, और इसका परिणाम यह हुआ कि मुबारक को सरकार से बेदख़ल करने के बाद भी मज़दूरों के हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ और आज फिर से सैन्य-तख्तापलट के बाद सिसी की सैन्य तानाशाही के रूप में मुबारक सत्ता की ही वापसी हो चुकी है, जिसके तहत साम्राज्यवादी और देशी पूँजीपति आकाओं के मुनाफ़े के लिए मज़दूरों का खुला शोषण और आन्दोलनों का सशस्त्र दमन किया जा रहा है।
सिसी की सरकार भी लगातार हर प्रकार से पूँजीपतियों-साम्राज्यवादियों के हितों के लिए अपने काम रही है, और इसके कई उदाहरण हैं जब सिसी सरकार ने मज़दूरों की हड़ताल को समाप्त करने के लिए बर्बर सैन्य दमन का सहारा लिया। पिछले कुछ दिनों में सिसी सरकार के रवैये से यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि सेना को मुख्यतः फ़ैक्टरी मज़दूरों की हड़तालों का दमन करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका एक उदाहरण है अगस्त में सुईज स्टील कम्पनी में मज़दूरों के धरने का सैन्य पुलिस द्वारा बर्बर दमन। एक और घटना में एक उच्च सैन्य अधिकारी ने अन्तरराष्ट्रीय सिरेमिक और पोर्सीलीन का उत्पादन करने वाली क्लोप्तरा सिरेमिक्स कम्पनी में मज़दूर यूनियन के नेताओं की हत्या कर दी।
यहाँ की गुप्त पुलिस इन यूनियन के नेताओं से उनके त्यागपत्रों पर हस्ताक्षर लेने का दबाव बनाने में पूँजीपतियों के दलाल के रूप में काम कर रही है, और यदि कोई यूनियन नेता हस्ताक्षर करने से मना करते हैं तो उन्हें आतंकवादी कहकर उनका उत्पीड़न किया जाता है और उनकी छानबीन की जाती रहती है।
मिस्र में मज़दूरों के संघर्षों का इतिहास देखें तो 1957 में बनी मिस्र फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स शुरू से हड़तालों को तोड़ने के लिए सत्ता के हाथों में एक हथियार की तरह काम करती रही है। इसके साथ ही यहाँ कई ऐसी राजनीतिक पार्टियाँ हैं, जो ख़ुद को मज़दूरों का प्रतिनिधि कहती हैं, लेकिन वास्तव में पूँजीवादी सत्ता के समर्थन मेंमज़दूरों को शान्त रखनेका एक उपकरण हैं जो पूँजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के लिए एक सुरक्षा-पंक्ति की तरह काम करती हैं।
जिन सपनों के लिए 2011 में मिस्र की मेहनतकश जनता और मध्यवर्ग एक बेहतर भविष्य के लिए साम्राज्यवादी पोषित होसनी मुबारक की तानाशाही को उखाड़ फेंकने को तिहाड़ चौक पर एकजुट हुआ था, वह सपना आज पुनः सैन्य तानाशाही लागू हो जाने के बाद सपना ही बना हुआ है। आज भी मिस्र की जनता बेरोज़गारी और ग़रीबी से जूझ रही है, और काहिरा में रहने वाले सबसे ग़रीब लोगों की हालत यह है कि यहाँ पाँच लोगों का परिवार 10 मिस्र पाउण्ड (80 रुपया यानी 16 रुपया प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) प्रतिदिन पर जीने के लिए मजबूर है। पहले भी बेरोज़गारों की संख्या काफ़ी अधिक थी, लेकिन पिछले तीन साल में भी बेरोज़गारी में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है, और 2013 के अन्तिम तिमाही में बेरोज़गारों की संख्या 13 लाख से बढ़कर 36.5 लाख हो चुकी है। यहाँ कुल बेरोज़गार लोगों में से 69 प्रतिशत 15 से 29 साल की उम्र के नौजवान हैं। आज भी मिस्र के हर चार में से एक व्यक्ति सरकार द्वारा निर्धारित 540 डॉलर सालाना की ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है।
मिस्र में जनता के बीच व्याप्त असन्तोष का अनुमान इन हड़तालों से लगाया जा सकता है, लेकिन क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ मौजूद होने के बावजूद किसी क्रान्तिकारी हिरावल नेतृत्व के अभाव में जनता का संघर्ष आगे नहीं जा सका है। मेहनतकश जनता के शौर्यपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों का परिणाम और वर्तमान में मिस्र में मेहनतकश जनता की वास्तविक स्थिति ने एक क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की आवश्यकता को एक बार फिर रेखांकित किया है। 2011 में मज़दूर हड़तालों और संघर्षों ने तहरीर चौक से मुबारक की शोषक पूँजीवादी-साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की थी, जो किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में मुस्लिम-ब्रदरहुड के पाले में जाकर मुर्सी के सत्ता में आने के साथ समाप्त हो गया था। आज मिस्र की मेहनतकश जनता की प्रगतिशील ताक़तों का असन्तोष एक बार फिर पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण और सिसी सैन्य तानाशाही के विरुद्ध सड़कों पर प्रकट हो रहा है और आने वाले समय में जनता की संगठित ताक़त अवश्य ही पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध क्रान्तिकारी ताक़तों के नेतृत्व में एक निर्णायक संघर्ष का रूप लेगी।

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