1928 में
समाज के बारे में लिखे गये मक्सिम गोर्की के कुछ विचार,
"पूँजीवादी समाज में कुल
मिलाकर मनुष्य अपनी अद्भुत सामर्थ्य को निरर्थक लक्ष्यों की प्रप्ति के लिये
बर्बाद करता है। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये उसे गली में हाथों बल चलना
पड़ता है, द्रुतगति के ऐसे रिकार्ड स्थापित करने पड़ते हैं जिनका कुछ कम या कुछ भी
व्यावहारिक मूल्य नहीं होता, एक ही वक्त में बीसियों के साथ शतरंज के मैच खेलने,
अद्भुत कलाबालियाँ खानी और काव्य-रचना के झूठे चमत्कार प्रदर्शित करने पड़ते हैं,
और साधारणतया हर प्रकार की ऐसी बेसिरपैर की हरकतें करनी पड़ती हैं जिन से उकताये
तथा ऊबे हुए लोगों को पुलकित किया जा सके।. . . . "
"मुक्ति का मार्ग आसान नहीं
है और अभी इसका समय नहीं आया है कि आदमी सारा जीवन सुन्दर कुमारियों की सुखद संगति
में चाय पीते या आइने के सामने स्वयं अपने रूप सर मुग्ध होने में बिताये, जिसके
लिये बहुतेरे नौजवानों का मन मचलता होगा। जीवन की ठोस हक़ीक़त इस बात की अधिकाधिक
पुष्टि कर रही है कि वर्तमान स्थिति में चैन का जीवन सम्भव नहीं, न तो एकाकी और न
किसी संगी के साथ ही जीवन सुखी होगा, कूपमण्डूकी खुशहाली स्थाई नहीं हो सकती
क्योंकि उस प्रकार की खुशहाली के आधार समस्त संसार में खत्म होते जा रहे हैं। इसका
विस्वासप्रद प्रमाण अनेक लक्षणों से मिलता है : समस्त संसार कूपमण्डूक झुंझलाहट, उदासी तथा
आतंक के चंगुल में है ; धनी कूपमण्डूक हताश होकर इस निरर्थक आशा से मनोरंजन का सहारा
ले रहा है कि इससे वह आने वाले कल के भय को दबा सकेगा, बिपथन और अपराध तथा
आत्महत्याओं का चक्र चल रहा है। पुरानी दुनिया अवश्य ही जानलेवा रोग से ग्रस्त
है और हमें उस संसार से शीघ्रातिशीघ्र पिण्ड छुड़ा लेना चाहिये ताकि उसकी विषैली
हवा कहीं हमें न लग जाये।"
मानव
और उसके श्रम पर,
"मेरे लिये मानव से परे
विचारों का कोई अस्तित्व नहीं है। मेरे नज़दीक मानव तथा एकमात्र मानव ही सभी
वस्तुओं और सभी विचारों का निर्माता है। चमत्कार वही करता है और वही प्रकृति की
सभी भावी शक्तियों का स्वामी है। हमारे इस संसार में जो कुछ अति सुन्दर है उनका
निर्माण मानव श्रम, और उसके कुशल हाथों ने किया है। हमारे सभी भाव और विचार श्रम
की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं और यह ऐसी बात है, जिसकी कला, विज्ञान तथा
प्रविधि का इतिहास पुष्टि करता है। विचार तथ्य के पीछे चलता है। मैं मानव को
इसलिये प्रणाम करता हूँ कि इस संसार में कोई ऐसी चीज़ नहीं दिखाई देती जे उसके
विवेक, उसकी कल्पनाशक्ति, उसके अनुमान का साकार रूप न हो।
"यदि "पावन" वस्तु की चर्चा आवश्यक ही
है, तो वह है अपने आप से मानव का असन्तोष, उसकी यह आकांक्षा कि वह जैसा है उससे
बेहतर बने। जिन्दगी की सारी ग़न्दगी के प्रति जिसे उसने स्वयं जन्म दिया है, उसकी
घ्रणा को मैं पवित्र मानता हूँ। ईष्या, धनलिप्सा, अपराध, रोग, युद्ध तथा संसार में
लोगों बीच शत्रुता का अन्त करने की उसकी इच्छा और उसके श्रम को पवित्र मानता हूँ।"
No comments:
Post a Comment