Sunday, April 30, 2017

देश में बड़ती गरीब-अमीर की खाई और लोगों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने के कारण

हमारा उत्तरदायित्व है कि हम मौज़ूदा पीड़ियों को टकराव में टूट कर बिखरने से और मानवीय रूप से विकृत होने या उनके द्वारा नई पीड़ियों को विकृत करने से बचायें।
– चे ग्वेरा, लेटिन अमेरिका के महान क्रान्तिकारी
एक संस्था (Business and Sustainable Development Commission, Hindustan Times, 29 April 2017) की रिपोर्ट के अनुसार देश में मौज़ूद कुल सम्पत्ति का 53 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 प्रतिशत अमीरों को पास केन्द्रित है और लूट के दम पर यह खाई लगातार बढ़ रही है। दूसरी ओर देश की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में नियमित रोज़गार के मौके लगातार कम हो रहे हैं। हर क्षेत्र में ठेकाकरण अपने चरम पर है। काम की तलास करने वाले करोड़ों नौजवानों को काम के कोई विकल्प नहीं मिल रहे है और बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ रही है (HT, 6 Feb 2017)। बेरोज़गारी बढ़ने के साथ काम करने वालों की काम की परिस्थितियाँ और भी बदतर होती जा रही हैं। आज करोड़ों ऐसे लोग हैं जिनके पास रोज़गार का कोई विकल्प नहीं है।
लूट पर टिकी मुनाफ़ा केन्द्रति व्यवस्था के आन्तरिक अन्तर्विरोध मुख़र हो रहे हैं। और आब, आज़ादी के 70 साल बाद यह साबित हो चुका है कि देश की पिछड़ी पूँजीवादी व्यवस्था देश की व्यापक आबादी की आवश्यकता पूरी करने और उन्हें सम्माननीय जीवनस्तर मुहैया करने में विफल हो चुकी है, और जनता को अपने सामने हाल-फिलहाल कोई विकल्प नहीं दिख रहा हैं। देश में ग़रीब-अमीर की खाई अपने चरम पर पहुँचने रही। ऐसे में आज कल जो हो रहा है उसे समझा जा सकता है। जब व्यवस्था के अन्तरविरोध तीखे होने लगते हैं तो कई ऐसे नारे दिये जाते हैं जो जनता के बीच उनकी बदहाल-बेहाल परिस्थितियों के लिये जिम्मेदार एक काल्पनिक दुश्मन दिखाकर लोगों को आपस में लड़ाने और उसके समाधार के रूप में फासीवाद का विकल्प पूरे ज़ोर से प्रचारित करते हैं। इस प्रचार के माध्यम में समाज के कुँठित-बीमार नौजवानों और प्रबुद्ध नागरिकों को भीड़-मानशिकता बनाकर उन्हें आपस में लड़ने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। इसके क्लासिक उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं, जिनमे हिटलरकाल की फासिस्ट जर्मनी सबसे सटीक उदाहरण है, नाजी पार्टी में जर्मनों को यह विश्वास दिला दिया था कि 1929 की पूँजीवादी महा-आर्थिक मंदी उनकी बर्बादी का कारण नहीं है बल्कि दुनिया के याहूदी उसकी सभी समस्याओं का जिम्मेदार है।
आज जीवन की परिस्थितियों से हताश और कुंठा के शिकार लोगों का एक बड़ा तबका फासिस्टों की कतारों में जुड़ रहा है। वैचारिक और व्यवहारिक दोनों रूपों में। यह वो लोग हैं जो अत्यंत असंवेदशीन हैं, आत्मकेन्द्रित हैं और अपनी बदतर परिस्थितियों के प्रति विद्रोह की भावना नहीं रखते बल्कि हीनभावना से ग्रस्त जी रहे हैं। ये लोग अपनी कुंठा और हीनभावना को छुपाने के लिये एक काल्पनिक दुश्मन की तलाश करते हैं, और फिर उसका विरोध करना शुरू कर देते हैं। ये लोग किसी वाद-विवाद में विचारों की आलोचना करने या सुनने की सहनशक्ति नहीं रखते बल्कि बहस को विचारों से भटकाक व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप पर ले जाते हैं और इसमें अपनी आत्मतुष्टि ढूँढ़ते हैं। पीले चेहरे वाले यही लोग, आज पूरी दुनिया में बढ़ रहे कट्टरपन्थी धार्मिक उन्माद, नस्ल-भेदी, जाति-भेदी हिंसा भड़काने वाले फासिस्टों के प्यादे बनाये जा रहे हैं।
इतिहास के उदाहरण हमारे सामने हैं जब ऐसी परिस्थिति से निपटने के लिये समाज के संवेदनशील, विचारशील, प्रगतिशील, क्रान्तिकारी नौजवानों और नागरिकों के सामने एकमात्र विकल्प होता है कि वह समाज के एकमात्र प्रगतिशील वर्ग, मेहनतकश आवाम, के सामने एक क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करे और एक संवेदनशील समाज बनाने के लिये उन्हें संगठित करें। साथ ही नौजवानों के बीच पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी प्रगतिशील विचारों को पहुँचाना अत्यंत ज़रूरी हो जाता है।

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