पीके
फिल्म के बारे में अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यमों से काफी तारीफ सुनने को मिल
रही है। जिन्होंने अभी यह फिल्म नहीं देखी है उन्हें लग रहा है कि इस फिल्म में
धर्म की आलोचना की गई है, और जो लोग देख चुके
हैं उन्हें भी कुछ समय के लिये ऐसा ही लग सकता है। इसलिये हम इसे थोड़ा गम्भीरता
से समझने की कोशिश करेंगे। लेकिन इससे पहले वर्तमान समय पर एक नज़र डाल लेनी
चाहिये।
यह
फिल्म एक ऐसे समय में दर्शकों के सामने आई है जब धर्म के नाम पर धन्धा चलाने वाले
कई धर्म-गुरुओं की घिनौनी सच्चाई एक-एक कर जनता के सामने आ रही है। और लोगों का
विश्वास इन पण्डे-पुजारियों-मुल्लाओं से उठने लगा है। इसके साथ ही पूँजी की मार से
अपनी जगह ज़मीन से उजड़-उजड़ कर देश के नौजवानों की बड़ी आबादी रोज़गार की तलाश
में शहरों की सड़कों पर भटकती हुई देखी जा सकती है या दिहाड़ी या ठेके पर मज़दूरी
करके अपने जीवन जी रही है। बदहाल परिस्थितयों में रहते हुये देश की बड़ी आबादी
अपनी माँगों को लेकर अपने अधिकारों के लिये सड़कों पर आ रही है। देश के इन मेहनतकश लोगों के लिये धर्म की रक्षा से ज़्यादा जरूरी है गरीबी-बेरोज़गारी और बदहाल सामाजिक
परिस्थितियाँ के बारे में सोचना। जब आम लोग किसी भी रूप में जनता की माँगों को उठाने के लिये होने वाले आन्दोलनों में हिस्सा
लेते हैं तो वह यह सीखते हैं कि वे अपनी सामाजिक परिस्थितियों को संघर्षों के
माध्यम से बदल सकते हैं, क्योंकि संसार के कुछ
नियम हैं और इसी तरह समाज के भी नियम हैं जिन्हें समझा जा सकता है और जिनकी समझ के
आधार पर समाज को बदला भी जा सकता है। ऐसे में यह स्वभाविक है कि लोगों का भाववादी
दर्शन से भी धीरे-धीरे मोहभंग होने लगता है जो यह कहता है कि संसार किसी बाहरी
ताकत से चलता है जो इंसान की समझ से परे है। समाज में शिक्षा का प्रचार भी एक हद
तक हो रहा है जिससे लोगों के बीच विज्ञान के बारे में भी जागरुकता बढ़ रही है। ऐसे
में भाववादी दर्शन और पूँजीवाद के भविष्य के बारे में जनता सवाल उठा रही है,
और इसलिये समाज के शासक वर्गों के लिये यह जरूरी हो है कि धर्म के
भाववादी दर्शन को ऐसे प्रस्तुत किया जाये जिससे एक सचेतन व्यक्ति को भी नियतिवाद
के भ्रामक जाल में फंसाया जा सके। यह काम विधु विनोद चोपड़ा, हिरानी और आमिर ने अपनी इस फिल्म के माध्यम से बखूबी अंजाम दिया है।
अब इस
फिल्म पर एक नज़र डालते हैं। फिल्म दर्शकों के सामने यह दाबा कर रही है कि इसने
सभी धर्मों सहित हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डो पर आलोचनात्मक रुख़ अपनाया है और यह
धर्म का धन्धा करने वाले गुरुओं पर सवाल उठाती है। फिल्म के दृश्यों को देख कर
दर्शकों को ऐसा भी लगेगा कि यह फिल्म सभी धर्मों पर सवाल उठाती है और लोगों को
सोचने के लिये मज़बूर करती है। यह इसका एक सकारात्मक पहलू कहा जा सकता है और स़ायद यही कारण है कि कुछ धार्मिक संगठन इसपर रोक लगाने की माँग कर रहे हैं।
लेकिन क्या वास्तव में फिल्म ऐसा ही करती है इसकी पड़ताल करने की जरूरत है। कई दर्शक इस लेख को पूरा पढ़ने के बाद यह कहने लगेंगे कि हमें हर जगह वैज्ञानिक नज़रिया नहीं घुसाना चाहिये, फिल्म तो मनोरंजन का माध्यम है। लेकिन मनोरंजन के माध्यम के साथ जो दृश्टिकोंण दिया जा रहा है उसके बारे में क्या दर्शकों को नहीं सोचना चाहिये और समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिये या कि सिर्फ एक पैशिव-रिशीवर (passive receiver) की तरह जो भी दिखाया जा रहा है उसे अपने दिमाग में डाउनलोड करके चले आयें। ज्यादा विस्तार में न जाकर, इसके कलात्मक पक्ष को छोड़ देते हैं। थोड़े में फिल्म दर्शकों को क्या सोचने के लिये मज़बूर करती है इसका जिक्र हम यहाँ करेंगे।
लेकिन क्या वास्तव में फिल्म ऐसा ही करती है इसकी पड़ताल करने की जरूरत है। कई दर्शक इस लेख को पूरा पढ़ने के बाद यह कहने लगेंगे कि हमें हर जगह वैज्ञानिक नज़रिया नहीं घुसाना चाहिये, फिल्म तो मनोरंजन का माध्यम है। लेकिन मनोरंजन के माध्यम के साथ जो दृश्टिकोंण दिया जा रहा है उसके बारे में क्या दर्शकों को नहीं सोचना चाहिये और समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिये या कि सिर्फ एक पैशिव-रिशीवर (passive receiver) की तरह जो भी दिखाया जा रहा है उसे अपने दिमाग में डाउनलोड करके चले आयें। ज्यादा विस्तार में न जाकर, इसके कलात्मक पक्ष को छोड़ देते हैं। थोड़े में फिल्म दर्शकों को क्या सोचने के लिये मज़बूर करती है इसका जिक्र हम यहाँ करेंगे।
1. फिल्म का नायक कहता है, “जो डर गया वह मंदिर गया।” लेकिन दर्शकों को देखना पड़ेगा कि क्या फिल्म इस “डर” के बारे में, जिसके कारण लोग मंदिरो या गिरिजाघरों या
मस्जिदों में जाते हैं, उसके पीछे के कारणों के बारे में भी
कुछ दिखाती है। क्या यह दर्शकों को बताती है कि उन्हें किस चीज का डर है और उस डर
के पीछे भौतिक कारण क्या है? सारी फिल्म एक दूसरे ग्रह के इंसान की व्यक्तिगत समस्या और
उसके इर्द-गिर्द बुने गये धार्मिक आलोचना के एक इल्यूजन (illusion) के
चारों ओर घूमती रहती है। फिल्म वर्तमान में निजी मुनाफ़ाखोरी, धोखाधड़ी, आपराधिक पूँजी
संचय जैसी इस संसार की समस्याओं पर न तो कोई सवाल उठाती है और न ही पूँजीवादी समाज
की आराजक, अव्यवस्था और अनिश्चितता के प्रति लोगों के सामने
कोई आलोचनात्मक विवेक प्रस्तुत करने की कोशिश करती है। जो कि वर्तमान पूँजीवादी
समाज में लोगों के डर का वास्तविक कारण हैं।
2. फिल्म का नायक कहता है कि धार्मिक कर्मकाण्ड पंडे-पुजारियों और
मुल्लाओं के दिमाग की उपज हैं और ईश्वर तक पहुँचने के लिये इन धर्म-गुरुओं की कोई
जरूरत नहीं है। लेकिन जो सच्चाई फ़िल्मकार ने दर्शकों को नहीं बताई वह यह है कि
कहीं ईश्वर भी इंसानों के दिमाग की ही उपज तो नहीं है। कि जब इंसान अपने आस-पास
घटने वाली कई घटनाओं को नहीं समझ पाता होगा तो उसने किसी पराभौतिक ताकत की कल्पना
की होगी जो उसके लिये सुकून और विश्वास का एक श्रोत बन गया। लेकिन क्या जब इंसान
अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं को समझने के काबिल हो चुका है तो उसे ईश्वर की इस
अवधारणा को मानने की कोई जरूरत है? इस मामले में दर्शक फिल्म देख कर खुद निर्णय कर सकते हैं कि
फिल्म धर्म पर सवाल उठाती है या ईश्वर के अस्तित्व को और गहराई में जाकर उसे
मज़बूत करती है।
3. फिल्म में कहीं भी ऐसा दृश्य नहीं है जो दर्शकों को यह अनुमान
लगाने के लिये भी प्रेरित करे कि वर्तमान समाज में,
जहाँ अनेक धर्म और अन्धविश्वासों को बढ़ावा दिया जाता है, इसके पीछे वास्तविक भौतिक कारण क्या हैं।
4. एक और सबसे बड़ा सवाल यह है कि धर्म पर सवाल उठाने का दावा
करने वाली यह फिल्म क्या दर्शकों के सामने कोई वैज्ञानिक दृश्टिकोंण प्रस्तुत करती
है, कि समाज और प्रकृति की हर चीज अपनी आन्तरिक
गति और पदार्थ की क्रिया प्रतिक्रिया से संचालित होती है, और
हर एक घटना के पीछे कोई भौतिक कारण होता है, जिसे समझा जा
सकता है और समझने के साथ-साथ बदला भी जा सकता है।
अब हमें
धर्म के बारे में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर नज़र डाल लेनी चाहिये। विज्ञान के विकास
और समाज के वर्गीय चरित्र के बदलने के साथ समय-समय पर हर धर्म को भी अपने स्वरूप
को बदलने के लिये मज़बूर होना पड़ा है। यानि भाववादी दर्शन को समाज की आम जनता के
बीच पैठ कम न हो सके इसके लिये शासक वर्गों के धर्मों के अनुयाई हमेशा इसे और
अवस्ट्रेसन (abstraction) में ले जाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन एक चीज जो आरम्भ से
आज तक सभी में समान बनी रही है वह है संसार को बनाने और चलाने वाली किसी बाहरी
ताकत पर विश्वास। हर धर्म, चाहे उसका स्वरूप कुछ
भी हो यह मानता रहा है, और आज भी मानता है, कि समाज में जो भी हो रहा है वह किसी बाहरी ताकत यानि ईश्वर की इच्छा से
ही हो रहा है, यानि दुनिया में जो गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी जैसी समस्यायें हैं उनका कारण समाज की संरचना में
नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा में निहित है।
ऐसे कई
उदाहरण हैं जहाँ धार्मिक मान्यताओं और अन्धविश्वासों को विज्ञान की चुनौती मिलती
रही है। हम कोपरनिकस से लेकर गैलीलियो तक के उदाहरण देख सकते हैं, जिन्होंने सोलर सिस्टम की खोज की जो चर्च की
मान्यताओं से अलग थीं जिसके अनुसार पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी। और अन्त में
चर्च ने इसे मान लिया, लेकिन भाववादी दर्शन और ईश्वर की
मान्यता पर कोई सवाल खड़ा नहीं होने दिया गया।
जैसे-जैसे
सामाजिक ढाँचा बदलता गया है और विज्ञान की प्रगति हुई है जिसने कई ऐसे सवालों की
गुत्थी सुलझा दी है जो पहले इंसान के लिये एक पहली थे, ऐसे में शासक वर्गों के लिये भी यह जरूरी हो
जाता है कि जनता को नियतिवाद में फंसाकर रखने के लिये भाववादी-नियतिवादी धार्मिक
धारणाओं को उनके और अवस्ट्रेक्ट लेवल (abstract
level) तक ले जाकर प्रस्तुत किया जाए जिससे लोगों को उनकी
अपनी भौतिक परिस्थितियों के प्रति उदासीन रखा जा सके। और यह काम पीके ने बखूबी
निभाया है इसके लिये वर्तमान पूँजीवादी संस्थाएँ हिरानी, आमिर और चोपड़ा की काफी शुक्रगुज़ार होंगी।
खैर, अब आम जनता के नज़रिये से फिल्म को देखने और उसके
द्वारा धर्म पर उठाये गये “सवालों” दर्शकों को खुद फिल्म देख कर सोचना चाहिये।