"यदि मंदिर नहीं होंगे, तो आदमीं कहाँ जाएगा, इंसान को कम से कम कोई तो ऐसी
जगह चाहिए जहाँ जाकर वह थोड़ी देर के लिए शांति पा सके और चैन ले सके।", एक व्यक्ति ने भगवान के लिए ज़्यादा
से ज़्यादा मंदिर बनाने का समर्थन करते हुए कहा। एक दिन कुछ लोगों से बातचीत के दौरान धर्म, मंदिरों और ईश्वर पर बात हुई तो एक मित्र ने ईश्वर और मंदिरों के बारे में
अपनी बात थोड़ी और स्पष्ट करते हुए यह बात कही।
वास्तव में यह किसी एक धार्मिक
व्यकित का विचार ही नहीं हैं, बल्कि सचेतन या अचेतन रूप से सारे धार्मिक व्यक्ति
यही सोचते हैं, और इसी विचार के साथ मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों में
जाते हैं।
अपने काम से असंतुष्ट, समाज
में अलगाव के शिकार, सामाजिक असुरक्षा से
घिरे ज़्यादातर आम लोगों को उनके आस-पास की सामाजिक परिस्थितियों का दबाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप
में एक निरुद्धेश्य-लक्ष्यहीन जीने के लिए मज़बूर करता है, इसलिए वे कभी धार्मिक
क्रियाकलापों के माध्यम से दूसरे
लोक में मिलने वाली महानता की कल्पना करके चैन पा लेता है, तो कभी अपनी जिन्दगी की परिस्थितियों
से ज्यादा परेशान होने पर मंदिरों-मस्जिदों में जाकर ईश्वर के सहारे "कुछ देर" के लिए चैन की तलाश करते हैं।
इसके साथ समाज पर शासन करने वाले वर्गों को चैन भी मिला रहता
है, क्योंकि यह सभी धार्मिक व्यक्ति अपनी परेशानियों और कुछ लोगों द्वारा अपने
फ़ायदे के लिए समाज में मचाई गई लूट-ख़सोट पर भी ज़्यादातर कोई सवाला नहीं उठाते,
क्योंकि वह तो पहले से ही "दूसरे लोक के सुखों", "ईश्वर के न्याय" और "कयामत के दिन पर न्याय" जैसे जुमलों को सुन कर दूसरे लोक में मिलने
वाले आराम के बारे में सोच कर शान्त हो जाते हैं।
इसलिए जब एक धार्म-कर्म करने
वाले व्यक्ति यह शब्द कहता है तो हमारे सामने धर्म और ईश्वर के पैदा होने से उनका
अंत होने तक की हर भौतिक परिस्थिति
की अभिव्यक्ति करा देता है। धर्म और ईश्वर की कल्पना लोगों ने क्यों की, क्योंकि सदियों से समाज में आम लोगों को अपनी भौतिक परिस्थितियों में चैन नहीं मिला है। कभी वे ग़ुलाम थे तो गुलाम के मालिकों के लिए जानवरों
की तरह काम करते थे, कभी वे भूदास और किसान थे जो जमींदारों के लिए बैलों की तरह
खेतों में लगे रहते थे, और आज-कल जब वे मेहनत करने वाले हर प्रकार की "संपत्ति से स्वतंत्र" मज़दूर (मानशिक या शारीरिक) हैं तो पूँजीपतियों और ठेकेदारों के मुनाफ़े .... More...