कुछ दिनों से ऐसा
प्रचार किया जा रहा है कि इलाहाबाद में चल रहा कुंभ मेला दुनियाँ के
सबसे बड़े धार्मिक समारोह का प्रतीक है जिसपर हमें गर्व करना चाहिये। कुछ लोग इसे
काफी बढ़ा-चढ़ा कर इसकी प्रशंसा कर रहे हैं। कल कुम्भ के इसी "पवित्र" समारोह में तीन करोड़
लोगों ने संगम पर डुबकी लगाई। संगम पर इस "पवित्र स्नान" के बाद धार्मिक भावना से ओत प्रोत श्रद्धालु रेलवे स्टेशन पर पहुँचे, जहाँ भीड़ में भगदड़
मचने से 36 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हैं।
36 लोगों की मौत हो
जाना वास्तव में एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। लेकिन यह घटना एक अन्य कारण से और भी
अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। और उस दूसरे दुर्भाग्यपूर्ण कारण के बारे में हर विचारशील व्यक्ति को सोचना होगा।
लोग इस मेले की बड़ी
प्रशंसा कर रहे हैं। लेकिन एक बात हमें सोचनी चाहिये कि इस मेले में इतने
लोग इकठ्ठे क्यों हुये। क्या यह कोई सामाजिक समारोह है, जहाँ सामाजिक भावना से लोग जमा होते हैं, या यह नदियों के
प्रति लोगों की श्रद्धा का प्रतीक है, जिसके कारण लोग उनमें नहा कर अपनी श्रद्धा
प्रकट करना चाहते हैं। इस दोनों कारणों पर कोई विमर्श करने से पहले एक तीसरे कारण
पर बात करना ज़रूरी है, क्योंकि ज़्यादातर लोग इसी कारण से यहाँ जाते हैं।
यहाँ जाने वाले
लोगों में जो लोग वर्तमान समाज में शोषित हैं, दलित-उत्पीड़ित हैं, और गरीबी में जी रहे हैं जिसके कारण वे दुखी हैं, वे इस अन्धविश्वासपूर्ण उम्मीद के साथ यहाँ पहुँचते हैं कि उनके जीवन में कुछ भला हो जायेगा। जैसा कि
हम सभी को बचपन से हिन्दू धर्म की शिक्षा के अनुरूप पंडों-पुजारियों, टीवी के नाटकों, फिल्मों, और कई धार्मिक
चैनलों के माध्यम से यह सिखाया और बताया जाता है कि किसी व्यक्ति विशेष की वर्तमान
बदहाली का कारण उसके पुराने जन्मों के बुरे कर्म होते हैं। इसी के साथ यह भी बताया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति संगम जैसी पवित्र (वैसे इस समय जितनी ग़न्दगी यहाँ होगी वह अंदाज़ लगाया
जा सकता है) जगह पर कुंभ जैसे सु-अवसर पर (यह पवित्र क्यों है यह स्पष्ट नहीं बताया जाता) डुबकी लगायेगा तो उनके पुराने जन्म के कर्मों के सारे पाप धुल जायेंगे और स्वर्ग का सीधा रास्ता खुल जायेगा। लोगों को 'पिछले जन्म के पापों सो छुटकारा' और 'अगले जन्म में आराम का जीवन' पाने जैसे अन्धविश्वास के धार्मिक किस्से-कहानियों को इस स्तर तक लोगों के दिमाग में बिठाने की कोशिश की जाती है कि वे
वर्तमान की अपनी बदहाली के बारे में कुछ देर के लिये भूल जाते हैं, और खुद को ही अपने
पिछले जन्म के बुरे कर्मों के लिये दोषी मानने लगते हैं। ऐसे किस्से भी हमारे देश में प्रचारित किये जाते हैं कि मरने के बाद मोक्ष प्राप्त कर स्वर्ग में
जाने के लिये कुम्भ में डुबकी लगाना अत्यंत आवश्यक है। इन सभी प्रवचनों में पिछले जन्म, अगले जन्म और मरने
का बाद स्वर्ग की प्रप्ति पर अनेक विचार मौजूद हैं, लेकिन कहीं भी वर्तमान और इस जन्म की बदहाली से छुटकारा पाने का कोई उपाय
नहीं बताया जाता।
खैर, यह तो समाज की सबसे
बड़े हिस्से के बारे में बात हो गई जो गरीबी में जी रहा है। लेकिन मध्य-वर्ग के
कुछ लोग, कुछ-एक छुटभैये
ठेकेदार-दलाल-धूसखोर-मुनाफाखोर और छोटा-मोटा धन्धा करने वाले लोग यहाँ पहुँचते हैं जो सभी एक आराम का जीवन जीने में सक्षम हैं।
इसका भी एक कारण है कि धर्म के प्रवचन हमें यह भी बताते हैं कि
यहाँ पर डुबकी लगाने से लोगों के वर्तमान के सारे पाप (जो उन्होंने पूरी ज़िन्दगी में किये हैं) धुल जाते हैं। वर्तमान के इन पापों के धुलने से वर्तमान में व्यक्ति को
क्या मिलता है यह नहीं बताया जाता! लेकिन यह बताया जाता है कि
इसका फल अगले जन्म और मृत्यु के बाद अवश्य मिलता है। इसलिये किसी व्यक्ति ने अपने
पूरे जीवन में कितने ही लोगों का शोषण किया हो, कितनी भी घूँस ली हो, उसकी व्यक्तिगत
एशो-आराम के साधने जुटाने में कितने ही मेहनत करने वाले लोगों की जाने दाँव पर लगी
हों, वह यदि एक बार स्नान कर लेता है तो मोक्ष प्राप्त करने का हक़दार बन जाता है! इसलिये समाज का एक वर्ग व्राह्मणों द्वारा निर्धारित पाप-पुण्य के सस्ते मानकों के अनुरूप मोक्ष की प्रप्ति के लिये यहाँ पहुँचता है।
कुछ लोग यह भी कह
सकते हैं कि यह व्यक्तिगत श्रद्धा की बात हैं। लेकिन क्या हमें यह नहीं समझना और
सोचना होगा कि इस प्रकार की व्यक्तिगत श्रद्धा का स्रोत क्या है। लोगों के विचारों
में इस प्रकार की कूपमण्डूकता पूर्ण श्रद्धा क्यों घर करती है। उन्हें इस प्रकार की मानव-द्रोही बातें किसने सिखाईं कि उसकी खराब स्थिति का कारण उसके पुराने जन्म के बुरे कर्म हैं, न कि वर्तमान समाज
की अमानवीय संरचना, जहाँ अनेक लोगों की मेहनत और बदहाली पर उनकी क़ब्रों पर कुछ मुठ्ठीभर सम्पत्ति के मालिक गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।
कुछ लोगों का मानना
है कि यह एक सामाजिक समारोह है, लेकिन यहाँ पर जाने वाला कोई भी व्यक्ति सामूहिक भावना से
नहीं जाता होगा। जहाँ तक मुझे लगता है यहाँ सारे लोग सिर्फ व्यक्तिगत भावनाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये ही जाते हैं। यहाँ जाने वाले लोगों का
दूसरों से कोई लेना-देना नहीं होता। जैसा कि यहाँ रहने वाले अनेक बाबा और पण्डे सन्यास लेकर समाज से अलग कटकर गैर-सामाजिक व्यक्ति के रूप में रहते हैं। यहाँ तक कि एक
ही परिवार के सारे लोग भी एक दूसरे के लिये नहीं बल्कि अपने-अपने पाप धोने और "अपने मोक्ष" लिये ही यहाँ जाते हें। ऐसे में इसे सामाजिक समारोह कहना बिल्कुल गलत है। यह
धार्मिक विचारों के माध्यम से समाज में फ़ैलाये गये व्यक्तिगत अन्धविश्वासों और लोगों की अज्ञनता का एक प्रदर्शन मात्र ही कहा जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष
उदाहरण कल मची भगदड़ है जिसमें 36 लोगों की मौत भी हो गई।
यहाँ पहुँचने वाले "श्रद्धालुओं" में नदियों के प्रति भी कोई श्रद्धा नहीं होती। इसका अन्दाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि इस पूरे मेले के दौरान नदियों
के पानी में गंदगी फैलाने की
प्रक्रिया काफी बढ़ जाती है।
इन दोनो ही तथ्यों
से थोड़ा सा तर्क इस्तेमाल करने वाला कोई भी व्यक्ति यह अन्दाज़ लगा सकता है कि इस
प्रकार के सारे विचारों और अन्धविश्वासों का प्रचार इसलिये किया
जाता है कि लोगों का ध्यान उनकी वर्तमान समस्याओं और बदहाली से हटाया जा
सके। इन ह्वासोन्मुख-प्रगति विरोधी विचारों का फ़ायदा किसे होगा यह भी हम आसानी से समझ सकते हैं, कि जिस देश में 77
प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर अपना गुजारा करने के लिये मज़बूर हैं, और दूसरी ओर करोड़पतियों की सम्पत्ति हनुमान की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही है, ऐसे में इसका फ़ायदा किसे होगा। क्या इससे देश की 77 प्रतिशत गरीब बदहाल मेहनतकश जनता को कोई फ़ायदा होगा? नहीं। इसका एकमात्र फ़ायदा
दूसरों की मेहनत की लूट पर पलने वाले सम्पत्तिधारियों को होगा, जो सिर्फ सम्पत्ति के मालिक होने के कारण हर प्रकार की मेहनत से दूर बिना किसी
श्रम के दूसरों की मेहनत के सहारे जी रहे हैं।
आगें बढ़ने से पहले एक बात हमें ध्यान रखनी होगी की इस प्रकार के अंधविश्वास सिर्फ हिन्दू धर्म के माध्यम से ही नहीं, बल्कि हर धर्म के लोगों के बीच जहाँ जनता बदहाली दमन उत्पीडन और शोषण में जीने के लिए मजबूर है वहां के शक्तिशाली सम्पत्तिधारी वर्ग के लोग और मुल्ला-पण्डे-पुजारी सामान वर्गीय स्थिति होने के कारण इस प्रकार के धार्मिक उपदेशों का उपयोग लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति या क़यामत के दिन न्याय जैसे अंधविश्वास के प्रचार के लिए करते हैं। इस तरह के धार्मिक उन्मादों में भगदडों का यह एक सिर्फ एक उदाहरण नहीं है, मुसलमानों के हज और हिन्दुओं के चार-धाम जैसी कई और तीर्थ यात्राओं में ऐसा ही हो चुका है। इसका एक उदाहरण है १२ जनवरी २००६ में हज यात्रा में भगदड़ में हुई ३४५ लोगों की मौत। खैर हम यहाँ एन सभी घटनाओं के विस्तार में नहीं जा सकते लेकिन सभी धर्मों की अंतर्वस्तु एक सामान है जिसपर एक आलोचनात्मक द्रष्टिकोण अपनाने की आवशयकता है।
आगें बढ़ने से पहले एक बात हमें ध्यान रखनी होगी की इस प्रकार के अंधविश्वास सिर्फ हिन्दू धर्म के माध्यम से ही नहीं, बल्कि हर धर्म के लोगों के बीच जहाँ जनता बदहाली दमन उत्पीडन और शोषण में जीने के लिए मजबूर है वहां के शक्तिशाली सम्पत्तिधारी वर्ग के लोग और मुल्ला-पण्डे-पुजारी सामान वर्गीय स्थिति होने के कारण इस प्रकार के धार्मिक उपदेशों का उपयोग लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति या क़यामत के दिन न्याय जैसे अंधविश्वास के प्रचार के लिए करते हैं। इस तरह के धार्मिक उन्मादों में भगदडों का यह एक सिर्फ एक उदाहरण नहीं है, मुसलमानों के हज और हिन्दुओं के चार-धाम जैसी कई और तीर्थ यात्राओं में ऐसा ही हो चुका है। इसका एक उदाहरण है १२ जनवरी २००६ में हज यात्रा में भगदड़ में हुई ३४५ लोगों की मौत। खैर हम यहाँ एन सभी घटनाओं के विस्तार में नहीं जा सकते लेकिन सभी धर्मों की अंतर्वस्तु एक सामान है जिसपर एक आलोचनात्मक द्रष्टिकोण अपनाने की आवशयकता है।
यह सोचने का विषय है
और यह समय अत्यन्त उपयुक्त और महत्त्वपूर्ण है, कि भारत की जनता के रग-रग में धार्मिक अन्धविश्वास को किस हद तक घुसाने की
कोशिश की जा रहा है, और लोगों को उनकी बदहाली में बनाये रखने के लिये इस तरह का धार्मिक क्रियाकलापों
को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है। आज यह भी समझना होगा कि धार्मिक अन्धविश्वास के
यह क्रियाकलाप सीधे तौर पर वर्तमान सम्पत्ति आधारित समाज में लोगों की बदहाली और
उनके शोषण के असली कारणों पर पर्दा डालने के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं, जो सीधे तौर पर समाज
के ऊपरी तबकों को राहत पहुँचाता है, और दलित-उत्पीड़ित जनता को संघर्ष करने या अपनी
वर्तमान परिस्थितियों को बदलने का बारे में सोचने से बिमुख करता और यथास्थितिवादी सोच
को बढ़ावा देते हैं।
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