- राजकुमार
पूरी दुनिया में, और भारत में खासकर, फेसबुक ट्वीटर,
गूगल-प्लस जैसे सोशल नेटवर्किग का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़
रही है। आम लोगों के लिये प्रचार के इस नये माध्यम को कई लोग एक वेब क्रान्ति मान
रहे हैं जो मानते हैं कि इसका सीधा राजनीतिक फायदा आम जनता को हो रहा है। 2013 के
आकड़ों के अनुसार भारत में लगभर 16 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं और फेसबुक पर 9.2 करोड़
पंजीकृत उपयोगकर्ता हैं, जो अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर हैं। इनमें 10.6
प्रतिशत 17 साल से कम और 50 प्रतिशत 18 से 24 साल के हैं (देखें स्रोत 1)। सोसल नेटवर्किंक के उपयोग पर बात करने से पहले यह
समझना ज़रूरी है कि फेसबुक, ट्वीटर या किसी भी अन्य सोशल नेटवर्किग का
इस्तेमाल समाज के कौन लोग कर रहे हैं, और उनकी सामाजिक, बौद्धिक प्रष्ठभूमि तथा विश्व
दृश्टिकोंण क्या हैं। यूँ तो पूंजीवादी समाज में वर्गों के बीच जीवनस्तर और आजीविका के
अन्तर की एक चौड़ी खाई मौज़ूद है। और मोबाइल पर या कम्प्यूटर पर फेसबुक तथा ट्वीटर
जैसी सेसल नेटवर्किंक साइटों को इस्तेमाल करने वाले ज़्यादातर लोग मध्यवर्ग से आते हैं। सोशल नेटवर्किग के
उपयोग को समझने के लिये समाज के अन्तर्विरोधों को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर समझना
होगा।
1.
पूँजीवादी समाज में
अलगाव की अभिव्यक्ति के रूप में उभर रहा सोशल नेटवर्किंग माध्यमों का उपयोग, जो
अलगाव को और बढ़ा रहा है
पहला हिस्सा है आम व्यक्तिगत उपयोगकर्ताओं का, इनमें ज्यादातर
स्कूल-कालेज के छात्र और सरकारी या आईटी-बीपीओ के क्षेत्र में बौद्धिक काम करने
वाले मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा है, जो स्वयं शारीरिक श्रम नहीं करता और समाज
की शारीरिक श्रम करवे वाली व्यापक आबादी से कटा है, और साहित्य-संस्क्रति के बारे
में जिसकी कोई खास जानकारी नहीं है, जो बाल्ज़ाक, प्रेमचन्द, मुक्तिबोध, तोलस्तोय,
चेखव या गोर्की जैसे विश्व प्रसिद्ध साहित्यकारों के बारें में नहीं जानता, जिसने
आइन्सटीन के सामाजिक चिन्तन के बारे में कभी नहीं सुना, जिसने मनुष्य (या कहें कि अपने)
उस इतिहास को भी नहीं पढ़ा है जिससे पता चलता है कि समय-समय पर विकास को गति देने
वाली महान जन क्रान्तियों के झंझावत ने शोषण पर खड़ी पुरानी व्यवस्थाओं को तहस-नहस
कर नई व्यवस्थाओं को खड़ा करते हुये विकास किया है जिसके फलस्वरूप आज मनुष्यता इस
अवस्था में पहुँची है।
आगे बढ़ने से पहले व्यक्तित्वों के इस
विकृत विकास के कारण को स्पष्ट रूप से समझने के लिये पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों
के अन्तर्गत किसी और के मुनाफे के लिये काम करने वाले हर व्यक्ति पर और पूरे
सामाजिक ढाँचे के बारे में मार्क्स के इस विश्लेषण पर ध्यान देना होगा,
“यह सच कि श्रम मज़दूर के
लिये उससे अलग एक प्रक्रिया बन जाती है, यानि यह उसकी स्वाभाविक
प्रकृति नहीं रहता, कि वह अपने काम के दौरान स्वयं का समर्थन
नहीं करता बल्कि खुद का निषेध करता है, कि वह श्रम के दौरान आनंद
महसूस नहीं करता बल्कि अप्रसन्न अनुभव करता है, कि वह अपनी
शारीरिक और मानसिक क्षमता को स्वतन्त्र रूप से विकसित नहीं करता बल्कि अपने शरीर
का अपमान करता है और अपनी बुद्धि का विनाश करता है। ऐसे में मज़दूर तभी स्वाभाविक
महसूस करता है जब वह काम नहीं कर रहा होता है, और उसका
काम उससे अलग महसूस होता है। जब वह काम नहीं करता है तो वह घर जैसा अनुभव करता है,
और जब काम कर रहा होता है तो घर जैसा अनुभव नहीं करता।“ (उद्धण स्रोत 7.a)
ऐसे उत्पादन सम्बन्धों में अपना श्रम बेचकर जी रहे व्यक्तियों के बारे में मार्क्स
आगे लिखते हैं, "मनुष्य (श्रम करने वाला प्राणी) खुद को पशुवृत्त क्रियाकलापों, जैसे खाना, पीना, पुनर्उत्पादन,
या अधिक से अधिक ध्यान लगाने या कपड़े पहनने आदि जैसी क्रियाओं में
उन्मुक्त रूप से सक्रिय महसूस करता है; और अपने मानवीय
क्रियाकलापों (श्रम करने) में वह स्वयं को एक पशु से अधिक कुछ नहीं समझता। जो पाशविक होता है वह मनवीय हो जाता है और जो मानवीय होता
है वह पाशविक हो जाता है।" (उद्धण स्रोत 7.b)
जिस समाज में हर मानवीय वास्तु बाज़ार में
बिकने वाला माल होती है, जहाँ आम मेहनतकश आबादी का श्रम किसी दूसरे कि संपत्ति होता है, ऐसे सम्बन्धों पर खड़े समाज में पल-बढ़ रही पीढ़ियों में मूल मानवीय स्वभाव, यानि श्रम
करने की स्वाभाविक
प्रवृत्ति, से अलगाव (alienation) होना स्वाभाविक है।
आगे बढ़ने से पहले यहाँ रुककर एक बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
बौद्धिक श्रम करने वाले कई मध्यवर्गीय लोग यह सोचते हैं कि अलगाव का मार्क्स का यह
विश्लेषण सिर्फ भौतिक उत्पादन में लगे शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूरों पर ही लागू
होता है। लेकिन वास्तव में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में व्यक्तियों के चरित्र
का अलगाव, काम करने वाले हर व्यक्ति पर लागू होता है। शारीरिक
श्रम करने वाले मज़दूर चूँकि मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के बीच
पूँजी के साथ सीधे अन्तर्विरोध में होते हैं इसलिये उनके सामने यह सच्चाई अधिक
मुखर रूप में मौज़ूद होती है। चूँकि बौद्धिक श्रम करने
वाले अधिकतर लोगों को पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में मज़दूरों के शोषण से पैदा
होने वाले अधिशेष का एक हिस्सा विशेषाधिकारों के भोग के लिये एक समर्थन आधार तैयार
करने के वास्ते पूँजीपति वर्ग द्वारा घूस के रूप में दे दिया जाता है, इसलिये पूँजी के साथ उनके अन्तर्विरोध ज्यादा तीखे
नहीं होते (जबतक कि किसी दिन बेरोज़गार होकर वह खुद सड़क पर नहीं आ जाता)। लेकिन
मानसिक श्रम करने वाला व्यक्ति भी मुनाफ़ा केन्द्रित उत्पादन सम्बन्धों के
अन्तर्गत किसी और के मुनाफ़े के लिये श्रम (मानसिक) कर रहा होता है। मार्क्स के
शब्दों में,
“पूजीवादी उत्पादन सिर्फ
माल का उत्पादन नहीं, बल्कि वास्तव में यह अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन है। मज़दूर
अपने लिये नहीं बल्कि पूँजी के लिये उत्पादन करते हैं। इसलिये यह कहना पर्याप्त
नहीं है कि वह सिर्फ उत्पादन करता है। वास्तव में वह अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन
करता है। पूंजीवादी तंत्र में सिर्फ वही मज़दूर उत्पादक होता है जो पूँजीपति के लिये अतिरिक्त-मूल्य
का उत्पादन करता है, और इस प्रकार पूँजी के स्व-विस्तार के लिये काम करता है। यदि
हम भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्र से बाहर का उदारहण लें तो स्कूल-मास्टर एक
उत्पादन करने वाला मज़दूर बन जाता है जब अपने छात्रों के विचारों का निर्माण करने के साथ अपने स्कूल के मालिक
को धनी बनाने के लिये वह घोड़े की तरह काम में लगा रहता है। सिर्फ इस बात से
उत्पादन सम्बन्धों पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी मालिक ने अपनी पूँजी सासेज
बनाने बाली फैक्ट्री के बजाय शिक्षा देने की फैक्ट्री में निवेश की हुई है। इस तरह
उत्पादक श्रम की धारणा श्रम और उसके महत्वपूर्ण परिणाम, श्रम और उत्पादक श्रम के बीच
सम्बन्ध के साथ एक विशेष सामाजिक उत्पादन सम्बन्ध को निरूपित करती है। यह एक ऐसा
सम्बन्ध है जो ऐतिहासित रूप से पैदा हुआ है और जिसने मज़दूरों को अतिरिक्त श्रम
पैदा करने वाले एक साधन में तब्दील कर दिया है। ऐसे में एक उत्पादन करने वाला
मज़दूर होना कोई भाग्यशाली बात नहीं बल्कि एक दुर्भाग्य है।“ (उद्धण स्रोत 7.c)
मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध मनुष्यों की श्रम शक्ति
को माल बनाने के साथ ही मनुष्य को भी पूँजीवादी मण्डी में बिकने वाला माल बना देते
हैं और काम करने वालों के सामने
अपने खुद के जीवन का कोई दूरगामी लक्ष्य नहीं रहता, जिसका परिणाम यह है कि उनमें मानवीय
श्रम के प्रति और स्वयं अपनी सामाजिक
स्थिति के प्रति भी एक अलगाव का भाव पैदा हो जाता है। कार्यक्षेत्र में पैदा होने वाला यह अलगाव समाज के पारिवारिक और
सामाजिक सम्बंधों और मूल्यों में भी प्रतिबिंबित होता है। ऐसी स्थिति समाज के जिस
हिस्से के पास साधन मौज़ूद हैं वे सोशल नेटवर्किग जैसे माध्यमों में इस अलगाव से
छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं, और इसके पीछे अदृश्य मूल कारण को समझे बिना हर
रूप में अपने आप को दूसरों के सामने महत्वपूर्ण प्रदर्शित करने, और उनका ध्यान
आकर्शित करने के प्रयास में लगा रहता है। इसकी अभिव्यक्ति फेसबुक, ट्विटर जैसी कई
साइटों पर होती है, जहाँ कई लोग कुछ बेहद व्यक्तिगत पहलू सामाजिक प्लेटफार्म पर
साझा करते हैं, जैसे खाना खाने की तस्वीर, नहाने जाने की जानकारी
देना, कुछ नया खरीदने पर उसकी फोटो, शादियों की फोटो, सोने जाते या सुबह जागने के
बारे में टिप्पणियाँ डालना आदि। इस प्रकार के सारे क्रियाकलाप वास्तव में समाज में
अलगाव को दूर करने का माध्यम तलाश कर रहे लोगों की अभिव्यक्ति है।
2.
पूँजीवादी वर्चस्व
को स्थापित करने में सोशल नेटवर्किंग माध्यमों का उपयोग
आगे बढ़ने से पहले अभी दूसरी तरह के उपयोगकर्ताओं की बात करते हैं,
जिनमें माल अंधभक्ति का प्रचार करने वाली कॉर्पोरेट एजेंसियाँ हैं, पूँजीवादी
राजनीति का प्रचार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ और संगठन हैं, पूंजीवादी
गैर-सरकारी संस्थाएँ हैं, कई रूपों में काम करने वाले धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवादी
संगठन हैं, धर्म के नाम पर अन्धविश्वास का धन्धा चलाने वाले कई “गुरू” हैं और मुख्य धारा के कई पूँजीवादी
न्यूज चैनल हैं। इनसे साथ ही एक हिस्सा जनवादी कार्यकर्ताओं और जनपक्षधर संगठनों
का भी है, जो किसी न किसी स्तर पर पूँजीवादी जनवाद के दायरों में या उसके विकल्प
के रूप में जनता की माँगों को उठाने और प्रचार करने के लिये इन माध्यमों का प्रयोग
कर रहे हैं। सोसट नेटवर्क की वेबसाइटों पर मौज़ूद व्यक्तिगत उपयोगकर्ता इन सभी
ग्रुपों के लिये लक्षित श्रोता होते हैं, जिसके माध्यम से समाज के इस वर्ग के बीच
पूँजीवाद के हित में आम सहमति को बनाने का काम भी होती है, और आम लोगों की वैचारिक समझ पर, उनके विश्व-दृश्टिकोंण
पर शासक वर्ग का वर्चस्व स्थापित करने का काम भी किया जाता है। जो काम पहले
मुख्य धारा का मीडिया करता था अब उसमें यह माध्यम भी जुड़ गया है। इस पूरी
प्रक्रिया को कैसे अन्जाम दिया जाता है कुछ तथ्य देखे जे सकते हैं।
मध्यवर्ग से आने वाले 50 फीसदी सोशल नेटवर्किग यूजर 24 साल से कम उम्र
के हैं और सामान्य रूप से जिसकी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक जानकारी का स्रोत सोशल
नेटवर्किग या टीवी है। यह वर्ग बिना कोई खास सोचने का प्रयास किये सभी सूचनाओं को
कचरा-पेटी की तरह ग्रहण कर लेते हैं। जो काम किताबों और संजीदा लेखों के
माध्यम से होना चाहिये उसकी जगह पर इन साइटों पर एक-दो लाइनों की टिप्पणियों ने ले
ली है, जो कि आज-कल की नयी जेन-X (नवयुवा) पीढ़ी के “नॉलेज” और सूचनाओं का स्रोत माना जा रहा है। एक या दो लाइनों की टिप्पणियों से
कोई व्यक्ति अपने व्यवहारिक अनुभव और वर्गीय विश्व-दृश्टि के अनुरूप अनुभवसंगत रूप
से सहमयत या असहमत तो हो सकता है, लेकिन अपने विचारों का कोई
विश्लेषण प्रस्तुत नहीं कर सकता। साथ ही इन छोटी-छोटी टिप्पणियों के माध्यम से किसी को
सोचने के लिये मज़बूर भी नहीं किया जा सकता, न ही आलोचनात्मक विवेक पैदा किया
जा सकता है। पूँजीवादी
मीडिया द्वारा किया जाने वाला तथ्यों का चुनाव और सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण भी पूँजीवादी वर्ग हित से मुक्त नहीं हो सकता, इसलिये ज़्यादातर सूचनायें
भी समाज के यथार्थ को सहीं ढंग से प्रस्तुत नहीं करती। ऐसे में निश्चित है कि सोशल नेटवर्किग पर मौजूद कई समूहों से आम
लोगों को जो सूचनायें मिलती हैं वे समाज को देखने के उनके छिछले और अवैज्ञानिक नज़रिये
का निर्माण करने में एक अहम भूमिका निभा रहीं हैं।
इसी सन्दर्भ में देखें तो अनेक सामान्य यूजर अपनी सचेतन जानकारी के
बिना इन माध्यमों से होने वाले प्रचार से प्रभावित होकर अपने जीवन की अहम
प्राथमिकताएँ भी निर्धारित कर रहे होते हैं। इसका प्रत्यक्ष असर हम समाज के परिवेश
में देख सकते हैं कि शारीरिक श्रम से कटे हुये इंटरनेट-मोबाइल इस्तेमाल करने वाला समाज
का यह तबका नहीं जानता कि जिस समाज में वो रहता है उसकी आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक
संरचना कैसी है, वह जो सामान इस्तेमाल कर रहा है वे कहाँ और किन परिस्थितियों में
किसके द्वारा पैदा किया जा रहा है, और क्या समाज की असली तस्वीर वही है जो टीवी या
सोशल नेटवर्किंग के माध्मय से उसके सामने प्रस्तुत की जा रही है।
हर चीज के बाज़ारीकरण के इस दौर में सोशल नेटवर्किग के माध्यम से
माल-अन्धभक्ति (commodity fanaticism) का जिस तरह से
प्रचार किया रहा है वह अत्यन्त प्रतिक्रियावादी और घातक है। माल-अन्धभक्ति का
स्पष्ट असर आज समाज में देखा जा सकता है, जिसने लोगों की ख़ुशी और दुःख के कारणों
को अत्यन्त सतही बना दिया है, उनकी खुशी के मुख्य स्रोत हैं कोक पीना, ब्रांडेड जींस और जूते पहनता है, लम्बी कार में
सवारी करना, स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल करना, शराबखाने में जाकर शराब पीना या जिम में
जाकर संचित की गई ऊर्जा को खर्च करना।
पिछले कुछ दिनों से भारत की सोशल नेटवर्किंग साइटे राजनीतिक प्रचार के
एक बड़े माध्यम के रूप में उभर रही हैं। कई एसे राजनीतिक संगठन सोशल नेटवर्किंग साइटों
पर सक्रिय हैं जो लोगों के बीच धार्मिक-जातीय आधार पर ऐतिहासित तथ्यों को
तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करके अन्धविश्वास का प्रचार कर रहे हैं। जो पूँजीवादी
व्यवस्था में पैदा होने वाली बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, रोज़गार की अनिश्चितता
जैसी अनेक बीमारियों के प्रति जनता में मौज़ूद गुस्से को उनकी व्यक्तिगत श्रद्धा के
आधार पर भिन्न-भिन्न रूपों में फासीवाद के समर्थन में मोड़ने की कोशिश करते हैं। इस
प्रकार के संगठन अपने तर्कों या तथ्यों के समर्थन में कोई स्रोत नहीं देते, न ही
कोई ठोस तथ्य लोगों के बीच बहस के लिये रखते या उनतक पहुँचाने की कोशिश करते हैं। इनके
द्वारा प्रचारित की जाने वाली किसी भी सूचना में भारत के इतिहास की कोई सांगोपांग समझ, समाज के विकास या वर्तमान समाज की स्थिति का कोई
वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं होता, सिवाय खोखले शब्दों के (देखें स्रोत 2)। यह संगठन राजनीतिक
रूप से अशिक्षित मध्यवर्ग के बीच इन आधे-अधूरे तथ्यों को इस तरह रखते हैं कि
उन्हें बिना कोई तर्किक विवेक इस्तेमाल किये उसे श्रद्धा के साथ स्वीकार कर
लेना चाहिये।
इस राजनीतिक प्रचार का लक्ष्य सिर्फ साइटों पर मौज़ूद 9 से 10 करोड़
यूजर ही नहीं होते, बल्कि यहाँ से कोई जानकारी लेकर यही यूजर अपने वर्ग के दूसरे
लोगों तक उसे ले जाने के लिये एक वाहक की भूमिका भी निभाते हैं। इस रूप में यह
माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था के हित में शोशित-उत्पीणित-तबाह और पूँजी से शासित जनता
के बीच आम राजनीतिक सहमति निर्मित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
जिन धारणाओं के आधार पर यह संगठन लोगों के बीच प्रचार करते हैं उन्हें
समझने से पहले हमें समाज के “व्यक्तिगत” धार्मिक
आधार पर एक नजर डालनी होगी। प्रबोधन कालीन फ्रांस के महान दार्शनिक दिदेरो ने लिखा
है, "धर्म के नाम पर बने पागल सबसे खतराक होते हैं, और
जो लोग समाज में गड़बड़ पैदा करना चाहते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि किसी विशेष
अवसर पर इन पागलों का स्तेमाल इस्तेमाल कैसे करना चाहिये।" (देखें स्रोत 7)
ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि धर्म राजनीति से स्वतन्त्र एक व्यक्तिगत
चीज है, इसलिये यह लोग अपने धर्म में व्यक्तिगत विश्वास करने
के साथ-साथ अनेक धार्मिक कर्मकाण्ड भी पूरे मनोयोग से करते हैं (कभी-कभी बेमन से
भी करते हैं), और अपने धर्म तथा राष्ट्र को दूसरे सभी धर्मों
एवं राष्ट्रों से श्रेष्ठ मानते हैं। अक्सर देखा जा सकता है कि कुछ धार्मिक लोग, चाहे
उस धर्म और जाति के लोगों का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी-कुपोषण-बेरोज़गारी से जूझ रहा
हो, अपने धर्म और अपने राष्ट्र की श्रेष्ठता को बढ़ा-चढ़ा कर महिमामण्डन करने से बाज़ नहीं आते! सोशल नेटवर्किंग साइटों पर कई “आध्यात्मिक” धर्म गुरुओं, साधुओं और सन्यासियों और अनेक
धार्मिक संगठनों की प्रोफाइलें मौज़ूद हैं जो समय समय पर कुछ धार्मिक और राजनीतिक
टिप्पणियाँ डालकर धर्म और जाति को महिमामण्डित करते रहते हैं, जिनसे कई धार्मिक लोग
जुड़े होते हैं। धार्मिक राजनीतिक प्रचार के प्रभाव में आने वाले लोगों के सामने यह
रेखांकित करना जरूरी है कि इन लोगों को इतिहास की इस सच्चाई के बारे में पता नहीं
चलने दिया जाता कि किसी भी धार्मिक कट्टरपन्थी या अन्धराष्ट्रवादी पूँजीवादी सत्ता
ने मानव जाति के लिये आज तक कोई उपलब्धि हासिल नहीं की है, सिवाय निर्दोष मेहनतकश
जनता की हत्याओं और जनता के खुले दमन के आधार पर कुछ लोगों को विलासिता मुहैया करवाने
और जनता के शोषण और दमन के दम पर बनी मौजूदा व्यवस्थाओं की रक्षा करने के। लोगों
के व्यक्तिगत विश्वास के आधार पर व्यापार करने वाले लाखों “धर्म-गुरू” और धार्मिक राजनीतिक करने वाले संगठन इस माध्यम का फायदा उठाने में कोई
कसर नहीं छोड़ रहे हैं और फासीवादी राजनीति संगठन इसका पूरा फायदा उठा रहे हैं। इस
प्रकार कई धार्मिक लोगों की व्यक्तिगत भावनाएँ, जो गैर-राजनीतिक सोच से शुरू होती
हैं, अन्त में अन्धराष्ट्रवादी फासीवादी राजनीति के समर्थन तक जाकर अपनी चरम
परिणति को प्राप्त हो रही हैं। भारत में इस तरह हिन्दू धर्म का राजनीतिक प्रचार
करने वाले तरह-तरह के राजनीतिक-धार्मिक संगठन, धार्मिक गुरू और संस्थाएँ सोशल
नेटवर्किग साइटों पर देखी जा सकती हैं।
3.
राज्यसत्ता की गुप्त
संस्थाओं द्वारा सोशल नेटवर्किंग माध्यमों का उपयोग
सोशल नेटवर्किंग साइटों की पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालें तो गुप्त रूप से इनपर नज़र रखने वाला
एक और उपयोगकर्ता भी है, जो पूँजीवादी राज्यसत्ता का एक अंग है और सोशल नेटवर्किग साइटों तथा
इंटरनेट के अन्य यूजर डाटा को इकठ्ठा करने, उसका परीक्षण करने और उसके आधार पर IB (भारत) या
CIA (अमेरिका) जैसी गुप्त संस्थाओं को सूचनाएँ मुहैया करवाने का काम
करता है। भारत में RAW (Research and Analysis
Wing) और अमेरिका की PRISM (Surveillance
Program) इसके कुछ उदाहरण हैं। सुरक्षा और आतंकवाद से निपटने के नाम
पर खड़ी की गईं यह संस्थाएँ मुख्य रूप से पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलनों पर नज़र
रखती हैं। और इनके द्वारा मुहैया करवाये गये तथ्यों के आधार पर
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी सिद्धांतकार नीतियाँ निर्धारित करते हैं। जो पूरी दुनिया में पिछड़े और गरीब
देशों के मज़दूर वर्ग को लगातार बर्बादी में धकेल रही पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये
रखने और समय-समय पर मुखर हो जाने वाले जन प्रतिरोधों को कुचलने के लिये इस्तेमाल होती
हैं। इन गतिविधियों पर नज़र रखने का मुख्य उद्धेश्य जनवादी अधिकारों की रक्षा करना
नहीं बल्कि लूटमार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में समय समय पर खड़े होने वाले जन आन्दोलनों
को कुचलने और दुनिया भर के इजारेदार पूँजीपति (Monopoly
Capitalists) घरानों की सम्पत्ति की रक्षा करना होता है। उपयोगकर्ताओं
के डाटा पर नज़र रखने वाली कई संस्थाओं की जानकारी अभी हाल ही में हुये कई खुलासों
से सामने आ चुकी है (देखें स्रोत 4)।
अमेरिका की NSA संस्था PRISM की मदद से गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, Yahoo, PalTalk, YouTube, Skype, AOL and Apple जैसे कम्पनियों से आम उपयोगकर्ताओं और संगठनों के व्यक्तिगत डाटा को 2007 से इकठ्ठा कर रही है, और इनके आधार पर उनकी
गतिविधियों पर नज़र रख रही है। भारत में भी CMS
(Centralized Monitoring System) जैसी संस्थाएँ भी PRISM
की तर्ज पर काम कर रही हैं। CMS और PRISM की मदद से राज्यसत्ता की गुप्त संस्थाएँ मोबाइल, SMS,
फैक्स, बेवसाइट, सोशल मीडिया के उपयोग, इंटरनेट सर्च, ईमेल, आदि पर रियल-टाइम में नज़र
रख रही हैं (देखें स्रोत 4)।
गुप्त संस्थाओं द्वारा इस डाटा इस्तेमाल किस तरह
मज़दूर आन्दोलनों के विरुद्ध किया जाता है उसके कुछ उदाहरण इतिहास की कई घटनाओं के आधार पर समझे जा
सकते हैं। जैसे 1973 में चिले में CIA की मदद से आलिन्दे की सरकार का तख्तापलट किये जाने के
कई दस्तावेज मौज़ूद हैं, जिसमें हजारों बेकसूर लोगों
का कत्लेआम किया गया लाखों को उत्पीड़ित किया गया, 1965 में इण्डोनेशिया की जनवादी सरकार के तख्तापलट में
CIA के सहयोग जैसी कई खबरें देखी जा सकती हैं जिसमें CIA ने 5,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और उनके सहयोगियों
की एक सूची सेना को दी जिसमें
लगभग 10 लाख से अधिक बेकशूर लोगों की हत्या की गई, 1953 में
इराक में जनता द्वारा चुनी गई जनवादी सरकार के तफ्तापलट की बात CIA ने खुद ही स्वीकार कर ली है, 1980 में टर्की में
मलेट्री जुण्टा के नेतृत्व में जनवादी सरकार का तख्तापलट करवाने में भी CIA द्वारा मदद देने के दस्तावेज मौज़ूद हैं जहाँ ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं
के दमन के साथ जनता के सभी जनवादी अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। साम्राज्यवादी
देशों के गुप्त संगठनों द्वारा लैटिन अमेरिका से लेकर एशिया तक आज भी जारी आम जनता
के कत्लेआम की भूमिका तैयार करने की कई घटनाओं में से यह कुछ घटनाओं के उदाहरण हैं।
वेनेजुयेला में CIA द्वारा राष्ट्रपति शावेज के तख्तापलट की
नाकाम कोशिश पर 2003 में बना एक वृत्तचित्र The Revolution Will Not Be Televised (2003) पूरी
दुनिया के पूँजीवादी
घरानों और CIA
जैसी गुप्त संस्थाओं के सहयोग का काफी नंगे रूप में भाण्डाफोड़ करता है (देखें स्रोत 5)। जनता द्वारा चुनी गई इन सभी सरकारों के तख्तापलट का
मुख्य उद्धेश्य विश्व साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़ी हो रही मेहनतकश वर्ग की ताकतों
को कुचल कर अपने नियन्त्रण में कठपुतली सरकारों को स्थापित करना था, जिसका
नेतृत्व गुप्त संस्था CIA ने किया और कुछ घटनाओं में
अपनी भूमिका को वह स्वीकार भी कर चुकी है।
आज जिस प्रकार पूरी दुनिया के स्तर पर मेहनतकश
जनता के शोषण के दम पर इजारेदारों की सम्पत्ति आसमान छू रही है, जहाँ पूरी दुनिया के 85 सबसे अमीर
घरानों की सम्पत्ति दुनिया के बचे हुए कुल लोगों में से आधी गरीब आबादी की कुल
सम्पत्ति से भी अधिक हो चुकी है, और इस असमानता पर आधारित व्यवस्था में कुछ परजीवी
मुनाफाखोरों का पोषण करने के लिये वैश्विक स्तर पर करोड़ों मेहनतकश लोगों
बेरोज़गारी, गरीबी और भुखमरी के शिकार हैं (देखें स्रोत 6 और स्रोत 3), ऐसी स्थिति में यदि आनेवाले
समय में मेहनतकश जनता के आन्दोलन संगठित न हुये तो पूँजीवाद के बढ़ते संकटों के और
अन्तर्विरोधों के तीखा होने के साथ पैदा होने वाले स्वता-स्फूर्त जन प्रतिरोधों को
कुचलने में पूँजीवादी सत्ताओं द्वारा इन माध्यमों को नंगे फासीवादी रूप में प्रयोग
किया जा सकता है।
समय-समय पर पूँजीवादी राज्यसत्ता के सिद्धान्तकार
इन जानकारियों के आधार पर जनता के बीच पूँजीवादी दायरे के भीतर नियोजित ढंग से (ध्यान
रहे कि यह नियोजन किसी व्यक्ति या समूह विशेष द्वारा नहीं किया जाता बल्कि पूँजीवादी
वर्ग हित द्वारा नियोजित होता है) आन्दोलनात्मक कार्यवाहियाँ करवाने और जनता में
व्यवस्था के प्रति मौज़ूद क्रोध को किसी और दिशा में मोड़ने या उनके बीच निराशा का
माहौल पैदा करने के लिये करती रहती हैं। सोशल नेटवर्किंग इस मामले में पूँजीवाद
द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से नियोजित किये जाने वाले आन्दोलनों में एक काल्पनिक
अन्तर्विरोध के प्रति में जनता में उत्तेजना पैदा करने का नया माध्यम बनकर उभर रहा
है। पिछले कुछ समय से भारत में चल रहा अन्ना-केजरीवाल का सुधारात्मक-राजनीतिक
आन्दोलन इसी कड़ी का एक हिस्सा है, जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा के लिये सोशल
नेटवर्किक और पूँजीवादी मीडिया का संयुक्त रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है।
4.
सोशल नेटवर्किंग के
माध्यमों के इस्तेमाल पर निश्कर्ष के तौर पर
संक्षेप में कहें तो यदि भविष्य में जमीनी स्तर
पर पूँजीवाद के विरुद्ध मेहनतकश जनता के व्यापक जन प्रतिरोध खड़े न हुये तो सोशल
नेटवर्किग, इंटरनेट और मोबाइल जैसी तकनीकि बुर्जुआ जनवाद में
लोगों को मिले थोड़े बहुत जनवादी अधिरकारों और आम
लोगों के व्यक्तिगत गोपनीयता के लिये भी एक बड़ा खतरा साबित हो सकती हैं। जन
प्रतिरोधों और गुप्त संस्थाओं का क्या रिश्ता है, इसे हम ऊपर देख ही चुके हैं, जो हर
प्रगतिशील व्यक्ति के लिये विस्तृत रूप में अलग से विचार करने का एक विषय है।
सोशल नेटवर्किग के इस्तेमाल की जो तस्वीर हमने देखी है उसे ध्यान में
रखते हुये हम कह सकते हैं कि जिस तरह प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी वर्ग इस माध्यम से
अलगाव को बढ़ावा दे रहे हैं, भ्रामक प्रचार के माध्यम से लोगों को अतार्किक बनाकर मानसिक
क्षेत्र में शासक वर्ग के वर्चस्व को स्थापित कर रहे हैं, और राज्यसत्ता की गुप्त
संस्थाओं द्वारा जनवादी अधिकारों के विरुद्ध कार्यवाहियों को अन्जाम दे रहे हैं,
उनको काइंटर करने के लिये जन-पक्षधर वर्गों द्वारा सचेतन तौर पर विरोध ठोस कदम
उठाने की आवश्यकता है। और इन माध्यमों का एक सीमा तक इस्तेमाल किया जा सकता है
जैसे और विश्व साहित्य और अनुसन्धान तथा विश्व इतिहास के स्रोतों को आम लोगों के बीच
पहुँचाने और पूँजी के विरुद्ध संगठित हेने वाली मज़दूर आन्दोलन की कार्यवाहियों में
शामिल करने के लिये प्रचार किया जा सकता है। लेकिन यह भी ध्यान रहना चाहिये कि इसे
ही प्रचार का एकमात्र विकल्प नहीं माना जा सकता। यह जनता के बीच जाने के लिये
मौज़ूद अनेक माध्यमों में से एक माध्यम हो सकता है उनका विकल्प नहीं।
References:
1.
92 Million Facebook Users Makes India The
Second Largest Country [STUDY], January 7, 2014
Press Trust of India, February 08, 2013
[http://gadgets.ndtv.com/social-networking/news/facebook-has-71-million-active-users-in-india-50-million-duplicate-accounts-worldwide-328213]
2.
BJP misusing social media to mislead the youth:
Gehlot
How to spread communal hatred – Learn from BJP activists,
Dr. Subramanian Swamy, stop spreading Communal Hatred through
falsification of information--,
Shock over U.S. social media snooping, June 7, 2013
US extracts user data from servers of internet giants: Report, June 7, 2013
5. C.I.A. Tie Asserted in Indonesia Purge,
The New York Times, July
12, 1990
Commemorating Chile’s Military Coup,
September 11, 1973: Chile and Latin America Forty Years Later, Global Research, September 11, 2013
CIA Admits Involvement in Chile, W A S H
I N G T O N, Sept. 20
Commemorating Chile’s Military Coup,
September 11, 1973: Chile and Latin America Forty Years Later, Global Research, September 11, 2013
CIA admits role in 1953 Iranian coup, 19 August 2013,
The NSA Files, The Guardian
[http://www.theguardian.com/world/the-nsa-files]
Chavez film puts staff at risk, says
Amnesty, Recriminations after documentary on Venezuelan coup attempt is dropped
from a Vancouver festival, 22 November 2003
[http://www.theguardian.com/world/2003/nov/22/film.venezuela]
6. Oxfam: 85 richest people as wealthy as
poorest half of the world, Monday 20 January 2014, As World Economic Forum starts in Davos, development charity
claims growing inequality has been driven by 'power grab', 20 January 2014
[http://www.theguardian.com/business/2014/jan/20/oxfam-85-richest-people-half-of-the-world]
7. उद्धरण स्रोत
a. "the fact that labor is external to the worker, i.e., it
does not belong to his intrinsic nature; that in his work, therefore, he does not affirm
himself but denies himself, does not feel content but unhappy, does not develop
freely his physical and mental energy but mortifies his body and ruins his
mind. The worker therefore only feels himself outside his work, and in his work
feels outside himself. He feels at home when he is not working, and when he is
working he does not feel at home.” (Political and Philosophical Manuscripts by
Karl Marx)
b. “man (the worker) only feels himself freely
active in his animal functions – eating, drinking, procreating, or at most in
his dwelling and in dressing-up, etc.; and in his human functions he no longer
feels himself to be anything but an animal. What is animal becomes human and
what is human becomes animal." (Political and Philosophical Manuscripts by
Karl Marx)
c.
Capitalist production is not merely the production of commodities, it is
essentially the production of surplus-value. The labourer produces, not for
himself, but for capital. It no longer suffices, therefore, that he should
simply produce. He must produce surplus-value. That labourer alone is
productive, who produces surplus-value for the capitalist, and thus works for
the self-expansion of capital. If we may take an example from outside the
sphere of production of material objects, a schoolmaster is a productive
labourer when, in addition to belabouring the heads of his scholars, he works
like a horse to enrich the school proprietor. That the latter has laid out his
capital in a teaching factory, instead of in a sausage factory, does not alter
the relation. Hence the notion of a productive labourer implies not merely a
relation between work and useful effect, between labourer and product of
labour, but also a specific, social relation of production, a relation that has
sprung up historically and stamps the labourer as the direct means of creating
surplus-value. To be a productive labourer is, therefore, not a piece of luck,
but a misfortune. (The Capital Vol-I by Karl Marx)
d. The most dangerous madmen are those created
by religion, and people whose aim is to disrupt society always know how to make
good use of them on occasion." - Denis Diderot