"Some Analysis and Quotations on Indian Society" by Rahul Sankrityayan

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# "साम्यवाद ही क्यों" by राहुल सांकृत्यायन (1893-1963), राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषण.
समस्याओं का सामना हमारे देश में दो प्रकार के आदमी करते हैं - एक तो वे जो धन की बदौलत आराम की ज़िन्दगी बसर करते हैं; और साम्यवाद के हौवे ने जिनकी अक्ल को रात-दिन परेशान कर रखा है| यदि इस श्रेणी के लोगों में कुछ उदारता है और वे अपने पास-पड़ोस की नंगी-गरीबी को थोड़ी देर ख्याल में लाने के लिए मजबूर होते हैं; तो वह साम्यवाद को असंभव और अवांछनीय कह कर टाल देते हैं| और जो "आप सुखी तो जग सुखी" मानने वाले हैं, उनसे तो अक्ल रखते भी इन बातों पर विचार करने की आशा ही नहीं रखनी चाहिए| हाँ, एक दूसरी श्रेणी के लोग जो हैं, वे परिस्थिति की भीषणता को समझते हैं और चाहते हैं की इसके लिए कुछ किया जाये| इनमें भी दो प्रकार के लोग हैं, एक तो यही साम्यवादी, जिनके दृष्टिकोण से यह पुस्तक लिखी गयी है, और दूसरे वह जो कहते हैं - "क्यों न हम इस शैतानी खुराफात यंत्रवाद को ही छोड़कर उस पुराने युग में चलें जहाँ इन यंत्रों का नाम न था| जिस वक़्त हर गाँव एक पूरा संसार था, जहाँ बढ़ई, लोहार, जुलाहा, किसान एवं स्वतंत्रापूर्वक हरे-हरे खेतों और शीतल उद्दानों से घिरे, प्रकृति की गोद में क्रीडा करते शांति और संतोष का जीवन बिताते थे, जब कि उनके पड़ोस के तपोवनों में ऋषियों और महात्माओं के प्रशांत आश्रम अपने आध्यात्मिक आनंद और प्रेम से मनुष्य तथा पशु-पक्षियों तक को आप्लावित करते थे| जिन यंत्रों के कारण हमारी वह सोने की दुनिया- वन सतयुग- छिन गया, हम फिर वहीँ चले चलें|"
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हाँ, आप कह सकते हैं- कुछ हम करेंगे, और कुछ भगवान् भी तो हमें सहायता देंगे? नहीं जनाब! आप स्वयं कुछ मत करें, भगवान् पर ही सबको छोड़ दें| ऐसा ही क्यूँ नहीं मन को समझा लेते कि साम्यवादी जो कुछ कर रहे हैं- वह भगवान् ही कर रहे हैं;
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हम मनुष्य-जाति की विकट समस्याओं पर काफी लिख चुके और यह भी दिखला चुके कि उनसे बचने का एक मात्र उपाय साम्यवाद है| सवाल होता है - क्या साम्यवाद संसार में अवश्य ही होकर रहेगा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर एकदम हाँ या नहीं में नहीं दिया जा सकता-(१) संसार के इतने भारी जन-समुदाय का बेकार हो भूखे मरना, (२) हर दसवें, बारहवें वर्ष बाज़ार का मन्दा पड़ जाना और उसके कारण एक ओर लोगों का भूखे मरना और दूसरी ओर लाखों मन खाद्य और दूसरे पदार्थों में आग लगाया जाना, (३) संसार के ऊपर सदा भयंकर आधुनिक प्रकार के युद्धों की नंगी तलवार का लटकते रहना, (४) पैतृक रोगों और मानसिक दुर्बलताओं को हटाकर बेहतर मानव-संतान पैदा करने के रास्ते में पग-पग पर बाधाओं का होना, (५) धनी-गरीब सबको ही भविष्य की अनिश्चित अवस्था से चिंतित रहना- यह और दूसरी भी ऐसी कितनी बातें हैं जिनको साम्यवाद ही हल कर सकता है| शताब्दियों से सुरक्षित अपने स्वार्थों कि रक्षा के लिए यद्दपि बलवान शक्तियाँ भी इसका विरोध कर रही हैं, तो भी उपर्युक्त समस्याएं मनगढ़त नहीं है| उनकी तीव्र वेदनाएं हर एक पुरुष को समय-समय पर बिच्छू के डंक की भाँति चुभती रही हैं. इसलिए मनुष्य को साम्यवाद का स्मरण बार-बार आना अनिवार्य ठहरा और इसी से मालूम होता है कि साम्यवाद संसार में फैलकर रहेगा|
तो भी पूंजीपतियों के पास धन की अपार शक्ति है, विद्या-बुद्धि है, धर्म और ईश्वर का जाल है| वे चुपचाप अपने स्वार्थों से दस्त-बरदार न होंगे| इसका प्राणपण से विरोध करेंगे- बुद्धि से भी, शस्त्र से भी| परन्तु उनका मतलब तभी पूरा हो सकता है यदि वह (१) कुछ देशों को हमेशा के लिए गुलाम बना सकें और इस प्रकार एक स्थायी बाज़ार उनके हाथ में हो, (२) यदि परतंत्र देशों के लिए पूंजीपति देशों में ऐसा समझौता हो जाय की वे उनके लिए परस्पर युद्ध न करें जिससे कि परतंत्र देश को कभी स्वतंत्र होने का मौका न मिले; और न उन्हें ही वैज्ञानिक युद्ध के कारण अपना सर्वनाश कर लेना पडे; (३) यदि जनवृद्धि और यन्त्र के कारण बेकार होने वाले लोगों को वे युद्ध या कत्लेआम द्वारा नष्ट कर सकें; (४) यदि मनुष्य की ज्ञान-पिपासा और मनन-अन्वेषण की प्रवृत्ति भूत की बात हो और स्वार्थी प्रभुओं के शासन के अन्त करने वाले वैज्ञानिक और विचारक फिर न उत्पन्न हो सकें; (५) यदि मनुष्य जाति में आदर्श के लिए प्राणों की बाजी लगानेवाले सत्पुरुषों का पैदा होना हमेशा के लिए बंद हो जाए ; तो हम कह सकते हैं कि साम्यवाद संसार में नहीं फ़ैल सकेगा?
हमने पक्ष और विपक्ष दोनों तरह के कारणों को रख दिया| उनके देखने से मालूम होगा कि साम्यवाद के विरोधी कारण, पक्ष वालों से कहीं अधिक असंभव हैं और इसलिए साम्यवाद जल्दी या देर से सफल होगा| पूंजीवादियों का सिद्धांत आदर्शवाद नहीं, स्वार्थ का वाद है; इसलिए वह यह प्रयत्न तो करेंगे कि साम्यवाद कभी आए ही नहीं; किन्तु वे इस पर भी संतोष करेंगे, यदि वह ज़िन्दगी भर के लिए टल जाए. दुनिया के उथल-पुथल में वे देखते हैं कि कितने ही धनियों के पुत्रों को मजदूरी करनी पड़ती है, तो भी वे अपने संतानों कि परवाह नहीं करते| उनके लिए अपनी ज़िन्दगी का सुख से कट जाना प्रथम ध्येय है| किन्तु साम्यवादी अपने सामने एक आदर्श रखते हैं और ऐसा आदर्श जिससे वे समझते हैं कि सिर्फ एक देश को ही नहीं, सारी मनुष्य जाति को चिरस्थायी शांति प्राप्त होगी| इसलिए यद्दपि देर होने पर भी वे अपने काम को छोड़ नहीं सकते, तो भी उस देर का होना न होना अधिकतर उनके ही उद्योग या सुस्ती पर निर्भर है| बिना प्रयत्न, बिना स्वार्थ-त्याग, बिना एकता के साम्यवाद अपने आप संसार में फ़ैल जायेगा, ऐसी आशा रखना साम्यवाद के कर्मंन्यतापूर्व सिद्धांत के बिलकुल विरुद्ध है|
साम्यवाद की सफलता चाहने वालों को यह भी जानना चाहिए की साम्यवाद के शत्रु कौन हैं; एक वे जो जन-बूझकर अपने स्वार्थ के लिए इनका विरोध करते हैं; दूसरे वे जो भ्रमपूर्ण धारणा और अज्ञान के कारण शत्रुवत आचरण करते हैं| पहली श्रेणी में- (१) पूंजीपति सर्वप्रथम हैं; (२) फिर उनके क्रीतदास, नौकर-चाकरों और धर्म के पुरोहितों का नंबर आता है; पूंजीपतियों के सहायक धर्म और ईश्वर साम्यवाद के विरोध के भयंकर अस्त्र हैं; (३) बूढे और नए विचारों पर सोच-विचार करने की शक्ति खो चुके दिमाग भी उसी तरह के विरोधी हैं|
दूसरी श्रेणी के शत्रुओं में - (१) अंधी भक्ति और श्रद्धा-तपस्या के प्रचारकों का नंबर पहले आता है; क्योंकि वे मनुष्य के स्वतंत्र विचार करने की शक्ति को बेकार कर देते हैं| (२) अंधी राष्ट्रीयता भी साम्यवाद के आंतरिक शत्रुओं में है, क्योंकि वह संसार के सभी श्रमजीवियों की एकता में बाधा ही नहीं डालती, बल्कि उन्हे आपस में शत्रुओं और बन्धु-हत्या के लिए तैयार करती है| राष्ट्रीयता का समर्थक होते हुए भी समाजवाद अंतर्राष्ट्रीय है| स्वदेशी समाजवाद का नारा सिर्फ दूसरों की आँखों में धूल झोंकने तथा अपनी नेतागिरी को कायम रखने के लिए है| (३) पुराणी बातों का बेसुरा राग अलापना भविष्य की दिन-पर-दिन होने वाली सार्वत्रिक प्रगति को भूत में खोजना या भूत की अपेक्षा उसे निकृष्ट समझना, बात-बात में पुरानी पुस्तकों और बातों की दुहाई देना - यह मानसिक दासता भी साम्यवाद के सूक्ष्म किन्तु बलिष्ठ शत्रुओं में हैं|
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शत्रुओं के बारे में कह कर यहाँ साम्यवाद के असली संस्थापकों और सहायकों के विषय में भी कह देना है| साम्यवाद शब्द में इस समय बहुत आकर्षण है, इसलिए कच्चे-पक्के सभी प्रकार के आदमी इस गिरोह में आना चाहते हैं| साम्यवादी आन्दोलन के पिछले सौ वर्ष के इतिहास को देखने से मालूम होगा कि उसको शत्रुओं कि अपेक्षा कच्चे अनुयाइयों से बहुत ज्यादा हानि पहुंची है| गत युद्ध के बाद तो ऐसे लोगों के कारण कुछ देशों में साम्यवाद कि निश्चित सफलता पीढ़ियों के लिए हट गयी| इसलिए हमें साम्यवाद के कच्चे और पक्के अनुयाइयों को पहचानना चाहिए|
साम्यवाद के शब्द से आकृष्ट होकर आने वाले लोगों कि कितनी ही तरुण संतानें भी हैं जिन्हे जवानी कि निष्पक्ष विचार-शक्ति दूसरे बंधनों के ढीला होने से उधर खींच लाती है| तो भी उस वक़्त उनका निश्चय कच्चा होता है और उनमें से कितने तो (१) फैशन के लिए उधर झुकते हैं, (२) कुछ के मन में झटपट नेता बनने का लोभ भी प्रेरक होता है, (३) कुछ के लिए यह बौद्धिक व्यायाम का काम देता है और इस प्रकार असल बात उनके मन के भीतर तक बैठने नहीं पाती| ऐसे लोग क्रियात्मक तौर से साम्यवाद से उतना योग नहीं दे सकते, क्योंकि (४) अपने धनी सम्बन्धियों और बंधुओं का ख्याल या मुलाहिजा उनके सरगर्मी से काम करने में बाधक होता है| (५) अपनी भारी आर्थिक हानि उन्हें बराबर आगे बढने से रोकती है, (६) शब्दों के पीछे झगड़ने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, क्योंकि ज़िन्दगी की असली कठिनाइयों का उन्हें बहुत काम अनुभव होता है, (७) स्वयं वैसा मौका न पड़ने से गरीबों के दुःख का ख्याल उन्हें कभी ही कभी और वह भी थोड़े समय के लिए आता है, (८) उनमें से बहुतों को साम्यवाद ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी का काम देता है, और जैसे ही उनका मतलब पूरा हुआ की वह उसे धता बताकर अलग हो जाते हैं|
धनिकों की तरुण संतानों जैसा तो नहीं, तो भी बुद्धजीवी तरुण साम्यवाद के पक्के सहायक होने की योग्यता नहीं रखते, क्योंकि साधारण श्रेणी में पैदा होने पर भी उन्हें बड़ा बनने का पूरा अवसर रहता है और बड़ा बन जाने पर वे आसानी से अपने पुराने आदर्श सहकर्मियों के साथ विश्वासघात या कृतघ्नता का बर्ताव करने से नहीं चूक सकते|
साम्यवाद के वास्तविक संस्थापक और समर्थक एवं श्रमजीवी-मजदूर और किसान ही हो सकतें हैं क्योंकि (१) उनकी हीन दशा, असहाय गरीबी उनके भीतर बार-बार उस पीड़ा को जगाती रहेगी| (२) वे इस युद्ध में निर्भयतापूर्वक पड़ सकते हैं, क्योंकि उनके पास हारने के लिए कुछ हैं ही नहीं| जीतने पर उन्हें हमेशा की स्वतंत्रता मिलेगी और हारने पर भी तो आगे युद्ध जारी करने का हमेशा के लिए हमेशा के लिए अवसर उनके हाथ से छिन नहीं जाता| (३) संख्या या कार्य के ख्याल से भी संसार के श्रमजीवी एक विशाल शक्ति हैं जिसका बोध होते ही वे पीछे हटने का नाम नहीं ले सकते| (४) धनी पूंजीपति श्रमिकों के बनाए हैं, अपनी शक्ति और समता का उपयोग कर वे उन्हें बिगाड़ सकते हैं|
ऐसा होने पर भी यह मतलब नहीं कि कच्चे अनुयायिओं का बहिष्कार करना चाहिए| बुद्धिजीविओं के सम्बन्ध में उपयुक्त ख्याल मन में रखना ही उनकी हनिकाराकता को हटाने के लिए काफी है| बुद्धजीवी एक समय सच्चे भाव के साथ आते हैं और कितने ही हमेशा के लिए रह भी जाते हैं| साथ ही साम्यवाद के लिए उनकी सेवाएं भी अनमोल हैं| तो भी समय-समय पर किये हुए विश्वासघातों को देखते हुए साम्यवादी आन्दोलन का असली आधार बुद्धजीवियों को न बनाना ही अच्छा है| इनका असली आधार श्रमिक वर्ग ही हो सकता है| दूसरी श्रेणी के लोगों में कितने ही समय पर निकलते और आते रहेंगे, तथा कार्यकर्ताओं से समाज खाली नहीं होने पायेगा और इस प्रकार साम्यवाद का युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक कि संसार में धनी-गरीब, शोषक-शोषित का भेद मिट न जाएगा| जब वर्ग-भेद रहित मानव-समाज कायम हो जायेगा, उस समय वर्तमान की कठिनाइयां ही दूर न हो जाएंगी, बल्कि उसकी अनेक प्रकार कि चिंताओं और अव्यवस्थाओं के दूर हो जाने से मानव-जीवन अधिक शांतिमय, सुखमय और संतोषमय होगा और प्राकृतिक आपदाओं के आने पर अधिक तैयारी-मुस्तैदी, संयम और धैर्य के साथ उनका मुकाबला किया जा सकेगा| मनुष्य का मनुष्य के साथ बर्ताव भी उस समय अधिक प्रेम, सहानुभूति और समानतापूर्ण तथा दिखावट शून्य होगा.



# Historical Story Book "वोल्गा से गंगा" by राहुल संक्रत्यायन (1893-1963)
A great book with historical analysis fro Europe to India and merging of Arya and Asur in India and development of culture from 6000 BC to 1942, with a proletariat world view of the society.




# "दिमागी गुलामी" by राहुल संक्रत्यायन (1893-1963), A Book about political and social Culture.

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