सोवियत यूनियन में
महान समाजवादी निर्माण के दौर में आस्त्रोविश्की अथक मेहनत करते हुये अपनी बीमारी
के कारण विस्तर से उठ भी नहीं सकते थे उस समय कुछ और न कर पाने की स्थिति में अग्नि-दीक्षा
उपन्यास लिख रहे है। आस्त्रोविश्की (29 Sep 1904 – 22 Dec
1936) (Nikolai
Astrovishki) के शब्दों में,
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“मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ – बैलों की तरह हस्ट-पुस्ट मगर
मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्डा खून बहता है – निद्राग्रस्त, उदासीन, शिथिल,
ऊबे हुए। उनकी बातों से कब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घ्रणा करता हूँ।
मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्वस्थ और तगड़े लोग, आज के उत्तेजनापूर्ण ज़माने
में ऊब सकते हैं।...”
“कई लोग हैं जो केवल जिन्दाभर रहने से ही सन्तुष्ट
हैं, केवल यही चाहते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा देर तक जिन्दगी से चिपके रहें, और
अपनी यथार्थ स्थिति पर आंखें मूँदे रहें।“
“कुछ वर्ष पहले एसी स्थिति को सहन करने मेरे लिये
आसान था। उस समय मैं भी उसे उसी तरह झेलता जैसे अधिकांश लोग झेलते हैं। पर अब
स्थिति बदल गई है।”
“Man's dearest possession is life. It is
given to him but once, and he must live it so as to feel no torturing regrets
for wasted years, never know the burning shame of a mean and petty past; so
live that, dying he might say: all my life, all my strength were given to the
finest cause in all the world- the fight for the Liberation of Mankind.”