Published in : आह्वान पत्रिका (https://ahwanmag.com/archives/8288)
भारत के उद्योगपति आजकल सपना देख रहे हैं कि उसके मज़दूर बिना छुट्टी, बिना आराम किये हर हफ़्ते 90 घण्टे काम करते रहें। कुछ दिनों पहले इन्फोसिस के मालिक नारायणमूर्ति ने बयान दिया कि आईटी कम्पनियों में पाँच दिन के साप्ताहिक काम के निर्णय से उन्हें काफ़ी निराशा हुई थी और यदि उनकी बात मानी जाये तो मज़दूरों को देश की आर्थिक तरक्की के लिये हर हफ़्ते 70 घण्टे काम करना चाहिये। ओला कम्पनी का मालिक भावेश दो क़दम आगे बढ़कर मूर्ति के बयान का समर्थन करते हुए वर्तमान उद्योगपतियों की इच्छा को और भी स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। उसका मानना है कि मज़दूरों को 140 घण्टे काम करना चाहिये और उन्हें कोई छुट्टी मिलनी ही नहीं चाहिये। इनके सुर में सुर मिलाते हुए लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन एस. एन. सुब्रह्मण्यन का कहना है कि वह कर्मचारियों से सप्ताह में 90 घण्टे सातों दिन काम करवाना चाहते हैं। देश के कई राज्यों की सरकारों ने इस दिशा में क़ानून बनाने के प्रयास भी शुरु कर दिये हैं। इन उद्योगपतियों के अनुसार मज़दूरों को छुट्टी की क्या ज़रूरत है और अपने घर पर अपने बीबी-बच्चों, परिवार के साथ समय बिताकर वे क्या हासिल करते हैं, उन्हें “देश के निर्माण” के नाम पर इन उद्योगपतियों का बेहिसाब मुनाफ़ा बढ़ाने में अपने समय का बलिदान करना चाहिये। 90 घण्टे काम करने की माँग करने वाले ये उद्योगपति यह नहीं बताते कि देश के श्रम क़ानूनों के अनुसार यदि कोई मज़दूर 48 घण्टे से ज़्यादा काम करता है तो उसे हर घण्टे के हिसाब से दोगुना वेतन मिलना चाहिये।
यही वजह है कि लगातार बयान देकर लोगों को एहसास कराया जा रहा है कि देश की तरक़्क़ी इसलिये नहीं हो रही क्योंकि मज़दूर कम काम करते हैं। लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। गुड़गाँव में काम करने वाले मज़दूरों की हालत की सर्वे रिपोर्ट देखें तो इन इलाक़ों में रहने वाले मज़दूर आटोमोबाइल और टेक्सटाइल जैसे कई क्षेत्रों में ठेके पर, बिना किसी स्थायी नौकरी के, बिना सामाजिक सुरक्षा के सप्ताह के सातों दिन 14 से 18 घण्टे काम करते हैं, जिसके बदले में उन्हे 10 से 18 हज़ार मज़दूरी मिलती है। यह मेहनतकश, जो उत्पादन की नींव हैं, वे 14-18 घण्टे काम करने के बाद 6 से 10 घण्टे के लिये 10X10 फ़ीट के कमरे में आराम करने के लिये आते हैं, ताकि अगले दिन फिर 18 घण्टे के काम पर जा सकें।
आगे बढ़ने से पहले एक नज़र देश के कॉरपोरेट क्षेत्र में काम करने वाले सफ़ेदपोश कर्मचारियों की स्थिति पर भी डाल लेते हैं। भारत के आईटी क्षेत्र में 2023 से 2024 बीच नौकरियों में जुड़े नये कर्मचारियों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई, बल्कि कई क्षेत्रों में वेतन कम हो गया है। 2024 में कुल 15 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट कामगारों की क़तारों में जुड़ें जिनमें से 1.5 लाख को ही काम मिल सका, यानि देश का आईटी सेक्टर 90% नौजवानों को नौकरी नहीं दे पाता। लेकिन इसी बीच इन कम्पनियो के सीईओ का वेतन 2012 से 2022 के बीच औसतन 835% की दर से बढ़ा है, और 3.37 करोड़ से 31.5 करोड़ हो गया, जबकि नये कर्मचारियों के वेतन में इस दौरान सिर्फ़ 42% बढ़ोत्तरी हुई जो 2012 में 2.45 लाख की तुलना में 2022 में 3.55 लाख सालाना है। इसका अर्थ है कि इन कम्पनियों में सीईओ का वेतन कर्मचारियों के वेतन से 870 गुना अधिक है और 10 साल में बढ़ोत्तरी 20 गुना ज़्यादा हुई है। मज़दूरों की बदहाली के समुद्र में बसे सफ़ोदपोश नौकरी करने वाले मध्यवर्ग की अय्याशी के टापू अब धीरे-धीरे डूबने लगे हैं।
लगातार काम करने का परिणाम कम मज़दूरी और श्रम अधिकारों का उल्लंघन तो होता ही है बल्कि मौज़ूदा शत्रुतापूर्ण (hostile) उत्पादन व्यवस्था में मज़दूरों के लिये उनके मानवीय अस्तित्व को बनाये रखने का भी सवाल पैदा करता है। 2021 की विश्व स्वास्थ संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार लम्बे समय तक काम करने से पूरी दुनिया में साल 2000 से 2016 के बीच हृदय रोगों से होने वाली मौतों में 42 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें वे लोग शामिल हैं जो हर सप्ताह 55 घण्टों से ज़्यादा काम करते हैं। आई.एल.ओ. की रिपोर्ट के मुताबिक काम के घण्टों के मामले में सबसे ज़्यादा काम करवाने वाले देशों की सूची में भारत 13वें स्थान पर है। देश की 51 प्रतिशत आबादी 49 घण्टे सप्ताह काम करती है जो काम के घण्टों के मामले में दुनिया में दूसरे नम्बर पर है। जबकि 2024 के आँकड़े देखें तो प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया में 141वे पायदान पर है।
वहीं ग्लोबल हंगर इण्डेक्स के आँकड़ों के आधार पर भारत 122 देशों में 111वें स्थान पर है। पूरी दुनिया की तुलना में भारत में सबसे अधिक बच्चे (18.7 प्रतिशत) कुपोषण के शिकार है। विश्व बैंक के अनुसार दक्षिण एशिया में 39 करोड़ लोग ग़रीबी में जी रहे हैं, जिनका 40 फ़ीसदी अकेले भारत में मौज़ूद है। जनता की ऐसी बदहाल स्थिति के बीच 2019 में सरकार ने मौज़ूदा कम्पनियों का कॉरपोरेट टैक्स घटाकर 30% से 22% कर दिया, और नयी कम्पनियों का कॉरपोरेट टैक्स 25% से घटाकर 15% कर दिया। जिसका नतीज़ा है कि 2024-25 में कॉरपोरेट कर का हिस्सा जीएसटी (26.65%) और आयकर (30.91%) से भी कम (सिर्फ 26.5 फ़ीसदी) रहने वाला है। जिससे देश को 1 लाख करोड़ का राजस्व घाटा होगा, यानि 1 लाख करोड़ रुपया जनता से छीन कर कॉरपोरेट को बाँट दिया गया। इन बदलावों से पिछले चार साल में कॉरपोरेट के मुनाफ़े में चार गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। 2024 में भारत अरबपतियों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुँच चुका है, जिनकी सम्पत्ति में पिछले एक साल में 42 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान मज़दूरों के वेतन और उनके जीवन स्तर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई और न ही नये रोज़गार पैदा हुए। आज देश की 94 फ़ीसदी आबादी के पास कोई स्थायी नौकरी नहीं है, 40 फ़ीसदी काम करने वालों की महीने भर की कुल कमाई 6 हज़ार से भी कम है, और 50 फ़ीसदी की आबादी की आमदनी 15 हज़ार महीना से कम है। वहीं सरकारी नीतियो से खुली लूट के दम पर देश की एक प्रतिशत आबादी के पास देश की 40 फ़ीसदी सम्पत्ति केन्द्रित हो चुकी है और 2022-23 में देश की राष्ट्रीय आमदनी का 22 फ़ीसदी से अधिक हिस्सा देश के ऊपरे के एक प्रतिशत लोगों की जेब में चला गया। आज आज़ाद भारत में असमानता की खाई ब्रिटिश शासन काल से भी अधिक चौड़ी हो चुकी है, और यह दुनिया के किसी भी और देश से ज़्यादा है।
| भारत में आय असमानता 2022-23 | |||||
| आय वर्ग | वयस्कों की संख्या | आय में हिस्सा (%) | आय सीमा (रुपये में) | औसत आय (रुपये में) | औसत से अनुपात |
| औसत | 92,23,44,832 | 100 | 0 | 2,34,551 | 1.0 |
| नीचे की 50% | 46,11,72,416 | 15 | 0 | 71,163 | 0.3 |
| मध्यवर्ती 40% | 36,89,37,933 | 27.3 | 1,05,413 | 1,65,273 | 0.7 |
| ऊपर की 10% | 9,22,34,483 | 57.7 | 2,90,848 | 13,52,985 | 5.8 |
| ऊपर की 1% | 92,23,448 | 22.6 | 20,73,846 | 53,00,549 | 22.6 |
| ऊपर की 0.1% | 9,22,345 | 9.6 | 82,20,379 | 2,24,58,442 | 95.8 |
| ऊपर की 0.01% | 92,234 | 4.3 | 3,46,06,044 | 10,18,14,669 | 434.1 |
| ऊपर की 0.001% | 9,223 | 2.1 | 20,01,98,548 | 48,51,96,875 | 2068.6 |
एक तरफ पूरी दुनिया के उद्योगपति और टेक्निकल मीडिया वाले प्रचार कर रहे हैं कि ए.आई., यानि आर्टीफ़िशियल इण्टेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता), के प्रचलन में आने के बाद आटोमेशन के क्षेत्र में नये स्तर की तरक़्क़ी हो रही है और आने वाले समय में काम करने वाले कर्मचारियों की काफ़ी कम संख्या की आवश्यकता होगी। यदि यह सच है तो नारायणमूर्ति या सुब्रह्मण्यन जैसे उद्योगपति 90 घण्टे काम करवाने की वकालत क्यों कर रहे हैं, वे ऐसा क्यों सोच रहे हैं कि उनकी कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर हर दिन बिना छुट्टी के, परिवार से अलग-थलग रहकर हर दिन 13 घण्टे काम में लगे रहें। इसे समझना इतना कठिन नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो पूँजीवादी उत्पादन में मशीनों, उपकरणों या ए.आई. जैसे टूल्स का उपयोग श्रम की उत्पादकता को बढ़ा तो देते है, जिससे पूरे समाज के जीवन स्तर में उन्नति होती है, लेकिन यह मुनाफ़े का स्रोत नहीं होते। सामाजिक उत्पादन में मुनाफ़े का स्रोत मज़दूरों द्वारा उत्पादन में लगाया गया अतिरिक्त श्रम होता है। यानि मज़दूर जितना ज़्यादा देर तक काम करेंगे वे उतना ही अतिरिक्त उत्पादन करेंगे और उतना ही ज़्यादा मुनाफ़ा बढ़ेगा। पूँजीवादी उत्पादन में पैदा होने वाला सारा मुनाफ़ा मज़दूरों के श्रम के शोषण से पैदा होता है या कहा जाये कि मुनाफ़ा मज़दूरों के उस श्रम से पैदा होता है जिसे पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में पूँजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है।
यदि सरल शब्दों में समझें तो उत्पादकता की वर्तमान अवस्था में यदि एक व्यक्ति किसी कम्पनी में 8 घण्टे काम करता है तो वह अपने वेतन के मूल्य के बराबर उत्पादन 2-3 घण्टे में ही कर लेता है और बचे हुए 5-10 घण्टे वह कम्पनी के मालिकों के मुनाफ़े के लिये काम करता है। यही कारण है कि आज भारत के उद्योगों के मालिक यह खुलकर बोल रहे हैं कि मज़दूरों को हर हफ्ते 90 घण्टे काम करना चाहिये जिससे पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा किया जा सके।
वास्तव में दुनिया के तमाम देशों में लागू आठ घण्टे काम का नियम वहाँ के शासक वर्गों की सदिच्छा या पूँजीपतियों की नेकनीयती के कारण नहीं, बल्कि मज़दूरों के संघर्षों के कारण लागू हुए। इनमें प्रमुख हैं – 1886 में शिकागो के मज़दूरो का 8 घण्टे काम, 8 घण्टे आराम और 8 घण्टे मनोरंजन के लिये संघर्ष का इतिहास, जिसे मई दिवस के रूप में आज भी पूरी दुनिया के मज़दूर याद करते हैं, और 1917 की रूस की समाजवादी क्रान्ति जिसके बाद निजी उत्पादन का पूरी तरह से सामाजीकरण कर दिया गया। एक सदी से भी पहले मज़दूरों की माँग थी कि 8 घण्टे काम के बदले में मज़दूरों को इतना वेतन मिलना चाहिये जिससे कि वे अपने परिवार को एक सम्माननीय जीवन स्तर दे सकें। इन ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव पूरी दुनिया के मज़दूरों के जीवन स्तर पर पड़ा।
बढ़ती उत्पादकता का लोगों के जीवन स्तर पर कैसे सकारात्मक असर होगा इसके कुछ उदाहरण देखें तो जिन देशों में राज्यसत्त्ता पर पूँजीपति वर्ग से साथ मज़दूरों के संगठन भी अपना प्रभाव रखते हैं वहाँ काम के घण्टों को कम करने की क़वायद चल रही है। जैसे आस्ट्रेलिया, जापान, स्पेन, यूके जैसे कई देशों में हर सप्ताह 30 घण्टे और चार दिन काम के प्रयोग किये जा रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकसित साम्राज्यवादी देश अपनी पूँजी वहाँ निवेश कर रहे हैं जहाँ सबसे सस्ता श्रम मौज़ूद हो। यदि भारत के मज़दूर सप्ताह में 70-90 घण्टे काम करते हैं तो इनके अतिरिक्त श्रम के शोषण से पैदा होने वाले मुनाफ़े के दम पर अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी देश अपने मज़दूरों को कम घण्टे काम करने के बाद भी अच्छा वेतन देते है।
कल्पना कीजिये कि यदि समाज के लिये आवश्यक उत्पादन के लिये ज़रूरी आवश्यक श्रमकाल 2 घण्टे हो और काम करने लायक हर एक व्यक्ति को समाज की आवश्यकता को पूरा करने लिये उत्पादन के काम पर लगाया जाये हो तो हर व्यक्ति को सिर्फ 2 घण्टे काम करने की ज़रूरत पड़ेगी। बचे हुए समय में लोगों को स्वतन्त्रता मिलेगी कि वे अपनी इच्छा के अनुरूप कोई भी काम कर सकें। लोगों का बचा हुआ समय समाज में कई प्रकार के शैक्षिक फोरम बनाने के लिये प्रेरणा का काम करेगा जो कला-साहित्य की कार्यशालाओं और विज्ञान व अनुसन्धान के अध्ययन मण्डल जैसी अनेक जन संस्थाओं को जन्म देगा। पूँजीवाद में भी ऐसे शैक्षिक फोरम मौज़ूद हैं, लेकिन यह समाज के एक अत्यन्त छोटे हिस्से तक सीमित हैं, जहाँ समाज की 90 फ़ीसदी मेहनत करने वाली जनता और उनके बच्चों के लिये कोई स्थान नहीं होता। क्योंकि आज ज्ञान भी एक माल बना दिया गया है, जिसके पास सम्पत्ति है वही उसे ख़रीद सकता है। सोचिये यदि ज्ञान समाज के हर व्यक्ति के लिये उपलब्ध हो तो इस प्रकार के समाज में आने वाली नयी पीढ़ी को अपने मानसिक और शारीरिक विकास के लिये कितना उन्नत सामाजिक ढाँचा मिलेगा और वह कितने अनुसन्धान करने में सक्षम होगी। इसकी कल्पना करना इतना कठिन भी नहीं हैं, क्योंकि आइंस्टीन ने अपना महान सापेक्षता का सिद्धान्त एक क्लर्क की नौकरी करते हुए खोजा था। समाज के ढाँचे में आमूलगामी बदलाव से कितने मस्तिष्क पूँजीवादी ग़ुलामी से मुक्त होकर अनेक आइंस्टीन, मोजार्ट या विथोवन या न्यूटन, आर्यभट्ठ को जन्म देंगे। जो आज-कल की होस्टाइल पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के बाद अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरे करने में ही अपना पूरा जीवन खपा देते हैं। ये नयी पीढ़ियाँ कितने ही आविष्कार करने में सक्षम होंगी जिससे उत्पादकता को उन्नत से उन्नतर स्तर तक ले जाया जा सके और समाज के लिये आवश्यक श्रमकाल को एक घण्टे से भी कर किया जा सके। सोचिये कि एक श्रमिक, 1 से 2 घण्टा ए.आई. से लैस अत्याधुनिक फ़ैक्ट्री में सामाजिक उत्पादन के लिये शारीरिक श्रम करता है और फिर बचे हुये 21-22 घण्टों में विज्ञान मण्डलों मे, अध्य्यन सर्किल और फोरमों में अपना योगदान देता है, जो कि उसके शौक़ का हिस्सा बन चुका होगा, तो ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझने में, चिकित्सा और विज्ञान की उन्नति का स्तर कहाँ तक उठाया जा सकता है।
जब लोगों में यह विश्वास पैदा होगा, यह भावना होगी कि वे समाज के विकास के लिये काम कर रहे हैं, न कि किसी व्यक्ति के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिये, तो यह अन्ततः नये उत्पादन पद्धतियों, नये रिसर्च के लिये लोगों को व्यक्तिगत रूप से प्रोत्साहित करेगा, इसने कई उदाहरण इतिहास में सोवियत यूनियन में 1917 से 1950 के बीच, चीन में 1950 से 1976 के बीच देखे जा सकते हैं। यह एक अलग से विमर्श का विषय है।
आज सोचने का मुद्दा यह है कि क्या हम एक ऐसा भविष्य चाहते हैं जहाँ नारायणमूर्ति, सुब्रह्मण्यन या भावेश लैसे पूँजीवादी मुनाफ़ाजीवी आपकी आने वाली पीढियों को अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिये एक रोबोट की तरह 90 घण्टे हफ्ते काम में धकेल दें या फिर एक ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज व राज्यसत्ता हर एक व्यक्ति को एक ऐसा परिवेश प्रदान करे जहाँ समाज की आवश्यकताओ के लिये हर व्यक्ति हफ्ते में 10 से 15 घण्टे काम करने के बाद बचे हुए समय में अपनी रुचि के अनुरूप विज्ञान, कला, साहित्य और चिकित्सा के क्षेत्रों में अपना योगदान करने के स्वेच्छा से प्रोत्साहित हो और जहाँ जनता को जीवन के लिये आवश्यक हर चीज, जैसे शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि को मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्यसत्ता की हो।
अन्त में एक बार सोचिये कि देश निर्माण के इतने सारे महत्वपूर्ण मुद्दे छोड़ कर सरकार मन्दिर-मस्ज़िद के गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रही है, क्यों गोदी मीडिया हर पल हिन्दू-मुसलमान को मुद्दा बनाने की कोशिश में लगा रहता है और क्यों कोई भी धर्मगुरू मेहनतकश जनता की बदहाली को दूर करने या समाज में लगातार चौड़ी हो रही असमानता की खाई को खत्म करने की बात नहीं करते। यह समझना इतना कठिन नहीं है। अगली बार जब कोई आपसे धर्म की बात करे तो उसे ऊपर वर्णित आँकड़ें दिखाये जाने चाहिये और पूछना चाहिये कि इसके लिये वह क्या करना चाहेगा।