Saturday, January 12, 2013

महिलाओं के प्रति होने वाली सुव्यवस्थित हिंसा के कुछ आंकड़े . . .




समाज की आधी आबादी का घरों में कैद रहना वर्तमान व्यवस्था के लिये वरदान है!!
देश के नेताओं व धर्म गुरुओं के बयानों एक नज़र!!

Reference: From www.wccpenang.org
पिछले कुछ दिनों से पूरे देश की जनता समाज में महिलाओं की समानता के लिये उनके साथ होने वाले गैरबराबरी के व्यवहार के विरुद्ध सड़कों पर प्रदर्शन कर रही है। जिस प्रकार बड़ी संख्या में महिलायें और नौजवान वर्तमान पितृ-सत्तात्मक पुरुष-प्रधान मानसिकता को सड़कों पर चुनौती दे रहे हैं, इसने सरकार में बैठे अपराधियों, दलालों और जनता की मेहनत पर पलने वालों की नींद उड़ा दी है। यदि महिलायें अपने अधिकारों के बारे में जागरुक होकर समाज में अपनी समान स्थिति की माँग के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो हर महिला के लिए सभी जनवादी अधिकारों की आम माँग भी इसके साथ उठाई जायेगी और इसी पहलकदमीं के माध्यम से समाज के हर नागरिक को अपने आधिकारों तथा अपनी ताकत से रूबरों होने का मौका भी मिलेगा। जब एक अन्याय के विरुद्ध कोई आवाज उठाती है तो उदासीन से उदासीन व्यक्ति भी हर प्रकार के अन्याय के विरुद्ध सोचने और संघर्ष करने के लिए विवश हो जाते हैं। यही बजह है कि जब जनता सड़कों पर है तो पितृसत्तात्मक मूल्यों की रक्षा करने के लिए सत्ता में बैठे "जनप्रतिनिधियों", धर्म की राजनीति करने वाले हिन्दू कट्टरपंथियों, हिन्दू और मुस्लिम धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह करने वाले कई साधुओं-मुल्लाओं तथा प्रशासनिक अधिकारीयों को महिलाओं को नसीहत देते देखा जा सकता हैं। इन बयानों के साथ देश में महिलाओं की वास्तविक स्थिति के विश्लेषण की ज़रूरत है तभी इनकी अतार्किकता को समझा जा सकता है।
हमारे यहां सदियों से पुरुष-प्रधान मानसिकता के नज़रिये से परिवार में महिलाओं की स्थिति को ऐसा माना जाता है कि वह सम्पत्ति के वारिस बेटों को जन्म देने और उन्हें पालने वाली एक गुलाम है। महिलाओं के जीनव का अस्तित्व इससे अधिक नहीं माना जाता कि वह पुरुष वर्ग और परिवार के लिए एक इज्जत की वस्तु है। यही कारण है कि उन्हें घर से न निकलने देने, पर्दा रखने जैसी दकियानूसी परम्पराओं को उनके ऊपर थोपा जाता रहा है। इन्हीं परम्पराओं और रूढ़ियों के बीच पल-बढ़ रही नई पीढ़ी के पुरुष महिलाओं की बढ़ रही स्वतन्त्रता को स्वीकार नहीं कर पाते जो महिलाओं के प्रति हिंसा के अनेक रूपों में सामने आती है। इसी का परिणाम है कि 16 दिसम्बर जैसी बलात्कार और नृशंशतापूर्ण हिंसा के मामले पूरे देश में हर दिन सामने आ रहे हैं। जिसमें महिलाओं के साथ बलात्कार और हिंसा होती है, और कई घटनाओं में अमानवीय हिंसा के कारण पीड़ित महिला की मृत्यु हो जाती है।
ऐसी स्थिति में सवाल सिर्फ बलात्कार का नहीं है, बल्कि अनेक रूपों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा का है। और यह हिंसा भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश में रूढ़िवादी सामन्ती मूल्यों को ढो रही कूपमण्डूक संस्क्रति का परिणाम हैं। इन घटनाओं के प्रति वर्तमान राज्य द्वारा की जाने वाली उदासीनता इन आपराधिक घटनाओं को बढ़ावा देने का काम करती है। इसी सन्दर्भ में देश के सत्ता-पक्ष एवं विपक्ष के नेताओं ने दिल्ली की घटना के बाद ऐसे बयान दिये हैं जिनका यह आसय है कि बलात्कार की शिकार लड़की एक "जिन्दा लाश रह जाती है", "अब वह जी कर क्या करेगी"!! इन तरह के बयानो के पीछे यह मानसिकता होती है कि महिलाओं का जीवन सिर्फ पुरुषों के अधीन ही है, पुरुषों की नज़र में उनकी इज्जत ही उनका अस्तित्व है, और इसके बिना उनका न तो कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है और न ही उनके जीवन का कोई और मूल्य, यानि वह "जिन्दा लाश" के समान है! अभी हाल ही में हिन्दू संगठन आरएसएस के अध्यक्ष भागवत ने तो कह दिया कि महिलाओं की जगह पतियों के घरों में है, उन्हें घरों से बाहर ही नहीं निकलना चाहिए, बुर्के या पर्दे में ढक कर रहना चाहिए। भगवत का कहना था कि रेप जैसी घटनाएँ "भारत" में नहीं होती, बल्कि "इण्डिया" में होती हैं, जहाँ महिलाओं को "ज़्यादा" स्वतन्त्रता मिली हुई है। "वैदिक युग" "धर्म गुरू भारत" जैसे अलापों के साथ आम जनता को मुख्य मुद्दों से गुमराह करने वाले यह लोग सोचते हैं कि देश की जनता मूर्ख है, इसलिये वे चाहे कुछ भी बोलें लोग उसे मान लेंगे। इसलिये यह लोग ठीक तरह से तथ्यों का भी निरीक्षण नहीं करते और यूँ ही कुछ भी राग अलाप देते हैं! जबकि सच्चाई यह है कि ज़्यादातर बलात्कार और महिलाओं के प्रति हिंसा देश के गाँवों में और छोटे कस्बों, और घरों में ही होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जबकि जाति के नाम पर ग्रामीण इलाकों में ऊँची जाति के लोगों द्वारा दलित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार करने उनको उत्पीणित करने से लेकर गाँवों में कपड़े उतार कर घुमाया गया। कई ऐसी घटनाएँ भी हैं जहाँ धर्म के नाम पर होने वाले दंगों के दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार से लेकर उनकी कोख में बच्चों तक को मार डाला गया। जैसा कि 2002 के गुजरात दंगों में हुआ था।
जो लोग महिलाओं को घरों से बाहर न निकलने और पर्दा रखने के मूर्खतापूर्ण सुझाव देते हैं, उन्हें सायद यह नहीं पता कि महिलाओं के साथ हिंसा और छेड़छाड़ की ज्यादातर घटनाएँ सड़कों नहीं बल्कि घरों में होती हैं, और इनमें परिवार, रिश्ते और जानपहचान के लोग ही शामिल होते हैं। लेकिन इनमें से बहुत कम ही घटनाएँ सामने आ पाती हैं क्योंकि परिवार देश का पुरुष प्रधान समाज महिलाओं का साथ व्यापक स्तर होने वाली शोषण की इन घटनाओं को अपनी "इज्जत" के नाम पर छुपा लेता है। लेकिन यह सब जानते हुये भी (हम मान सकते हैं कि इन लोगों को यह पता होगा!!) फासीवादी विचारधारा के कुछ लोग महिलाओं के प्रति होने वाली इन घटनाओं के लिए समाज में महिलाओं की पुरुषों के अधीन स्थिति और रूढ़िवादी संस्क्रति तथा वर्तमान कानून व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराने की जगह महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
भारत में महिलाओं की स्थिति की हकीकत के कुछ और आंकड़े चौंका देने वाले हैं। यूनाइटेड नेशंस डिपार्टमेंट ऑफ़ इकनोमिक एंड सोशल अफेयर्स (UN-DESA) द्वारा 150 देशों की पिछले 40 साल की स्थिति पर किये गये एक सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ भारत और चीन ही ऐसी देश हैं जहाँ लड़कियों की मृत्यु दर लड़कों से अधिक है। जहाँ अन्य विकाशसील देशों में लड़कों और लड़कियों की मृत्यु दर का यह अनुपात 122 पर 100 हैं, वहीं भारत में यह 56 लड़कों पर 100 लड़कियाँ है। यहाँ तक कि पाकिस्तान और श्रीलंका में भी यह संख्या 100 लड़कियों की तुलना में क्रमशः 120 और 125 है। जबकि जीव विज्ञान के अनुसार लड़कियाँ लड़कों से अधिक मज़बूत होती हैं। भारत में लड़कों व लड़कियों के बीच असमानता सूचक इन आंकड़ों का मुख्य कारण है कि भारत में महिलाओं की स्थिति और उनके प्रति पुरुषों का नज़रिया। यहाँ के माता-पिता लड़कियों की देख-रेख और चिकित्सा में लड़कों की तुलना में काफ़ी कम ध्यान देते हैं। कई माँ-बाप तो लड़कियों का बचपन में ही मर जाना अपनी जिम्मेदारी से झुटकारा समझते हैं, क्योंकि इससे वे शादी के खर्च बच जाते हैं ('Killing Them Softly', EPW, Vol - XLVIII, 05 January 2013)। महिलाओं के प्रति हिंसा के यह सभी आंकड़े लोगों की आर्थिक स्थिति से पैदा हुई उनकी अमानवीय सोच की एक झलक मात्र हैं। एक और रिपोर्ट को देखें तो पूरे देश में हर दिन गरीब परिवारों की लगभग 288 महिलाओं की प्रशव के दौरान उचित चिकित्सा न मिलने से मौत की हो जाती है (India Events of 2007, www.hrw.org, 31 January 2008)। क्या इन "हत्याओं" को महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों और हिंसा के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिये, जिसके लिये वर्तमान व्यवस्था सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। जहाँ समाज की बहुसंख्यक आबादी रोजगार न होने के कारण, अनेक संसाधनों के मौजूद होने के बावज़ूद, सभी मूलभूत अधिकारों से बेदखल होकर गरीबी में जीने के लिये मज़बूर है।
वर्तमान व्यवस्था में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा की ही बात करें तो पूरे देश में कश्मीर और पूर्वोत्तर-भारत से लोकर छत्तीशगढ़ तक कई ऐसी घटनायें दर्ज हैं जिनमें पुलिस और सेना ने महिलाओं को गिरफ़्तार कर उनके साथ बलात्कार और हिंसा की (Indian Army, Rape Us, LRB Blog, 8 January 2013)। इसके साथ देश में बलात्कार की अनेक घटनायें अपंग महिलाओं, बच्चियों, हस्पताल में मरीजों और बुजुर्ग महिलाओं के साथ होती हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2011 में 22,549 बलात्कार की घटनायें दर्ज की गईं जिनमें से 1,927 बलात्कार रिश्तेदारों द्वारा किये गये थे (75% of rape convicts from 'Bharat', Times of India, 5 January 2013) भारत में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा आम बात है जो कहीं दर्ज नहीं होती। एक आंकड़े के अनुशार देश में हर साल घरेलू हिंसा में लगभग 8,000 महिलाओं की हत्या के मामले दर्ज होते हैं (Bride burning in india 2Dowry death TOI, 27 Jan 2012)। वर्तमान समाज के मानव-विरोधी नकाब को नंगा करने वाली एक सच्चाई यह भी है कि सुनिश्चित आजीविका न होने के कारण अनेक अपराधी मानसिकता के धन्धेबाज, महिलाओं और बच्चियों की आर्थिक मज़बूरी का फायदा उठाकर उनसे वैश्यावृत्ति जैसे काम कारवाकर पैसे कमाने में लगे हैं। क्या इसे महिलाओं के प्रति हिंसा नहीं माना जायेगा जिसके लिये समाज में महिलाओं की आर्थिक स्थिति जिम्मेदार है। जिसका कारण है कि वर्तमान व्यवस्था द्वारा लोगों के विकाश पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और इसका मुख्य उद्देश्य पूँजीपति वर्ग को मुनाफ़ा निचोड़ने के साधन मुहैया करवाना है। जिसके कारण भारत की आर्थिक विकाश दर काफ़ी ऊँची होने के बावजूद भारत मानवीय विकास सूचकांक में 187 देशों की सूची में 137वें स्थान पर है (India ranked 134th in terms of Human Development Index, NDTV, 02 November 2011)।
महिलाओं की आर्थिक बेवसी का फ़ायदा उठाकर काम के दौरान उनके साथ होने वाली छेड़छाड़ और भेदभाव की घटनायें आम बात हैं, जिनका कभी कहीं जिक्र नहीं होता। काम करने वाली महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव का परिणाम यह है कि पिछले दस सालों में पूरे देश में मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में कमी आई है, लेकिन इसके साथ ही महिला मज़दूरों का वेतन पुरुषों की तुलना में आधा हो गया है। यानि महिलाओं के साथ काम के क्षेत्र में भी भेदभाव किया जाता है और समान काम के लिये उन्हें पुरुषों से कम मज़दूरी दी जाती है (Labour Force Participation of Women in India, Asia Research Center, 2011)। महिलाओं के प्रति भेदभाव और हिंसा यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि देश के कई हिस्सों में गरीबी के कारण लोगों की संवेदनाओं का इस हद तक अमानवीकरण हो चुका है कि कई माता-पिता अपनी बेटियों को कुछ पैसों के लालच में बेंच देते हैं। इसका मुख्य कारण भी सामाज के वह रूढ़िवादी मूल्य हैं, जिनके अनुसार लड़कियों को पिता और पति की सम्पत्ति समझा जाता है।
सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ महिलाओं के प्रति खुलेआम अपराधों के बढ़ने का एक कारण पूँजीवादी राज्य और सरकार के प्रतिनिधियों की महिला विरोधी सोच और प्रशासन द्वारा इस प्रकार की घटनाओं के प्रति उदासीनता है। इसका मुख्य कारण है कि स्वयं सरकार में चुने गये एक-तिहाई यानि 543 में से 158 नेताओं पर हत्या और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधिक मामले दर्ज हैं (Why do India's MPs love guns? BBC, 3 August 2012)। इसी के साथ देश के कुल 4,835 विधायकों में से 1,448 विधायक भी अपराधिक पृष्ठभूमि से हैं (SC to hear plea for removing MPs, MLAs, www.indiapost.com, 4 January 2013)। यहाँ हमें यह समझना होगा कि जब एक तरफ पूरी जनता, पुरुष और महिलायें, महिलाओं के लिये समान अधिकारों की माँग को लकर सड़कों पर हैं तो जनता के प्रतिनिधि, धर्म गुरु, मुल्ला और बाबा अपना अलग राग क्यों अलाप रहे हैं? वास्तव में वर्तमान सरकार कुछ मुठ्ठीभर विशेषाधिकार प्रप्त लोगों की सेवा में नीतियाँ बनाने का काम करती है, और धर्म का प्रचार प्रसार करने वाले ग्रुप उनका समर्थन करते हैं। इसलिये इन सभी का हित इसमे निहित है कि वे पितृसत्तात्मक सामन्ती विचारों के समर्थन में बयान देकर देश की रूढ़िवादी संस्क्रति को बचा लें, जिसके अनुसार महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिये और अपना पुरुषों के अधीन अस्तित्व स्वीकार कर लेना चाहिये। इसका सीधा राजनीतिक फ़ायदा वर्तमान शासक वर्ग को होता है, क्योंकि इससे देश की आधी आबादी, यानि महिलाओं, को सामाजिक कार्यों में हिस्सेदारी से अलग कर दिया जाता है। यदि देश की महिलाओं आबादी भी घरों से बाहर निकलकर पुरुषों के साथ कदम मिलाकर अपने अधिकारों के लिये उठ खड़ी होगी तो शासकों के लिये शोषण की नींव पर खड़ी पूँजीवादी व्यवस्था में जनता पर शासन करना आसान नहीं रहेगा।
प्रदर्शनों के दौरान भी लगातार महिलाओं के प्रति हिंसा और बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टों आ रही हैं, जो वर्तमान प्रशासन की उदाशीनता का स्पष्ट उदाहरण हैं। इन घटनाओं के पीछे आर्थिक कारणों पर एक सरसरी नज़र डालना ज़रूरी है। 1990 में लागू की गई उदारीकरण-निजीकरण और खुले बाज़ार की नीतियों के बाद माल-अन्धभक्ति की संस्क्रति को नौजवानों के बीच लगातार बढ़ावा दिया गया रहा है। पूँजीवादी प्रचार तन्त्र लगातार इस माल-अन्धभक्ति को खाद-पानी देने का काम कर रहा है, जिससे समाज में कमाने-खाने और मौज मनाने वाली मानसिकता का एक लम्पट-कूपमण्डूक तबका पैदा हुआ है, जो देश-दुनिया के इतिहाश से कटा हुआ है और साहित्य-संस्क्रति से कोसों दूर है, और जिसकी सोच का दायरा अत्यन्त संकीर्ण है। वर्तमान पूँजीवादी विकास के दौरान पैदा हुये इस कुण्ठित मानसिकता वाले लम्पट तबके की सोच होती है कि पैसों के सहारे हर वस्तु को ख़रीदी जा सकता है और उनके लिए पैसा ही सबसे महात्वपूर्ण होता है। इस मानसिकता को बढ़ाने में वर्तमान प्रचार-मनोरंजन तन्त्र का भी बड़ा हाथ है। साथ ही माल-अन्धभक्ति का प्रचार करने के लिये महिलाओं के वस्तुकरण को बढ़ा-चढ़ा कर प्रदर्शित करने में विज्ञापनो, फिल्मों, टीवी-सीरियल और गानों ने भी एक बड़ी भूमिका निभाई है, जिसमें अपने उत्पादों को बेंचने के नाम पर नारी विरोधी कूपमण्डूक मूल्यों और फूहड़ता को बढ़ावा दिया जाता है। सबसे बड़ी बिडंबना तो यह है कि जब पूरे देश की जनता सड़कों पर प्रदर्शन कर रही है तब एक ओर तो न्यूज चैनलों पर महिलाओँ की स्थिति पर बहस होती देखी जा सकती है, और दूसरी ओर कार्यक्रमों के साथ-साथ विज्ञापनों में महिलाओं का वस्तुकरण का प्रदर्शन भी माल-अन्धभक्ति के प्रचार के लिये चलता रहता है। वर्तमान मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में शब्दों में जिसका विरोध किया जाता है उसी का फायदा भी माल बेंचने के लिए उठाया जाता है।
सड़कों पर दिखा महिलाओं और नौजवानों यह गुस्सा समाज में हो रहे अनेक अत्याचारों के विरुद्ध है चाहे वह महिलाओं के विरुद्ध हिंसा हो या कोई और अपराध। सरकार अनेक कानून बनाती है और उनका लगातार प्रचार करती है, लेकिन व्यवहार में यह सभी कानून खोखले प्रचार मात्र ही साबित होते हैं है, इसके पीछे कोई ठोस कार्यवाही नहीं होती। सिर्फ प्रचार से ही लोगों को यह अहसास करवा दिया जाता है कि सरकार लोगों की सुरक्षा के लिये कड़ी मेहनत कर रही है। आज इन सभी तथ्यों और समाज की स्थिति पर बहस सिर्फ़ टीवी स्टूडियो में बैठकर या अख़बार तथा पत्रिकाओं में लेख लिखने वाले लेखकों, नेताओं, प्रोफ़ेशरों, संवाददाताओं या पत्रकारों तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि समाज में रहने वाले हर एक व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या महिला सभी को इसमें शामिल होना चाहिये, और बिना किसी समझौते के प्रगतिशील विचारों के पक्ष में अपने जीवन के हर फैसले लेने की पहल करनी चाहिये।
महिलाओं की स्वाधीनता का प्रश्न वर्तमान व्यवस्था के दायरे में सोच कर हल नहीं किया जा सकता। जब तक देश की सभी महिलाओं और पुरुषों को स्वतन्त्र रूप से रोजगार और आजीविका का अधिकार नहीं मिलेगा और महिलायें आर्थिक रूप से स्वाधीन नहीं होंगी तब तक उनकी सामाजिक स्थिति को नहीं बदला जा सकता। वर्तमान समय में आर्थिक इकाई के रूप में पारिवार पर निर्भरता होने के कारण काम करने वाली महिलाओं की सामाजिक स्थिति भी स्वाधीन नहीं होती। हमें हर प्रकार के अपराध, और किसी भी स्तर पर एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करनी होगी। क्या हमारा यह अडिग विश्वास नहीं है कि हर प्रकार के अपराध के विरुद्ध सड़कों पर आना न्ययसंगत है। इसके लिये सिर्फ प्रशासन और कानून नहीं, बल्कि समाज के हर नागरिक को आगे आना पड़ेगा।

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