Friday, September 28, 2012
Saturday, September 8, 2012
कौन बनेगा करोड़पति - ज्ञान का महाकुंभ या और कुछ ? ? कुछ सवाल और जबाव . . .
कल 7 सितंबर 2012 से एक
बार फिर कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो गया। अमिताभ बच्चन ने इसे ज्ञान का महा कुंभ की उपमा दे दी है और लोगों के बीच इसका खूब प्रचार किया जा रहा है। इस प्रोग्राम की सराहना तो जबसे यह पहली बार सुरू हुआ था तबसे कई लोगों के मुख से सुनी जा रही है। लोग कहते हैं कि देखिये यह है प्रोग्राम!! जो
नौज़वानों में "ज्ञान" पाने
के लिये "इच्छा" पैदा करता है। वैसे भी आजकल के स्कूलों और कालेजों में तो ज़यादा ज्ञान
मिल नहीं पाता इसलिए बच्चों को टीवी के माध्यम से ही सामान्य ज्ञान देने का काम और
ज्ञान पाने के प्रति "जिज्ञासा" पैदा की जा रही है!! कई पढ़े-लिखे मध्य वर्ग के माता-पिता यह कहकर इस
प्रोग्राम सराहना करते हैं कि यह उनके बच्चों में "सामान्य
ज्ञान" के प्रति "जागरुकता" ला रहा है। वैसे लोगों की बाते सुनकर थोड़ा विचार करने के बाद तो ऐसा लगता है कि यह
प्रोग्राम ज्ञान पाने की जिज्ञासा से ज़्यादा, बिना कुछ किये
मुफ्त में पैसा बनाने की जिज्ञासा को ज़्यादा बढ़ावा देता है।
आगे बढ़ने से पहले इसके द्वारा "ज्ञान" के प्रचार के पीछे जो पैसा टीवी चैनल वाले और
प्रोग्राम के मेजबान कमा रहे हैं उसकी बात यहाँ नहीं करेंगे सिर्फ इसके द्वारा
किये जा रहे प्रचार की बात ही करेंगे। इस प्रोग्राम के प्रशंसको की बातों को
छोड़ देते हैं और कार्यक्रम के माध्यम से जिस तरह की बातों का अप्रत्यक्ष प्रचार
मध्य वर्ग के लोगों में होता है उसकी थोड़ी संक्षिप्त चर्चा करते हैं। पिछली
बार भी जब यह प्रोग्राम शुरू हुआ था तो इसके प्रसारण के समय पर मध्य वर्ग के लोग
अपने बच्चों के साथ टीवी सेटो के सामने से हटते नहीं थे। हर दिन की जिंदगी में
टीवी-मनोरंचन-विलासिता में डूबे रहने वाले या एक सुखी जीवन के सपने देखने
वाले मध्य-वर्ग के कई लोग मुख्य रूप से इस प्रोग्राम के प्रसंशक होते हैं। लोगों से सामान्य ज्ञान के सवाल पूँछकर हर सवाल के बदले में पैसे में
बढ़ोत्तरी करने की जो रूपरेखा इस प्रोग्राम में तय की गई है और जिस तरह का पूरा
प्रचार और माहौल इस शो के लिये तैयार किया जाता है वह अप्रत्यक्ष रूप से कई प्रकार
से वर्तमान व्यवस्था के हित में एक काल्पनिक और झूठा विश्व दृश्टिकोंण लोगों के बीच
स्थापित करने का काम करता हैं।
इसी क्रम में पहला सामान्य प्रचार जो इस प्रोग्राम के ताने-बाने के
माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप में होता है वह है कि यदि आपके पास ज्ञान हो तो क्षरण-विघटन के शिकार सम्पत्ति केन्द्रित समाज में "पैसों" को बड़ी आसानी
से एक कुर्सी (हाट सीट) पर बैठ कर सिर्फ सवालों का जबाव देकर कमाया जा सकता है।
अप्रत्यक्ष रूप से इस तरह के दृश्य और संवाद जिनमें अमिताभ बच्चन काफी प्रभावसाली
ढंग से अपनी बात रखते हैं, और प्रत्याशी से सवाल करते हैं, वह वर्तमान समय की
अमानवीय अंधी पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा को सही सिद्ध करने का काम करते हैं,
जिसका सामान्य असर लोगों के विचारों पर यह होता है कि जो लोग पैसे
नहीं कमा पा रहे हैं, चाहे वे शारीरिक रूप से कितनी भी मेहनत
करते हों, उन्हें बताया जाता है कि "ज्ञान" की कमीं के कारण वे इसी लायक हैं। मध्यवर्ग के कुछ असफल नौजवान भी इसके
प्रभाव में हीन भावना से ग्रस्त देखे जा सकते हैं। यानि मध्यवर्ग के आम आदमी के
दिमाग में यह बात गहरे स्तर तक बैठा दी जाती है कि यदि वह "ज्ञान" पाने के लिये मेहनत करे तो सफ़लता
प्रप्त कर सकता है। इसलिये करोड़ों लोगों की बदहाली और बेरोजगारी का मुख्य कारण
उनके पास "ज्ञान" का न होना
है। यानि लोगों की सोच के दायरे को संकीर्ण तो किया ही जाता है, जो अपने आसपास से आगे बढ़कर पूरी व्यवस्था में अपनी स्थिति के बारे में कभी नहीं सोच पाता, कि पूरे समाज के मेहनत करने वाले लोग कुछ सम्पत्ति धारी लोगों के फायदे के लिये काम कर रहे हैं, साथ ही व्यवस्था के पक्ष में कुछ अवैज्ञानिक कूपमंडूक (कुएँ के मेढ़क वाले) विचार भी उनके दिमागों में भर दिये जाते हैं।
From: http://dbzer0.com/ |
इस प्रकार ऐसे प्रोग्राम लोगों के सामने सम्पत्ति केन्द्रित व्यवस्था की
अराजकता और इसमें हो रहे करोड़ों लोगों के शोषण और उनके साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार की सच्चाई को जनता की नज़रों से
छुपाने का काम बखूबी निभाते हैं। और हर व्यक्ति को वर्तमान अमानवीय व्यवस्था में
आजीविका कमाने के लिये मची प्रत्स्पर्धा की अन्धी दौड़ में सफलता पाने के लिये झपट
पड़ने की सलाह देता है। इनके माध्यम से लोगों के सामने सिद्ध किया जाता है कि इस
व्यवस्था में कोई गलती नहीं है, बल्कि मुख्य दोष
गरीब लोगों में "ज्ञान" की
कमी का है, जिसके कारण वे गरीब हैं। इस प्रकार यह प्रोग्राम समाज में मौज़ूद वर्गों की
मानवद्रोही ऐतिहासिक सच्चाई को लोगों की नज़रों में धूमिल करने के साथ एक संदेश यह
भी देता हैं जो लोग आराम से विलासिता का जीवन जी रहे हैं वे अपने ज्ञान के बल पर
सफल होने के कारण ऐसा कर पा रहे हैं।
इसका एक और मैसेज लोगों के बीच यह भी पहुँचता है कि ज्ञान प्रप्त करने
का मुख्य उद्धेश्य समाज के लिये किसी वैज्ञानिक कार्य या अनुसंधान या किसी
टेक्नोलोजी का विकास नहीं, बल्कि व्यवस्था के
अंदर अपने ज्ञान के बूते पर प्रतिस्पर्धा में सफल होकर अपने लिये कुछ हासिल करना
होना चाहिये।
इन सभी मानव-द्रोही दृश्टिकोंणों का प्रचार मध्य वर्ग के आम लोगों और
कई सिविल सर्विस, इंजीन्यरिंग या किसी अन्य प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले उन नौजवानो को काफ़ी प्रोत्साहित करता है जो
विज्ञान, टेक्नोलाजी, डाक्टरी, और यहां तक कि सिविल सर्विस की तैयारी तक अपना कैरियर बनाने की मनोवृत्ति से करते हैं, जिनके लिये समाज की सर्विस करना कोई मायने नहीं रखता
और जिनका उद्धेश्य सिर्फ एक व्यक्तिवादी सामाजिक पोजीसन और पैसा कमाना होता है। यह
व्यक्तिवादी, समाज-द्रोही नैतिक मूल्य मध्य-वर्ग के खाये अघाये और मंदिरों-मस्जिदों में दीन पुण्य करने वाले लोगों के
लिये ईश्वरीय प्रवचनों से कम नहीं होते हैं। वास्तव में यह मूल्य 1791 में हुई फ्रांसीसी क्रांति के उन पूँजीवादी मूल्यों से भी कोई मेल नहीं रखते जहाँ समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व का नारा दिया गया था। और आज कल के यह पैसा कमाने के नैतिकता के प्रचार करने वाले मूल्य वास्तव
में उन नैतिक मूल्यों से भी कोसों दूर हैं जो हमारे बचपन में नैतिक शिक्षा और
पौराणिक कथाओं या धार्मिक ग्रन्थों में दिये जाते थे। वैसे आजकल जिस प्रकार का लूट-मार पूरी दुनिया की प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी साम्राज्यवादी ताकतों ने मचा रही है उसमें इसी प्रकार के मूल्यो का प्रचार संभव है और व्यवस्था की आवश्यकता भी है। और इसमे 1791 में उठाये गये उन मानवतावादी मूल्यों की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती जिसमे हर व्यक्ति के लिए समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व का नारा दिया गया था। वैसे सम्पत्ति आधारित समाज में यह संभव भी नहीं है कि मेनस्ट्रीम मीडिया, जो स्वयं पैसे वालों का भोपू है वह प्रगतिशील विचारों का प्रचार लोगों के बीच करेगा।
कुछ लोग कहेंगे कि यह मनगढ़ंत बाते हैं, लेकिन वास्तव में इन सभी मूल्यों का संप्रेषण करने के लिये प्रोग्राम में किसी संवाद या
किसी दृश्य की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि यह प्रोग्राम देखने वाले व्यक्ति के स्वयं के विचारों के माध्यम से
इस तरह का पूरा ताना बाना उसके सामने खड़ा कर देता है। नहीं तो ज्ञान के बदले में एक करोड़ का उपहार देकर आम लोगों के सामने क्या उदाहरण प्रत्तुत किया जा सकता है, यह इन सच्चाई को "मनगढ़ंत" कहने वाले लोगों से पूँछना चाहिये।
अब, इन मूल्यों के बीच पल रहे लोगों की बात करें तो पूरी व्यवस्था एक ओर
इस तरह के मानवताद्रोही कूपमंडूक विचारों का प्रचार करके लोगों को प्रतिस्पर्धा
में एक दूसरे का दुश्मन और उसके विचारों के दायरे को सिकोड़कर पैसा कमाने की
व्यक्तिवादी सोच तक सीमित करती है, और जब यही लोग भष्मासुर की तरह पैसा कमाने के लिये भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और सामाजिक व्यवस्था की जड़ों को खोदने लगते हैं तो पूँजीवाद के
नीति-निर्माता, सामाजिक कार्यकर्ता और ए.जी.ओ. पंथी हाय
तौबा मचाते-फिरते हैं, कि हमें इस व्यवस्था को साफ सुथरे
लोगों की ज़रूरत है, सभी को एकजुट होकर खड़े होना चाहिए। और
मजे की बात तो यह है कि यह लोग मध्यवर्ग के उन्हीं लोगों को साथ लेकर सफाई करने
का सपना देखते हैं और कुछ नैतिकता की नसीहते देते हुए दिखते हैं, जो स्वयं किसी मौके की तलास में रहते हैं कि कैसे ज़्यादा
सफ़ल बना जाये और कैसे करोड़ों रुपया किसी तरह कहीं से बिना काम के सिर्फ "ज्ञान" की बदौलत मिल जाये।
इस प्रकार के प्रोग्रामों का खूब प्रचार किया जाता है और मध्यवर्ग के लोगों में खूब सफलता इन्हें मिलती है। ऐसी
परिस्थितियों में भेंड़चाल की मनोवृत्ति पैदा करने के लिये जिस तरह से लगातार
प्रयास किये जा रहे हैं, उसके
बीच कुछ संभावना संप्पन्न प्रगतिशील नौजवानो को समाज को परिवर्तन की दिशा में आगे
ले जाने के लिये, और
रूढ़िवादी विचारधारा का विरोध करने के लिए हमें विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। वैसे यह व्यवस्था स्वयं ही अपने भष्मासुर इन व्यक्तिवादी
लोगों के रूप में पैदा कर रही है जिनके खुले मानवद्रोही काम सभी के सामने पूरी
व्यवस्था की पोल ख़ुद ही खोल देते हैं। और मंदी के माहौल में महंगाई, बेरोज़गारी और
भविष्य की अनिश्तचतता के बीच नौजवानों को स्वयं ही इस व्यवस्था का विकल्प तलासने
की इच्छा पैदा कर देती है।
भगत सिंह के
शब्दों में, ”जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने
शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस
जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिये एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत
होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा
जाता है।... लोगों को गुमराह करने वालीं प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की
प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिये यह
जरूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताजा की जाये, ताकि इन्सानियत की रूह में हरकत पैदा
हो।” (छोटे भाई को लिखे भगतसिंह के अन्तिम
पत्र से)
(11 सितंबर 2012)
इस लेख पर कुछ सुझाव और टिप्पणीयाँ मिलने के बाद कुछ विस्तार से उनके जबाव यहाँ डाल रहा हूँ।
(8 सितंबर 2012)
=========================(11 सितंबर 2012)
इस लेख पर कुछ सुझाव और टिप्पणीयाँ मिलने के बाद कुछ विस्तार से उनके जबाव यहाँ डाल रहा हूँ।
शब्दों की अस्पष्टता या लेख
में ज़्यादा व्यख्या न किये जाने के कारण ऐसा संभव है कि सारी बातें स्पष्ट रूप
में पढ़ने वालों का सामने न आ सकीं हों। टिप्पणी में असहमति के बिंदुओं को पढ़ने
के बाद मुझे लगा कि मैंने लेख में जो कहना नहीं चाहा है, उसपर असहमति बन रही है,
इसलिये मैं असहमति के बिंदुओं को एक-एक लेकर थोड़ा विस्तार से उनकी व्याख्या कर रहा हूँ।
"ज़्यादा
दूर न जाकर, अगर मैं पिछले कुछ सालों (जबसे
कि KBC शुरू हुआ है) में अपने
साथ सम्पर्क में आने वाले लोगों को देखूं जिनमें हर वर्ग के लोग शामिल हैं, तो मुझे
कोई भी ऐसा व्यक्ति याद नहीं आता कि जिसने कभी यह सोच कर के कि
वह अपने ज्ञान के बूते केवल हॉट सीट पर जाकर पैसे कमाना चाहता हो (बल्कि हॉट
सीट पर बैठने के बारे में भी किसी ने गम्भीर होकर
बात की हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता) "
अब इस पैराग्रफ को
पढ़ने के बाद, असमति का जो तथ्य मेरी समझ में आ रहा है वह यह है कि लोग हॉट सीट पर बैठने
के बारे में गम्भीर होकर कभी नहीं सोचते, न ही ऐसे विचार उनके मन में कभी
आते हैं। अब हाट
सीट की बात को थोड़ा विस्तार से समझें तो पोस्ट को पूरा पढ़ने का बाद यह बात स्पष्ट
हो रही है कि "हॉट सीट" को सिर्फ एक
तुलना के लिए इस्तेमाल किया गया है, न की शाब्दिक अर्थों में, जिसका मतलब है कि आज कल लोग
आराम से बिना काम के ज़्यादा से
ज़्यादा पैसे कमाने के लिए ज्ञान पाने की बात करते हैं और इसी लिए ज्ञान हासिल
करने की मेहनत भी करते हैं। इसपर चर्चा आगे
करेंगे।
इससे पहले मैं चाहूँगा कि इस
समाचार को हमें पढ़ लेना चाहिए, कि दुनिया की सबसे अमीर महिला
ने आराम से जीने वाले ज्ञान के भंडार अमीरों और अज्ञानी गरीबों के बारे में क्या
कहा है। यदि खबर की भावार्थ देखें तो उसका कहना है कि गरीबों को कम मनोरंजन करना
चाहिये, उन्हें और ज़्यादा मेहनत करनी चाहिए, वे अमीरों से जलते हैं, शराब पीकर पड़े रहते हैं, और मेहनत नहीं करते, हमें देखिये हम अमीर अपने ज्ञान के कारण ही आराम से जी रहे हैं,
और दूसरों को भी काम पर रखने का ज्ञान रखते हैं। लिंक, World's richest woman says
poor should have less fun, work harder। इस महिला ने जो बात खुले रूप में कह दी उसी
बात को इस प्रकार के केबीसी जैसे प्रोग्राम अप्रत्यक्ष रूप से घुमा-फिरा कर
संप्रेशित करते हैं। थोड़ा और विस्तार से समझाने कि कोशिश करता हूँ। आज-कल हर
व्यक्ति आराम के लिए, बिना कोई काम किये, पैसे कमाने की कोशिश में रहता है।
वर्तमान पूंजीवादी समाज में हर व्यक्ति के जीवन का उद्धेश्य ही यह होता है।
वास्तव में उद्धेश्य और कुछ हो भी नहीं सकता, क्योंकि
जिसके पास कुछ भी नहीं है उसे भी सपने दिखाए जाते हैं कि वह ज्ञान के सहारे
"हॉट सीट", यानि आराम कि ज़न्दगी, पाने में सफल हो
सकता है। यदि यह सपना न दिखाया जाए और सबको खुले आम बता दिया जाए कि
लोग जो भी काम करते हैं उससे कुछ थोड़े से लोग तो बिना काम किये ही आराम कि
ज़िन्दगी जी रहे है, और समाज के बाकी लोगों के पास सिर्फ आराम का
सपना देखते हुए जनावरों कि तरह काम करने के आलावा और कोई विकल्प नहीं
है, इस स्थिति में
अनेक लोगों का शोषण करने वाली वर्तमान व्यवस्था का तो भविष्य ही खतरे
में पड़ जाएगा। यह सोचने
वाली बात है, और आसानी से समझ में आ जाती है। आगे देखें तो आजकल की मुनाफा केन्द्रति व्यवस्था में 80 प्रतिशत से
भी अधिक लोग (20 रुपयों से कम पर प्रतिदिन जीने वाले 77% लोगों को मिला कर...)
सिर्फ अच्छे भविष्य का सपना देखते हुए सिर्फ एक कोरी
उम्मीद में ही अपना पूरा जीवन गुज़ार रहे हैं, और शोषण पर आधारित उत्पादन संबंधों
में कुछ लोग आराम की हॉट शीट पर बैठ कर अपने ज्ञान (जैसा कि वे कहते हैं,
लेकिन सुबह से लेकर रात तक हर चीज जो वे स्तेमाल करते हैं, वह श्रम से पैदी की गई
होती है, न कि ज्ञान से) के सहारे बिना कोई काम किये चैन की जिंदगी गुज़रते
हैं।
अब हॉट सीट का मतलब और ज्यादा
स्पष्ट हो गय़ा होगा, और मुझे लगता है की यदि हम
सिर्फ शब्दों को शब्दो के रूप में न लें और उनमें छिपे अर्थ को समझने की कोशिश
करें, तो बात और स्पष्ट
हो जायेगी की बचपन से लोगों को ज्ञान पाने के लिए जिस तरह प्रोत्साहित किया जाता
है, वह तो सिर्फ इस
"हॉट सीट" पर पहुँचने के लिये होने वाली प्रतिस्पर्धा के लिए ही किया
जाता है। आज कल की व्यवस्था में हर व्यक्ति के लिए काम करने का प्रेरणा श्रोत भी यही प्रतिस्पर्धा है, जो फायदे के चक्कर में पूरी व्यवस्था को एक अराजकता की तरफ लेकर जाती है, और कालाबाज़ारी,
भ्रष्टाचार, मंदी, महंगाई जैसी अनेक घटनाओं को जन्म देती है, जिनके ज़्यादा विस्तार में जाने के लिए यहाँ जगह की कमीं और विषय से भटकान के कारण यहीं छोड़ना होगा।
यदि कहा जाये कि "ऐसा कोई भी नहीं मिला जो हॉट सीट के बारे में सोचता हो", तो ऐसी स्थिति
में हमें अपने देश में मध्य-वर्ग के माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को पढ़ने के लिए उत्साहित करने के
लिये जो सबसे प्रसिद्ध टिप्पणी की जाती है हमें उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा, जिसका भावार्थ होता है कि, "पढ़ोगे नहीं तो घास
खोदोगे!!", घास खोदना, यानि शारीरिक श्रम करना, यानि मजदूरी, यानि यदि
पढ़कर ज्ञान प्रप्त कर लोगे तो घास नहीं खोदना पड़ेगी, मतलब मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
मुझे लगता है कि हॉट सीट का भावार्थ थोड़ा स्पष्ट करने में थोड़ी सफलता तो अब मुझे
मिली होगी।
अब इस प्रचार के सकारात्मक
और नकारात्मक पक्षो की बात करते हैं। इसका एक नकारात्मक प्रतिक्रियावादी पहलू यह
है की यह पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा के पक्ष में लोगों के विश्व द्रष्टिकोण
को ढालने की काम करता है, लोगों को मानवद्रोही-व्यक्तिवादी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। इसके
साथ ही इसका दूसरा पहलू जो प्रतिक्रियावादी होते हुए भी सकारात्मक है,
वह यह है की जब ऐसे कुछ व्यक्ति इस विश्व द्रष्टिकोण के साथ व्यवस्था में सफल होने
के लिए वास्तविकता से रूबरू होता हैं तो उनके सामने सारी व्यवस्था की कलई खुलने लगती
है, और इसका मानवता द्रोही चेहरा उनकि सीमने नंगा हो जाता है, और अगर उस समय उनके सामने
कोई प्रगतिशील विकल्प मौजूद हो, तो वे उसे जल्दी ग्रहण करेंगे, उन लोगों की तुलना
में जो बचपन से ही किसी सपने के बिना जीते जा रहे हों और कुछ भी ऐसा ना सोचते हो
और सिर्फ थोड़ा बहुत करने की इच्छा ही रखते हो। दूसरी सकारात्मक पहलू वाली बात
हर व्यक्ति के लिये एक समान रूप से लागू नहीं होती, बल्कि व्यक्ति की अन्य सामाजिक
परिस्थितियों पर निर्भर करती है, लेकिन पहली नकारात्मक पहलू वाली बात ज़्यादातर
मध्यवर्ग के लोगों पर लागू होती है।
"मैं इन तर्कों के माध्यम से यह नहीं
नकार रहा कि ऐसे नाटक लोगों में एक लालच का भी प्रचार करते हैं"
इसके बारे में
मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि इस पूरी पोस्ट में कहीं भी मैने लोगों के
व्यक्तिगत लालच पर कोई टिप्पणी नहीं की है, हाँ व्यक्तिवादी मानशिकता का
हवाला दिया है, पूरी व्यवस्था के हित में प्रतिस्पर्धा को उचित ठहराते हुए,
ज्ञान को सफलता की कुंजी बताते हुये जिस प्रकार समाज की बहुसंख्यक आबादी का
अल्पसंख्यक आबादी द्वारा किये जा रहे शोषण को ज़ायज ठहराने का जो काम लोगों की
आंखों पर एक पर्दा डालकर किया जा रहा है वह घोर प्रतिक्रियावादी, मानवद्रोही और
झूठ है, यानि व्यवस्था के हित में है, और जनता के विरुद्ध। यदि हम उसे एक वैज्ञानिक
दृश्टिकोंण से समझने की कोशिश करें तो हर व्यक्ति को नायक भक्ति से बाहर निकल कर इसकी
सच्चाई को उज़ागर करने के लिये किसी भी स्तर पर प्रयास करने चाहिये।
"जितनी
कठोर प्रतिकिया आपने केवल एक नाटक को लेकर की, शायद उतना यह नाटक देखने वाली
जनता "केवल हॉट सीट पर बैठकर पैसा कमाने" की नहीं सोचती"
मैने कठोर
प्रतिक्रिया की, हो सकता है कि यह बात कुछ लोगों को सही लगे। लेकिन यदि कठोर की है
तो मैने ऐसा क्यों किया, उस पर एक बात मैं कहना चाहता हूँ, कि यदि इस कार्यक्रम के
द्वारा किये जा रहे प्रचार के पहलूओं को देखें तो जिस तरह समाज के लोगों के अवचेतन
पर असर डालने वाला प्रचार इस प्रोग्राम के माध्यम से किया जाता है वह एक दूरगामी प्रतिक्रियावादी
मानशिकता को जन्म देता हैं और लोगों के नज़रिये को संकुचित करता है, उसे समाज को एक
प्रगतिशील रास्ते पर ले जाने के रोकता है, और वैचारिक रूप से उसे कूपमंडूक बनाता
है। क्योंकि, जो खुले रूप में होता है वह ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचता, क्योंकि
थोड़ी समझ रखने वाला व्यक्ति भी उसे नकार देता है।
मैंने यहाँ जो
पोस्ट डाली है वह एस बात को ध्यान में रखा कर डाली है कि क्या इस
तरह की सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से जो प्रचार किया जा रहा है, उसमें अन्तर्निहित विचारों
का क्या तीखे रूप में भंडाफोड़ नहीं किया जाना चाहिए ? . . . ? वैसे हर सामाजिक घटना और हर शब्द को, उसमें निहित अर्थ
के साथ समझा जाए तो कई चीजें बिलकुल साफ़-साफ़ स्पष्ट हो जाती हैं।
"दूसरी बात यह कि यह नाटक केवल
मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय लोग ही देखते हैं - मैं इस
बात से भी सहमत नहीं हूँ "... "मेहनतकश जनता की भौतिकवादी
सोच पर मेरा इतना तो भरोसा है" "भले ही ७७% देश की जनता २० रूपए
प्रतिदिन से कम पर अपना जीवन व्यतीत करती हों, मगर उनमें भी
अधिकतर लोग T.V. ज़रूर
देखते हैं..."
यहाँ आपत्ति का
मुद्दा यह लग रहा है कि मैने मध्यवर्ग की बात पर इतना ज़ोर क्यों दिया। क्योंकि,
यह वर्ग शिक्षित है और समाज का एक मुख़र तबका है, जो राजनीति पर "बहस"
करता है, टीवी प्रोग्रामों की आलोचना या प्रशंसा करता है, नेताओं को गाली देता हैं
और उनकी बुराई करता है, और उन्हें घर बैठे "सलाह" भी देता है, जो देश से
प्रेम करता हैं, और इपने देश प्रेम में देश की उस 77% जनता की उपेक्षा कर देता है
जो भुखमरी की कगार पर जीती है, यह लगातार सरकार से और सुविधाएँ मागने के लिये कभी
कभी सड़कों पर भी आता है, जब तेल के दाम बढ़ जाते हैं या गाड़ियाँ महंगी हो जाती
हैं, यह समाज का वह हिस्सा है जिसके हित में सरकार अपना 80 फ़ीसदी से भी ज़्यादा
समय और संसाधन बर्बाद करती है, और सबसे बड़ी बात तो यह कि यही वर्ग पूरे समाज में वर्तमान
व्यवस्था के पक्ष में एक जनाधार बनाने का काम भी करता है।
अब बात करते हैं
कि क्या मज़दूर और किसान भी के.बी.सी. जैसे प्रोग्राम देखते हैं और करोड़पति बनने
के सपने देखते हैं? मैं इस बात से सहमत
नहीं हूँ क्योंकि यह तथ्यता गलत है। मज़दूर अमिताभ बच्चन को कुली, लाल-बादशाह, शहंशाह
और शोले जैसी फिल्में के लिये तो जानते हैं, लेकिन केबीसी जैसे मध्यवर्ग के
प्रोग्राम से उन्हें ज़्यादा लगाव नहीं हो सकता। ऐसा क्यों है, इसका कारण भारत के
मज़दूरों की जीवन परिस्थितयों में निहित हैं, जैसा कि 77 प्रतिशत लोग तो 20 रु से
भी कम पर जाने वाले हैं, और जो कारखाने के घुटन भरे माहौल में 12 से 16 घंटे काम
करके 8-10 घंटे के लिये घर आते हैं वे मज़दूर के.बी.सी. जैसे मनोरंजन प्रोग्राम को
बर्दास्त नहीं कर सकते। भौतिकवाद की बात करें तो अपनी गुलामों जैसी स्थिति में मज़दूर
करोड़पती बनने का सपना भी नहीं देखता। मज़दूर काफ़ी व्यावहारिक विचारों वाले होते
हैं, उनका सपना सिर्फ इतना होता है कि किसी तरह उनके बच्चे बड़े होकर उनके काम में
हाथ बंटाने लगें, और किसी तरह पूरे घर को दो बक्त की रोटी मिलती रहे, ज़्यादा से
ज़्यादा वह यह सपना देखता है कि किसी दिन कम्पनी में स्थाई मज़दूर बना दिया जायेगा।
उनकी परिस्थितियां इससे अधिक सोचने का मौका उन्हें नहीं देतीं। हाँ कुछ निम्न
मध्यवर्गीय या सफेदपोश मज़दूरों में यह सपने देखने के उदाहरण दिये जा सकते हैं,
लेकिन भारत के मज़दूरों की ठेके पर काम करने वाली 93 प्रतिशत आबादी में यह देखने
को नहीं मिलता।
इन सभी विचारों
पर हमें फिर से सोचना होगा क्योंकि यह सारे प्रचार वास्तव में वर्तमान पूँजीवादी जनवादी व्यवस्था में लोगों के विचारों को भी तोड़-मरोड़ कर उनको समाज विरोधी दृश्टकोंण देने का काम करते हैं, जो लोगों के बीच मौज़ूद थोड़े बहुत जनवाद को भी नष्ट-भ्रष्ट करता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)
Categories
- Anti-Corruption Movements (भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन) (7)
- Business of Education (शिक्षा का व्यवसाय) (1)
- Degenerated Values of Capitalism (पूंजीवाद के विकृत मूल्य) (6)
- Labor Day 2011 (4)
- On Women's Question (महिला प्रश्न) (6)
- Politics Individual and Social Life (2)
- Quotations (उद्धरण) (59)
- Religious Fetishism (धार्मिक अंधभक्ति) (11)
- Revolution and Marxism (क्रांति और मार्क्सवाद) (4)
- Revolutionary-Writers (क्रांतिकारी-लेखक) (3)
- Science and Social System (विज्ञान और समाज) (5)
- Social Movements (आंदोलन) (5)
- Survey Reports on Workers (मजदूरों पर सर्वे रिपोटें) (9)
- Workers Condition (मजदूरों की स्थिति) (12)
- Workers Movements (मजदूर आन्दोलन) (9)
Revolutionaries : Writers
- Anton Chekhov (अन्तोन चेखव) (1)
- Balzac (बाल्ज़ाक) (2)
- Bhagat Singh (भगत सिंह) (8)
- Chernyshevsky (चार्नेशेवेश्की) (4)
- Denis Diderot (दिदेरो) (1)
- Dobrolyubov (दोब्रोल्युबोव) (1)
- Dostoevsky (दोस्तोयेव्स्की) (2)
- Engels (एंगेल्स) (3)
- Fedin (फेदिन) (2)
- Gogol (गोगोल) (1)
- Howard Fast (हावर्ड फास्ट) (2)
- John Reed (जॉन रीड) (1)
- Karl Marx (कार्ल मार्क्स) (11)
- Lenin (लोनिन) (9)
- Lu Xun (लू सुन) (3)
- Maxim Gorky (मक्सिम गोर्की) (10)
- Pablo neruda (पाब्लो नेरूदा) (4)
- Pisarev (पिसारेव) (1)
- Premchand (प्रेमचंद) (1)
- Rahul Sankrityayan (राहुल सांकृत्यायन) (1)
- Tolstoy (तोलस्तोय) (6)
- Yang Mo (यान मो) (1)
- चन्द्रशेखर आजाद (2)
Popular Posts
-
रुढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं , क्योंकि उनके सामने रुढ़ियों को तोड़ने के उदहारण पर्याप्त मात्र में नहीं हैं। लोगों को इस ख़्याल का जो...
-
पिछले कुछ दिनो से दुनिया की जनसंख्या 7 विलियन पहुँच जाने पर अलग-अल...
-
This small selection is shared from the research papers of Grover Furr, based on the study of Stalin...
-
पूँजीवादी " जनतंत्र " और " चुनावतंत्र " ?? [ हर समस्या अपने समाधान के साथ उत्पन्न होती है – कार्ल मार्क्स ] ...
-
These days most of the agitations and slogans of anti-corruption movement are seems on hold. May be corruption fighters are on the way to ...
-
“Art is not a mirror held up to reality but a hammer with which to shape it.” ― Berol Brecht विज्ञान में रुची रखने वाले आलोच...
-
“ दर्शन मानव मुक्ति का मस्तिष्क है और सर्वहारा वर्ग उसका हृदय। सर्वहारा वर्ग का उन्मूलन किये बिना दर्शन को एक वास्तविकाता नहीं बनाया ...
-
पीके फिल्म के बारे में अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यमों से काफी तारीफ सुनने को मिल रही है। जिन्होंने अभी यह फिल्म नहीं देखी है उन्हे...
-
Published in Mazdoor Bigul, January 2015 ( http://www.mazdoorbigul.net/archives/6713 ) दुनिया भर के साम्राज्यवादी देशों के आका आध...
-
समाज की आधी आबादी का घरों में कैद रहना वर्तमान व्यवस्था के लिये वरदान है!! देश के नेताओं व धर्म गुरुओं के बयानों एक नज़र!! ...