"परिस्थितियां समाज में एक आवश्यकता
को जन्म देती हैं। इस आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं, इस आवश्यकता की आम
स्वीकृति के बाद यह जरूरी है कि वस्तुस्थिति में परिवर्तिन हो...।....चिन्तन
मनन और वाद-विवाद के बाद क्रियाशीलता की श्रीगणेश होना चाहिये।... वर्षों से हमारे
समाज ने क्या किया है? अब तक - कुछ नहीं। उसने मनन-अध्ययन किया,
विकसित हुआ, प्रवचनो को सुना, अपने विश्वासों के लिए संघर्ष के दौर में लगे आघातों
पर सहानुभूति प्रकट की, कार्यक्षेत्र मे उतरने की तैयारी की, किन्तु किया कुछ
नहीं! ढेर की ढेर सुन्दर भावनाओं-कल्पनाओं से लोगों के हृदय मस्तिष्क पट गए,
समाज की वर्तमान व्यवस्था के बेतुकेपन और बेहूदगी का इतना पर्दाफाश किया गया कि पर्दाफाश
करने के लिए कुछ रह ही नहीं गया। प्रतिवर्ष विशिष्ट, अपने-आप को 'चारों ओर की वास्तविकता से ऊंचा
समझनेवाले', लोगों की संख्या
बढ़ने लगी। ऐसा लगता था कि सीघ्र ही सब लोग वास्तविकता से ऊँचे उठ जायेंगे।...हमें
ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है।... हमें ऐसे लोगो की आवश्यकता है जो स्वयं हमें
वास्तविकता को ऊंचा उठाना सिखायें, ताकि हम उसे उन संगत मानकों के स्तर पर
ला सकें जिन्हें सब मानते और स्वीकार करते हैं।"
- दोब्रूयोलोव (साहित्यिक आलोचक)
"जब 'निचले वर्ग' पुराने तरीको को मानने से इनकार
कर देते हैं, और 'ऊपरी-वर्ग' पुराने तरीके बनाए
रखने में असफल हो जाते हैं -सिर्फ तभी क्रांतियों की जीत होती है।" . . . "क्रांतियां मेहनतकश और
शोषित जनता द्वारा राजनीतिक संघर्ष में भाग लेने वालों की संख्या का दस गुना, यहां
तक कि सौ गुना तीव्रता से विकसित होने का परिणाम होती हैं।"
- लेनिन (रूसी
क्रांतिकारी)
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