रुढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रुढ़ियों को तोड़ने के उदहारण पर्याप्त मात्र में नहीं हैं। लोगों को इस ख़्याल का जोर से प्रचार करना चाहिए की मज़हब और खुदा गरीबों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
–
राहुल
सांकृत्यायन
(9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963)
(Published in Youth Magazine AAHWAN; http://ahwanmag.com/archives/3358)
यूँ तो भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का हर दिन
घर-घर में हिन्दू कर्मकाण्डों से आमना-सामना होता है, और गाय को रोटी खिलाकर या
पैसे चढ़ाकर सीधे स्वर्ग में ले जाने वाले रथ यहाँ के महानगरों में भी देखे जा
सकते हैं। लेकिन चुनावों के दौरान हिन्दुत्व का प्रचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच
जाता है। कोई खुद को "सच्चा" हिन्दू कहता है और कोई "असली" हिन्दू(देखें जनसत्ता मुखपृष्ठ, 20 अगस्त
2013)।
राजनीति के लिए यात्राओं जैसे धार्मिक कर्मकाण्डों के
अलावा भारत में रहने वाले ज़्यादातर हिन्दू अपने पूरे जीवन में बच्चों के जन्म पर
जन्पपत्री, उनके बड़े होने पर मुण्डन, फिर और बड़े होने पर शादी होने से लेकर नये
घरों में जाने और मरने तक अनेक कर्मकाण्ड करते हैं। यहाँ तक कि नया कम्प्यूटर या
कार खरीदने पर भी पूजा-अनुष्ठान करने वाले लोग मिल जाते हैं, यहाँ तक कि ज़्यादातर ऋतुओं के आधार पर मनाए जाने वाले कई त्योहारों में भी
मूर्ति-पूजा या यज्ञ जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड जबरदस्ती घुसा दिये गये हैं। यहाँ हम सिर्फ
हिन्दू रूढ़ियों की ही बात करेंगे, क्योंकि भारत में ज़्यादातर हमारा सामना इनसे
ही होता है, लेकिन वास्तव में हर धर्म और हर सम्प्रदाय में ऐसी रूढ़ियों की भरमार
है जिनके पीछे छुपी सच्चाई को सामने लाना चाहिए, फिर चाहे वह इस्लाम में नमाज़ पदने और महिलाओं को बुर्के में कैद रखने की की प्रथा हो, या ईसाइयत में चर्च में जाकर प्रार्थना करने की प्रथा।
भारतीय समाज के विकास पर अब तक किये गये शोधों पर एक
नज़र डालें तो प्राचीन भारतीय समाज में हिन्दू कर्मकाण्डों का प्रचार मुख्य रूप से
इसलिये किया जाता था जिससे समाज में शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम करने वाली आबादी
के बीच भेद को सही ठहराया जा सके और दलित-किसान (शूद्र) आबादी को सवर्णों के अधीन श्रेणी
में रखा जा सके। कर्मकाण्डों के आवरण में लिपटा शासक वर्गों का यह रूढ़िवादी विश्व-दृश्टिकोंण
समाज में गहराई तक बैठा दिया गया। जिसके फलस्वरूप समाज की सवर्ण जातियों को सदियों
तक बिना हाथ-पैर चलाए सारी सुख सुविधाएँ मुहैया होती रहीं और वह सारी सामाजिक
सम्पत्ति के मालिक बन गये। इसके लिए यह जरूरी था की लोगों के बीच ऐसे धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया गया जो ब्राहमणों द्वारा ही किया जा सकते थे और जिनके बदले में उन्हें बड़ी दान-दक्षिणा मिलाती थी, और वह बिना काम के परजीवियों की तरह जीते थे, और इसके माध्यम से निम्न जातियों के लोगों को यह विश्वास भी दिला दिया जाता था कि वे उच्च जातियों के अधीन रहने के लिए ही पैदा हुए हैं और उच्च जाति के लोग जो बिना काम के आराम से जा रहे हैं, वे इसलिए क्योंकि वे उनसे श्रेष्ट है।
इस धर्मिक गुलामी के कारण सदियों तक समाज की 3/4 से अधिक शूद्र आबादी के लोग 1/4 से भी कम सवर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों) शासक वर्गों की गुलामी करते रहे। हिन्दू समाज में शूद्रों को सम्पत्ति रखने, कई प्रकार के काम करने या पढ़ने का अधिकार नहीं था, और सारे गन्दे तथा शारीरिक मेहनत वाले काम इन शूद्रों से करवाए जाते थे, और अन्य जातियाँ पण्डे-पुजारियों, राजाओं, जमीदारों, व्यापारियों, के रूप में सारी सामाजिक सम्पदा की मालिक बन चुकी थीं और सभी प्रकार के शारीरिक श्रम से मुक्त इन शूद्रों के श्रम पर पलती थीं। साथ ही इन शूद्रों के छूने भर से अछूत हो जाने जैसी भयानक प्रथाएँ भी सवर्ण जातियों के हित में प्रचारित की गईं थी। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह तो ठीक है, लेकिन जातियाँ पैदा ही कैसे हुईं और इसका क्या प्रमाण है कि जातियाँ हमेशा से नहीं मौज़ूद थीं, इसलिए भारत के प्रचीन इतिहास के बारे में कुछ पुस्तकों की सूची नीचे श्रोतों में दी गई हैं, क्योंकि लेख की सीमाओं में इसकी व्याख्या करना सम्भव नहीं है।
इस धर्मिक गुलामी के कारण सदियों तक समाज की 3/4 से अधिक शूद्र आबादी के लोग 1/4 से भी कम सवर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों) शासक वर्गों की गुलामी करते रहे। हिन्दू समाज में शूद्रों को सम्पत्ति रखने, कई प्रकार के काम करने या पढ़ने का अधिकार नहीं था, और सारे गन्दे तथा शारीरिक मेहनत वाले काम इन शूद्रों से करवाए जाते थे, और अन्य जातियाँ पण्डे-पुजारियों, राजाओं, जमीदारों, व्यापारियों, के रूप में सारी सामाजिक सम्पदा की मालिक बन चुकी थीं और सभी प्रकार के शारीरिक श्रम से मुक्त इन शूद्रों के श्रम पर पलती थीं। साथ ही इन शूद्रों के छूने भर से अछूत हो जाने जैसी भयानक प्रथाएँ भी सवर्ण जातियों के हित में प्रचारित की गईं थी। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह तो ठीक है, लेकिन जातियाँ पैदा ही कैसे हुईं और इसका क्या प्रमाण है कि जातियाँ हमेशा से नहीं मौज़ूद थीं, इसलिए भारत के प्रचीन इतिहास के बारे में कुछ पुस्तकों की सूची नीचे श्रोतों में दी गई हैं, क्योंकि लेख की सीमाओं में इसकी व्याख्या करना सम्भव नहीं है।
कर्मकाण्डों को मानने वाले आम लोगों को सिर्फ इतना पता है
कि धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है वह ईश्वर ने लिखा है, और उसपर ज़्यादा सोचना या
तर्क करना उनका काम नहीं है। इसलिए वह सोचता है पण्ड-पुजारियों द्वारा बताये गये सभी
धार्मिक कर्मकाण्डों को आँख मूंद कर मानना चाहिए। आज भी बिना किसी वैज्ञानिक समझ
के कुछ उल्टे-सीधे कुतर्क देकर अर्धशिक्षित पण्डे-पुजारी लोगों को धर्म के नाम पर
डराते-धमकाते हैं, और उन्हें यह समझाते हैं कि यदि वे कर्मकाण्ड नहीं करेंगे तो
उनपर विपत्ति टूट पड़ेगी। देश की बड़ी जनता वैसे ही जीने के लिए आवश्यक संसाधनों
के आभाव तथा मुँह बाये खड़ी बेरोजगारी-महंगाई के कारण विपत्ति में फंसी है, इसलिए लोग
बिना सोचे समझे इन अन्धविश्वासों पर भी आँखें मूद कर विश्वास कर लेते हैं। इस तरह
लोगों के सामने इस सच्चाई को धुँधला कर दिया जाता है कि उनकी बर्बादी का कारण कोई
पाप या धर्म नहीं बल्कि वर्तमान पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था है। जबकि दुनिया के कई
देशों की स्थिति काफ़ी अलग है। जैसे यूरोप, जापान जैसे देशों में पूँजीवादी
क्रान्तियों और रूस तथा चीन सहित कई और देशों में जन-क्रान्तियों ने पुराने
सामाजिक ढाँचे को उखाड़कर नया आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक ढाँचा खड़ा किया, जिससे इन
देशों की जनता को पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं से एक हद तक छुटकारा मिल चुका है,
और इन क्रान्तियों ने जनता की चेतना का स्तर ऊपर उठाने में भी मदद की है।
समाज के बड़े हिस्से को कभी पढ़ने का ज़्यादा मौका नहीं
मिला था, इसलिए उन्हें ब्राह्मणों द्वारा बताई गई बातें ही पता चलती थीं, क्योंकि इन
लोगों ने कभी धर्म ग्रन्थों को न तो खुद पढ़ा है और न ही अपने विवेक से इन्हें समझने
की कोशिश की है। ऐसे में ज़्यादातर लोगों की जानकारी काफ़ी सीमित है। धार्मिक
विचारों की उत्पत्ति, कर्मकाण्डों की उत्पत्ति और समाज की वर्गीय संरचना तथा
जातियों की उत्पत्ति जैसे सवालों पर सामान्य डिग्री धारक पढ़े-लिखे लोगों की एक
बड़ी संख्या भी कोई जानकारी नहीं रखती और यह लोग भी अंधविश्वासों और असमानता सूचक
रूढ़िवादी कर्मकाण्डों का उसी प्रकार पालन करते हैं जैसे एक बिना पढ़ा लिखा किसान
करता है। इस मामले में इनकी सामाजिक चेतना का स्तर एक समान नज़र आता है। ऐसे में समाज
का यह हिस्सा स्वता स्फूर्त ढंग से कोई भी बदलाव लागू करने की पहल नहीं कर सकता।
फिर भी, कई भयानक पुरानी हिन्दू परम्पराएँ थी, जो पूँजीवादी
औद्योगिकीकरण (घिसे-पिटे) के बावज़ूद उत्पादन सम्बन्धों में हुए परिवर्तन के कारण काफी
सीमा तक कम हो चुकी हैं। जैसे समाज की बहुसंख्यक शूद्र जातियों को अछूत माना जाना,
उनके लिए कई कामों और पढ़ने पर पाबन्दी, बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, सती प्रथा, विधवा-विवाह,
पर्दा-प्रथा, महिलाओं को घर से बाहर निकलने या किसी और से बात करने पर पाबन्दी, सजातीय
विवाह, दहेज प्रथा आदि। इन सभी मानवद्रोही कुप्रथाओं को एक समय
में पूरा समाज सही मानता था, और अभी भी पूरी दुनिया की प्रगति की धारा से कटे हुए गाँवों-शहरों
के दूर दराज के इलाकों में कुछ लोग इन परम्पराओं को आँखें मूद कर लागू कर रहे हैं।
लेकिन आज, व्यक्ति- व्यक्ति तथा पुरुषों-महिलाओं के बीच असमानता को सही बताने वाले
कई कर्मकाण्ड और कुरीतियाँ धीरे-धीरे अपने अंत की ओर अग्रसर हैं। फिर भी समाज इन
धार्मिक आडम्बरों से कितनी गहराई से ग्रस्त है इसका अन्दाज़ समय-समय पर होने वाली
जातीय हिंसा धार्मिक हिंसा, और धार्मिक स्थानों पर भगदड़ की वजह से होने वाली मौतों
के आंकड़े देख कर लगाया जा सकता है।
भारतीय समाज में हिन्दू कर्मकाण्डों का सबसे बड़ा
दिखावा शादियों के समय देखा जा सकता है। इसके पीछे लोगों में मान्यता है कि हिन्दू
कर्मकाण्डों के बिना पूरी दुनिया में होने वाली शादियाँ सफल नहीं होतीं। जिन लोगों
का मानना है कि हिन्दू कर्मकाण्डों के आधार पर होने वाली शादियाँ ज़्यादा "सफल" होती हैं और जो
इन कर्मकाण्डों पर गर्व करते हैं (जिनपर वास्तव में शर्म करनी चाहिए), उन्हें
सरकारी आंकड़ों को उठाकर देखना चाहिए कि महिलाओं की स्थिति आज भारत में एक घरेलू
बंधुआ गुलाम से कम नहीं है, और महिलाओं के प्रति असमानता तथा घरेलू हिंसा, हत्या,
बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या के मामले में भारत पूरी दुनिया के ज़्यादातर
देशों को पीछे छोड़ चुका है। इन तथ्यों को विस्तार से देख सकते हैं, महिलाओं
के प्रति होने वाली सुव्यवस्थित हिंसा के कुछ आंकड़े . . .।
शादियों में होने वाले कर्मकाण्डों की बात करें तो यह
सभी महिला-विरोधी और पितृसत्तात्मक मूल्यों को लागू करने वाले कर्मकाण्ड हैं। यहाँ
तक कि हवनकुण्ड के चारों ओर सात फेरे और शपथों जैसे दकियानूसी कर्मकाण्ड सीधे रूप
में महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहने की सहमति दिलवाते हैं (देखें श्रोत सूची
बिन्दु 14, लिंक - seven-vows)। इन
शपथों का भावार्थ यह है कि एक संपत्ति का मालिक अपनी
सम्पत्ति के वारिश के
लिये शादी कर एक महिला को
परिवार में ला आ रहा है, जो उसकी हर बात का समर्थन करेगी और उसके कहने के अनुरूप हर काम करेगी। इन शपथों में
महिलाओं के स्वतन्त्र व्यक्तित्व की कोई झलक नहीं मिलती और उसकी स्थिति परिवार की
सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए अपने पति के अधीन रहने तक निर्धारित की गई है। यहाँ तक
कि पुरुष के जीवन का उद्धेश्य भी "सम्पत्ति इकठ्ठा" करने वाले और उसे बढ़ाने वाले परिवार के एक सदस्य के
रूप में निर्धारित है। चूँकि पित्रसत्तातातामक परिवार में सारी संपत्ति का मालिक
पुरुष होता है इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि इन कर्मकाण्डों के माध्यम से महिलाओं को धर्म के नाम पर
उसके अधीन रहने के लिए बाध्य किया जाए।
निष्कर्ष के रूप में कहें तो सम्पत्ति आधारित समाज में
सभी मानवीय मूल्य सम्पत्ति सम्बन्धों के अधीन होते हैं। पूँजीवादी समाज में भी पारिवारिक सम्बन्ध महिलाओं को पुरुषों के बराबर
अधिकार देने की बात नहीं करते क्योंकि यह सम्पत्ति सम्बन्धों के हितों के अनुरूप
नहीं है, जो पितृसत्तात्मक पारिवारिक सम्बन्धों ने पुरुष वर्ग की झोली में डाला
हुआ है। मनुष्यों ने अपने श्रम से सम्पत्ति का स्रजन किया और सम्पत्ति आधारित
परिवार और सामाजिक सम्बन्धों की उत्पत्ति के एक लम्बे दौर में सम्पत्ति ने सामाजिक
चेतना पर अपनी प्राधान्यता स्थापित की और पारिवारिक मूल्य सम्पत्ति के हितो के
अनुरूप ढालते गये। इसलिए व्यवहार में पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के रहते महिलाओं
को पूरी समानता नहीं मिल सकती, यह समाजवादी क्रान्ति के बाद सम्पत्ति आधारित
सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त करके ही सम्भव है। जब परिवारिक सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों
के आधार पर बनेगे न कि सम्पत्ति सम्बन्धों के आधार पर। जब समाज के हर नागरिक को
आजीविका की पूरी गारण्टी मिलेगी और आर्थिक रूप से समानता का अधिकार होगा, चाहे वह
स्त्री हो या पुरुष (देखें श्रोत सूची बिन्दु 8)।
पारिवारिक और मानवीय सम्बन्धों में गुणात्मक बदलाव का
सबसे अच्छा उदाहरण 1917 के रूस की क्रान्ति के बाद समाजवादी सोवियत यूनियन में देखा
जा सकता है (देखें श्रोत सूची बिन्दु 15, साम्यवाद
में परिवार)। यह हर समाज का दूरगामी
लक्ष्य है, लेकिन तुरन्त व्यवहार में लाने के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति, स्त्री
या पुरुष, जो समाज में समानता के विचारों को मानता है, वह रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक
तथा सवर्णवादी मूल्यों और कर्मकाण्डों का विरोध सिर्फ शब्दों में ही नहीं बल्कि
व्यवहार में भी करे। आज भी समाज की माँग यह नहीं है कि पुरुष महिलीओं के एक भले
मालिक बने रहें, या कुछ विशेषाधिकार प्रप्त वर्ग के हितों के पोषण के लिये जातियों
में बंटे सामाजिक ढाँचे को पाला-पोसा जाए। सिर्फ शब्दों में किसी बात को मान लेने
और व्यवहार में उससे उलटा काम करने से कोई बदलाव नहीं हो सकता और यह एक भ्रामक
शब्दाडम्बर मात्र रह जाता है।
भारत जैसे पिछड़े समाज में पिछली कई सदियों से रूढ़िवादी
परंपराओं को शासक वर्ग द्वारा शोषित-उत्पीड़ित जनता के कन्धों पर रखकर ढोया जा रहा
है, क्योंकि यहाँ कभी जन-क्रान्तियाँ नहीं हुईं। यहाँ ऊपर से कानून बनाकर कुछ
बदालाव किए गये, लेकिन समाज के मूल्यों-परम्पराओं से बनी आन्तरिक संरचना अभी भी
हज़ारों साल पुरानी जातिवादी-पितृसत्तात्मक परम्परा की गुलामी और उसके बाद कुछ सदियों
तक रही ब्रिटिश राज की गुलामी की शिकार है।
कुछ हद तक कई प्रकार की रूढ़ियाँ पूरे देश के स्तर पर
टूट रही हैं, लेकिन इनके टूटने की गति उतनी नहीं है जितनी तेजी से विज्ञान और
टक्नोलोजी का विकास हो रहा है, और जितनी तेजी से वैज्ञानिक खोजें एक-एक कर हर
अन्धविश्वास के पीछे छिपी सच्चाई को बेपर्दा कर उसकी कूपमण्डूकता को तहश-नहश कर
रही हैं। 16वीं सताब्दी में जब गैलीलियो ने क्रिश्चियन धर्म की उस आम मान्यता को
चुनौती दी थी जिसके अनुसार पृथ्वी को पूरे ब्रह्माण्ड का केन्द्र माना जाता था तो
लोगों ने उसपर सहज रूप से विश्वास नहीं किया था। लेकिन विज्ञान सदैव धार्मिक
मान्यताओं को छिन्न-भिन्न कर प्रकृति को समझने की मानवीय चेतना को उन्नत करता रहा
है। वर्तमान समय में जनता का बड़ा हिस्सा बेरोज़गारी और गरीबी में रहने के लिए
मज़बूर है और जनता का मुख्य अन्तरविरोध पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध है। ऐसे में भारत
जैसे पिछड़े देश में जनता की रूढ़िवादी मान्यताओं का फायदा उठाकर उसे मूर्खता के
दलदल में फंसाकर रखने वाले शासक वर्ग के लोग नये वैज्ञानिक विचारों का प्रचार करने
से काफ़ी भयभीत रहते हैं। इसपर सोचने और नविचार करने की आवश्यकता है।
चूँकि संसार सतत विकासमान है, इसलिए समाज भी उन्हीं
विचारों को अपनाता है जो प्रगतिशील हों और उसके हित के अनुकूल हों। समाज के हित
वैज्ञानिक प्रगति तथा उत्पादन की नई-नई खोजों के साथ नई आवश्यकताओं को जन्म दे रहे
हैं, इसलिए पुरानी कई मान्यतायें, अन्धविश्वास और कर्मकाणण्ड तथा सामाजिक सम्बन्धों
के बारे में प्रचलित सामाजिक धारणाएँ आज टूट रही हैं। इस गति को बढ़ाने के लिये
समय-समय पर एक धक्के की आवश्यकता होती है, जो उस समय सत्ता को नियन्त्रित करने
वाला वर्ग नहीं दे सकता। इसके लिए जनता के बीच से ही लोग आगे आते हैं। आज आम
मेहनतकश जनता को यह समझने की ज़रूरत है कि वर्तमान पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक-समाजिक
ढाँचा समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं रह गया है। इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि
लोगों को ऐतिहासिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के बारे में शिक्षित करते हुए यह
बताया जाये कि पुरानी रूढ़िवादी मान्यताएँ और कर्मकाण्ड कैसे पैदा हुए और यह किस
तरह वर्तमान ह्वासमान आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे के प्रति लोगों के दिमाग और
व्यवहार में एक भ्रम को अध्यारोपित (superimpose)
करने का काम कर रहे हैं। ओर किस तरह लोगों को अंधविश्वास में ढकेलकर उनके
आलोचनात्मक विवेक को कुन्द किया जा रहा है जो समाज के तथा व्यक्तियों के विकास में
सबसे बड़ी बाधा है।
गौर करने वाली बात यह है कि पूरी दुनिया के हर धर्म में
जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती
हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन
कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं। टीवी में, कई लोकल अख़बारों में और
पत्रिकाओं में इन मूर्खताओं के लिए चलाए जा रहे कई कूपमण्डूक विज्ञापन देखे जा
सकते हैं, और साथ ही कई धर्म गुरुओं के आश्रम भी इन्हीं रूढ़ियों के प्रचार के
अड्डे बने हुए हैं जो लोगों को गुमराह करके करोड़ों का धन्धा चला रहे हैं। जानबूझ
कर या खुद भी बिना जाने यह धन्धेबाज़ लोगों की सचेतन जानकारी के बिना, उनके अवचेतन
में गुलामी-अधीनता के विचारों को गहराई तक पैठाने का काम रहे है और असमानता पर
आधारित वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के जीवन को लम्बा करने में शासक वर्गों को
सहायता प्रदान कर रहे हैं।
इन परिस्थितिओं में धार्मिक कर्मकाण्डों
को मानना और पण्डे-पुजारियों (या मुल्ला-मौलवियों) तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों को
बढ़ावा देना समाज विरोधी, प्रगति विरोधी काम है, जिसे हर व्यक्ति को सचेतन रूप से समझना
चाहिए और इनके विरुद्ध समझौताविहीन वैचारिक रूप से तथा व्यवहारिक रूप में प्रचार करना
चाहिए !!
श्रोत और विश्लेषण
के लिए देखें,
1. Social Changes in Early Mediaval India – Prof. R.S.
Sharma
2. Exasperating Essays – D.D. Kosambi
3. Science Society and Peace – D.D. Kosambi
4. भारतीय
समाज में जाति और मुद्रा – इरफान हबीब
5. प्रचीन
भारत में भौतिक प्रगति और सामाजिक संरचनाएँ – रामशरण
शर्मा
6. सांप्रदायिक
इतिहास और राम की अयोध्या – रामशरण शर्मा
7. भारत
में राज्य की उत्पत्ति – रामशरण शर्मा
8. "Full freedom of
marriage can therefore only be generally established when the abolition of
capitalist production and of the property relations created by it has removed
all the accompanying economic considerations which still exert such a powerful
influence on the choice of a marriage partner. For then there is no other
motive left except mutual inclination." - Engels” (Family Private Property and State –
Fredrik Engels)
9. जाति
प्रश्न के समाधान के लिए – रंगनायकम्मा
10. जाति
और वर्ग – रंगनायकम्मा
11. दर्शन-दिग्दर्शन
– राहुल संकृत्यायन
12. The Grand Design – Stefen Hawkings
13. जनसत्ता,
20 अगस्त 2013
15. http://www.marxists.org/archive/kollonta/1920/communism-family.htm
16. "The underlying cause of erroneous beliefs and propaganda machinery which reinforce and exploit human fallibility for communal, political and financial purposes cannot be completely eradicated. It has to be compensated by cultivating certain habits of the mind that promote critical thinking and sound reasoning. An acquaintance and understanding of various kinds of myths, superstitions and propaganda tactics can reduce the likelihood of deception and entrapment. The habit of raising doubts and asking questions can prevent the formation of dubious beliefs. The authenticity of claims should be checked from credible and independent resources. One cannot expect to get a fair coverage of an event or a breaking story, if for example, the reporters are given patronage by interested lobbying groups."
From prehistoric times, humans have evolved as pattern seeking and storytelling species. While the capacity to find patterns and infer meanings had obvious advantages for survival, the brain is not always successful in distinguishing meaningful and meaningless patterns. In fact, "pattern finding" and "order seeking" mechanisms form the basis for nearly all existing myths, superstitions, cultural taboos and ritual practices all over the world. The same mechanism also makes us extremely vulnerable to all kinds of deceptions and manipulative techniques that impair our critical faculties. We may imagine things that don’t exist, make false judgments, accept uncritical claims, misinterpret facts and arrive at conclusions that are completely at odds with reality. The scientific age is riddled with intriguing contradictions and man-made follies. The technology-driven consumer culture and entertainment industry has fueled the growth of primitive superstitions, myths and new age beliefs. The need to promote a rational discussion on science, technology and equitable social development has never been so pressing. The first thing to guard against such trends is to be aware of the subtle persuasive techniques, marketing strategies and advertisement gimmicks that make us increasingly helpless consumers in the scientific age. Conveying the excitement of science and scientific discovery is no doubt an essential part of science education and public outreach activities. But equally important is to learn to draw the distinction between unsubstantiated claims and factual findings based on sound reasoning and evidence. Discerning magical thinking and vague ideas from the realm of possibilities that lie within limits of physical laws is therefore important to inculcate scientific temper. In this article, some major ways that can lead to sloppy thinking, misplaced apprehensions and faulty reasoning in our daily lives are discussed. The paper includes examples to illustrate how erroneous beliefs are formed and why healthy skepticism and critical inquiry is necessary to avoid common pitfalls.
("Myths, Superstitions and Propaganda in Scientific Age" by R.K. BANYAL Indian Institute of Astrophysics,
From prehistoric times, humans have evolved as pattern seeking and storytelling species. While the capacity to find patterns and infer meanings had obvious advantages for survival, the brain is not always successful in distinguishing meaningful and meaningless patterns. In fact, "pattern finding" and "order seeking" mechanisms form the basis for nearly all existing myths, superstitions, cultural taboos and ritual practices all over the world. The same mechanism also makes us extremely vulnerable to all kinds of deceptions and manipulative techniques that impair our critical faculties. We may imagine things that don’t exist, make false judgments, accept uncritical claims, misinterpret facts and arrive at conclusions that are completely at odds with reality. The scientific age is riddled with intriguing contradictions and man-made follies. The technology-driven consumer culture and entertainment industry has fueled the growth of primitive superstitions, myths and new age beliefs. The need to promote a rational discussion on science, technology and equitable social development has never been so pressing. The first thing to guard against such trends is to be aware of the subtle persuasive techniques, marketing strategies and advertisement gimmicks that make us increasingly helpless consumers in the scientific age. Conveying the excitement of science and scientific discovery is no doubt an essential part of science education and public outreach activities. But equally important is to learn to draw the distinction between unsubstantiated claims and factual findings based on sound reasoning and evidence. Discerning magical thinking and vague ideas from the realm of possibilities that lie within limits of physical laws is therefore important to inculcate scientific temper. In this article, some major ways that can lead to sloppy thinking, misplaced apprehensions and faulty reasoning in our daily lives are discussed. The paper includes examples to illustrate how erroneous beliefs are formed and why healthy skepticism and critical inquiry is necessary to avoid common pitfalls.
("Myths, Superstitions and Propaganda in Scientific Age" by R.K. BANYAL Indian Institute of Astrophysics,
Available at: http://prints.iiap.res.in/handle/2248/5676)
17."Uncertainty in the presence of vivid hopes and fears, is painful, but must be endured if we wish to live without the support of comforting fairy tales’.
17."Uncertainty in the presence of vivid hopes and fears, is painful, but must be endured if we wish to live without the support of comforting fairy tales’.
No one disputes the abounding uncertainties and the
lurking fear of the unknown in everyday life. But surrendering at the altar of
ignorance does not enlighten us either. Neither has it eased the burden of the
unknown – an unsavory parcel of our evolutionary history. On the contrary,
giving sanctity to superstitions only appends the layers of ignorance. It does
so by compromising the core principle of rationality and critical thinking that
has thus far driven the progress of modern science."
Instead of challenging the dogmatic beliefs on
rational ground, educated people (including scientists and technocrats) become
prone to mindless justifications for the prevailing superstitions.
Irrational faith can become a breeding ground for
collective indoctrination, forcing absolute compliance to supremacist authority
of one kind or another. The renewed upsurge in public craze for high-profile
godmen and increasing prominence of soothsayers and cult-like figures in public
sphere is, therefore, not too surprising.
"No amount of worship, wishful thinking or animal
sacrifice can fix the glitch in a combustion chamber or repair faulty coolant
lines serving the radiator. In fact attributing success to higher powers and
seeking divine interventions grossly undermine the capabilitie."
("In Defence of Scientif Temper", R.K.
BANYAL, Indian Institute of Astrophysics