“दर्शन मानव मुक्ति का मस्तिष्क है और
सर्वहारा वर्ग उसका हृदय। सर्वहारा वर्ग का उन्मूलन किये बिना दर्शन को एक
वास्तविकाता नहीं बनाया जा सकता और दर्शन को एक वास्तविकता बनाये बिना सर्वहारा का
उन्मूलन नहीं किया जा सकता।”
- कार्ल मार्क्स
अभी कुछ दिनों पहले एक पोस्ट पर कुछ
लोगों ने संदेह करते हुए उसमें लिखी कुछ बातों के श्रोत माँगे थे। इस लेख में मूल रूप से हिन्दू समाज के
लोगों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर किये
जाने वाले कर्मकाण्डों की आलोचना की गई थी (मूल लेख देखें)। इसी बीच महाराष्ट्र में अन्धविश्वास के विरुद्ध जागरुकता का प्रचार
करने वाले डा. दाभोलकर की कुछ गुण्डों द्वारा हत्या कर दी गई, फिर कुछ समय बाद आसाराम
के विरुद्ध तंत्र-मंत्र के नाम पर एक बच्ची
का योन शोषण करने की खबर लोगों के सामने आ चुकी है, और इस बीच चौरासी कोसी यात्रा
के नाम पर देश के “हिन्दू
साधुओं” और उसका विरोध करने वालों “मुसलमान के मसीहाओं” ने अपनी-अपनी चुनावी राजनीति के लिये
वोट भी पक्के कर लिये हैं।
लोगों द्वारा बिना किसी जानकारी के लकीर
का फकीर बनकर किये जाने
वाले व्यक्तिगत कर्मकाण्ड प्रत्यक्ष रूप
से उतने खतरनाक नहीं हैं,
जितने कि “धर्मगुरुओं” द्वारा धर्म के नाम राजनीतिक प्रचार करना और लोगों में अन्धविश्वास फैलाना। यही धार्मिक विचार जब अपराधी किस्म के
लोगों के हाथ लग जाते हैं, तो जनता के अन्धविश्वास का फायदा किस तरह उठाया जाता है
यह लगातार सामने आ रहा है (देखें श्रोत 5)।
धार्मिक कर्मकाण्डों की उत्पत्ति और यदि
भाववादी दर्शन के इतिहास को देखें तो
जब मनुष्यों को
प्रकृति के बारे में कोई जानकारी नहीं
थी तब वे प्राकृतिक घटनाओं को किसी पराभौतिक शक्ति का रूप मानते थे और उसी
प्रक्रिया में भूत-प्रेत-चमत्कार-झाड़-फूँक जैसी अन्धविश्वास की मान्यतायें भी पैदा हुई।
तब मनुष्य को प्रकृति के नियमों का कोई ज्ञान नहीं था। इसलिये सभी धर्मग्रन्थों
में लिखी बातों को उस दौर के आधार पर देखें तो इन प्राचीन धर्म ग्रन्थों को साहित्यिक
तथा ऐतिहासक रचना के रूप में समझना चाहिये जो हमें उस दौर के मानव समाज की अवस्था
और उनकी समझ की कुछ झलक प्रस्तुत करते हैं। नहीं तो भक्ति भाव से, विवेक को खूँटे
पर टागने के बाद धर्म ग्रन्थों को पढ़ने की जो धारणा समाज में लोगों के बीच विकसित
की जाती है वह उसका पूरा फायदा लोगों को धर्म के नाम पर मूर्ख बनाकर राजनीति करने
वाले उठाते हैं और वर्गों में बंटे समाज में शासक वर्गों के हितो की रक्षा करते
हैं।
धर्म भाववादी दर्शन से जुड़ा हुआ है। भाववावी दर्शन (Idealism) का मूल सिद्धान्त है विचार को प्रधान मानना और भौतिक
संसार को काल्पनिक। यानि समाज की व्यापक जनता की बर्बादी, समाज के कुछ परजीवी
हिस्सों द्वारा मेहनतकश लोगों का शोषण, पशुओं की तरह काम करने के बाद भी ज़्यादातर
लोगों को आराम की जिन्दगी न मिलना, यह सब काल्पनिक है या उनके पुराने जन्म के
कर्मों का फल है!!
इसी लिए समाज के खाये-अघाये लोगों में इस दर्शन के समर्थक बहुतायत में मिलते हैं,
और इन्ही वर्गों के कारण यह दर्शन आज तक फल-फूल रहा है। इसका दोहरा फायदा शोषक
वर्ग उठाते रहे हैं और आज भी उठा रहे हैं। पहला, समाज का जो तबका (इसमें आज कल के
धर्म गुरू भी आते हैं) जनता की मेहनत पर अय्यासी कर रहा है और बिना किसी शारीरिक
श्रम के सारी सुख सुविधाओं का उपभोग कर रहा है वह अपना पेट भरने के बाद, ए.सी. कमरे
में लम्बी तान कर सोने से पहले सोचता है कि यह दुनिया तो “मिथ्या” है, और सब भगवान की “माया” है!! वहीं दूसरी ओर समाज का जो तबका सारी
मेहनत से हर चीज का निर्माण करने के बावज़ूद एक कमरे में पाँच-सात लोगों के साथ
जानवरों की तरह रहने के लिये मज़बूर हैं उसे धार्म के नाम पर यह विश्वास दिला दिया
जाता है कि उसके सारे दुख उसके कर्मों का फल हैं, और हर वस्तु और घटना उसके “मन का भ्रम” है, यह दुनिया तो “काल्पनिक” है, इसलिये उसे किसी परमात्मा की भक्ति
में तल्लीन रहकर अपने हर दुखों को सहन करना चाहिये!! इन दोनों दृश्टिकोणों का प्रत्यक्ष
फायदा समाज के शोषक हिस्से को होता है और जनता को बर्बादी में ढकेलने वाली अपने हर
नीच काम को धर्म के लबादे से ढंकने की कोशिश करता है।
यहाँ पर भाववादी दर्शन और भौतिकवादी
दर्शन के सैद्धान्तिक मतभेदों पर बहस करने का कोई उपयोग नहीं होगा। लेकिन एक बाद जो इतिहास नें सिद्ध की है वह यह है
कि जबसे समाज शोषक और शोषित वर्गों में विभाजित हुआ है तबसे दुनिया को देखने का भाववादी दृष्टिकोण और इसे मानने वाले
लोगों का फायदा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शोषक वर्गों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिये उठाया गया हैं (देखें श्रोत 1)।
प्राचीन योगियों और मुनियों के “ब्रह्मज्ञान” (यानि सारे संसार का ज्ञान..) और उनकी “वैज्ञानिक सोच” की कई बातें हमें
कुछ हिन्दू धर्म का समर्थन करने वाले लोगों से सुनने को मिलती हैं। लेकिन उस दैर
की वैज्ञानिक समझ और “ब्रह्मज्ञान” की सीमा के प्रमाण हमें धर्म ग्रन्थों से ही मिल जाते हैं। इसका एक
सबसे अच्छा उदाहरण है, हिन्दू पंचान्ग और “ब्रह्मज्ञान” रखने वाले लोगों की खगोलीय समझ। एक लम्बे दौर में हिन्दू पन्चांग का विकसित
हुआ। इसके विश्लेषण के आधार पर हमें उस दौर के “खगोगशास्त्रियों” (आज यह शब्द प्रचिलित है!!) की दुनिया के बारे में जो समझ थी उसकी एक झलक मिल जाती है। तीसरी
शताब्दी बी.सी. तक पहुँचते-पहुँचते हिन्दू पंचान्ग का निर्माण चन्द्रमा और सूरज की
गति (यहाँ सूरज की गति पर ध्यान देना होगा!!) के आधार पर किया जा चुका था। इसमें माना गया था कि सुबह उगते समय
सूरज कि गति तेज होती है जो धीरे-धीरे ऊपर उठने के साथ कम होती जाती है और जब यह ढलता है तो इसकी गति
फिर तेज होने लगती है। उस समय यह भी माना जाता था कि चन्द्रमा सूरज से अधिक दूर है,
उसकी गति सूरज से 13 गुना कम है और यह सूरज के पीछे छुप जाता है (देखें, “Development of Pancanga from Vedic times upto
the present”, BASI, Vol. 26, pp. 75 – 90, 1998, By S.D Sharma, Indian Institute
of Astrophysics, http://hdl.handle.net/2248/3516)।
यह समझ क्या प्रकट करती है? स्पष्ट रूप से उस समय के लोग सूरज को पृथ्वी के सापेक्ष गतिशील मानते
थे जो आज गलत सिद्ध हो चुका है। जो लोग यह कहते हैं कि हिन्दू धर्म या किसी भी
धर्म के “ब्रह्मज्ञानी” ऋषि-मुनि और “हिन्दू वैज्ञानिक” प्रचीन काल से ही
सब कुछ जानते थे, उनसे इस समझ का श्रोत मांगने की ज़रूरत है, या फिर यह समाज ने
प्रचिलित जनश्रुतियां हैं? क्योंकि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में जो बातें लिखी हैं, वे आज के दौर
में काफी असंगत नज़र आती हैं। यहाँ उस दौर की वैज्ञानिक सोच का मज़ाक नहीं उड़ाया
जाना चाहिये। हमें यह नहीं कहना चाहिये कि उस समय के लोगों ने ऐसा क्यों कहा, जबकि
आज सच कुछ और सही सिद्ध हो चुका है। किसी दौर की गलत समझ को उस दौर की सामाजिक
स्थिति और विज्ञान के विकास की अवस्था के आधार पर समझना चाहिए क्योंकि हर दौर की
कुछ भोतिक-सामाजिक सीमायें होती है। लेकिन दुनिया को समझने के जो औजार उस समय विकसित हुए
थे, और प्रकृति का जितना अवलोकन करने में उस समय के लोग सक्षम थे उसके अनुरूप ही
उस दौर के लोगों ने दुनिया के बारे में अपना दृश्टिकोंण बनाया। लेकिन जैसे-जैसे
नये अनुसंधान हुये कई प्राचीन धारणाओं का खण्डन किया जा चुका है या उस प्रचान समझ
को सुधारा जा चुका है। यह हिन्दू, ईसाई, इस्लाम सभी की धार्मिक मान्यताओं के बारे
में सच है। इतिहास के भिन्न-भिन्न दौरों में संसार के हर भूभाग पर व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लोगों ने महान खोजे की थीं, और यह खोजें भारत में भी हुईं हैं। इसलिये हर धार्मिक मान्यता और धर्म ग्रन्थों को तार्किक रूप से समझने
के लिये सभी को प्रोत्साहित करना चाहिये, न कि उनका महिमामण्डन करने और उसकी पूजा
करने के लिये। वास्तव में धार्मिक मान्यताओं का महिमामण्डन मुख्य रूप से हर दौर
में शासक वर्गों के हितों की रक्षा के लिये तथा जनता को डराकर रखे के लिये अन्धविश्वास
का प्रचार करने के लिये किया गया है (देखें श्रोत 3)। इसके कुछ श्रोत नीचे
चित्रों में दिये हैं। जो लोग यह कहते हैं कि वैदिक लोग सब कुछ जानते थे और उनपर
कोई सवाल नहीं उठाना चाहिये वह धारणा कितनी गलत है, बल्कि अंधविश्वासपूर्ण भी है,
यह ऊपर दी गई वैदिक मनुष्यों की संसार के बारे में समझ के आधार पर लगाया जा सकता
है (देखें श्रोत 2)।
ऐसे में जो लोग आज के विज्ञान की तुलना प्राचीन विज्ञान से करते हैं,
और प्राचीन विज्ञान की कुछ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर उसका महिमाण्डन करते हैं,
वह प्रत्यक्ष धोकेबाजी है और लोगों को धर्म का भूत दिखाकर डराकर रखने तथा अपने
फायदे के लिये उन्हे बेबकूफ बनाकर रखने के समाज है। यह हिन्दू धर्म में भी होता
रहा है और ईसाई-इस्लाम जैसे सभी धर्मों में भी मौजूद है।
अब आज-कल की धार्मिक प्रवृत्ति की बात
करते हैं। धार्मिक रूझान रखने वाले तथा भाववादी दर्शन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से प्रभावित लोगों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये लोग ज़्यादातर सुनी-सुनाई
बातों करते सुने जाते हैं, या ज्यादा से ज्यादा कुछ लोग एक-दो लेख या कुछ श्लोकों
को पढ़कर पूरा धर्म समझने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग अभी भी यह मानते हैं कि प्राचीन धर्म ग्रन्थों में काफ़ी “विज्ञान” मौज़ूद था, और यह धर्म ग्रन्थ लोगों के बीच समानता
का प्रचार करते थे। यह लोग अपने इन विचारों के समर्थन में “सर्व-धर्म-संभाव्”, “सर्वे भवन्तु सुखिनाम्”, “बसुंधैव कुटुम्भकम्” आदि जैसे कुछ श्लोंकों का हवाला देकर
इसकी वास्तविकता को छुपा लेते हैं, या हो सकता है कि यह लोग खुद भी न जानते हों (देखें श्रोत 1)।
इस तरह की अवैज्ञानित-अतार्किक धारणाओं
के प्रति हमें सजग होकर सोचना पड़ेगा। व्यक्तिगत स्तर पर लोगों का पराभौतिक सत्ता
में विश्वास और कुछ पूजा के कर्मकाण्ड करना तबतक समाप्त नहीं हो सकता जबतक समाज
में वर्गों का अस्तित्व मौज़ूद है और भौतिक रूप से समाज की व्यापक जनता शोषण की
शिकार है। लेकिन जनता के इस विश्वास का फायदा उठाने वाले लोगों, और अन्धविश्वास का
प्रचार करने वाले लोगों की असलियत को सबके सामने लाना ज़रूरी है, जिससे कम से कम
वर्तमान समाज में मौज़ूद हर आम धारणा के प्रति लोगों में एक आलोचनात्मक दृश्टिकोंण
विकसित हो सके। ईश्वरीय सत्ता, धर्म और आदर्शवाद के आधार पर समाज और लोगों का भला
करने की बाते करने वाले या दुनिया को ही काल्पनिक मानने वाले ज्ञानी लोगों के
सामने मैं हिन्दू धार्म ग्रन्थों के उद्धरण श्रोत सहित रख रहा हूँ। इनके आधार पर
स्वयं भारतीय भाववादी दर्शन तथा धर्म के विचारों के प्रति एक आलोचनात्मक दृश्टिकोंण
बनाया जा सकता है। यह कहना कोई तर्क नहीं होगा कि कुछ जगह धर्म ग्रन्थों में सही
बाते भी हैं, लेकिन संपूर्ण रूप में धर्म के आधार पर कैसी सामाज बनाने की बात की
गई थी उसके आधार पर ही समाज में धर्म की भूमिका को समझना होगा। एक पुरानी कहावत है
कि सिर्फ हाथी की पूँछ देख को देख कर हाथी के बारे में धारणा नहीं बनानी चाहिये।
[चित्रो में दिये गये
सभी उद्धरण पुस्तक “भारती दर्शन में क्या जीवंत क्या मृत” (देवीप्रसाद चटोपाध्याय, 2007 संस्करण, पीपीएच नई दिल्ली से
प्रकासित) के पृष्ठ 167 - 179 से लिये गये हैं]
1. धर्म ग्रन्थों में
असमानता सूचक प्रचार,
ब्राह्मणोअस्य
मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः
उरूतदस्य यद् वैश्यः
पद्भ्यां शूद्रो अजायत (सूक्त, ऋग्वेद 10-90-12)
[इनका मुख ब्राह्मण हुआ, दोनो बाहुओं से क्षत्रिय बनाया गया, दोनो
जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।]
2. धार्मिक ग्रन्थ किस प्रकार लोगों को
अतार्किक बनाते हैं, उसके कुछ उदाहरण,
3. किस तरह अन्धविश्वासों का प्रचार शासकों
के हितों की रक्षा के लिये किया जाता था,
4. धर्म ग्रन्थों में
स्त्री विरोधी मानशिकता का प्रचार,
इन्द्रश्चिद्घा
तदब्रतीत् स्त्रिया अशांस्यं मनः,
उतो अह ऋतुं रघुम् (ऋग्वेद 8-33-17)
[इन्द्र ने कहा कि स्त्री के मन का शासन करना असंभव है। स्त्री की
बुद्ध छोटी होती है।]
न वै स्त्रैपानि
सख्यानि संति सालावृकाणां हृदयान्येता (ऋग्वेद 10-95-15)
[स्त्रियों का प्रेम वा मैत्री स्थाई नहीं होती, स्त्रियों और वृक्कों
का हृदय एक समान होता है]
मध्या
यत्कर्त्वमभवदभीके कामं कृण्वाने पितरि युवत्याम्
(ऋग्वेद
10-61-6)
5. धर्म ग्रन्थों में
तंत्र-मंत्र तथा अन्धविश्वास का प्रचार,
अदीक्षिता यदा नारी कर्णे
मायां समुच्चरेत्.
शक्तयोअन्याः
पूजनीया नाय् र्यस्ताअन कर्मणि.. (महानिर्वाण)
(ओझाओं-मौलवियों द्वारा झाड़-फूंक और "कयामत का दिन", जन्नत या
स्वर्ग जैसी
अन्धविश्वासपूर्ण व्यक्तिगत मान्यता
रखने वाले इस्लाम तथा ईसाई धर्म की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन उसका प्रभाव भारतीय
समाज पर उतना नहीं है,
इसलिए श्रोतों की खोज करने की आवश्यकता अभी
नहीं है, लेकिन उनपर भी ज़रूर लिखने की आवश्यकता है।)