Tuesday, May 24, 2016

गोर्की के लेख व्यक्तित्व का विघटन का एक अंश (फासीवाद के उभार और वर्तमान के व्यक्तियों को समझने के लिये) - A Quote by Maxim Gorky



"व्यक्तिवाद जिस समय अपनी मृत्युशैया पर अन्तिम साँसें गिन रहा था, उस समय पूँजीवाद, अपनी इच्छा के विरुद्ध समष्टि की पुरनर्सृष्टि कर रहा था और सर्वहारा वर्ग को एक ठोस नैतिक शक्ति में बलात् ढाल रहा था। धीरे-धीरे, किन्तु क्रमशः बढ़ती हुई गति से, इस शक्ति को यह चेतना प्राप्त होती गई कि विश्व की महान् समष्टि-शक्ति होने के नाते स्वतंत्र रूप से जीवन का पुनर्निर्माण करने का दायित्व अस पर ही है।
व्यक्तिवादियों को इस शक्ति का उदय होना ऐसा लगता है जैसे क्षितिज पर तूफानी बादलों की काली घटा घिर आई हो। यह शक्ति उनको उतनी ही डरावनी लगती है, जितनी शारीरिक मृत्यु, क्योंकि उनके लिए यह सर्वहारा वर्ग, जो संसार में तो एक नया जीवन फूँकने के लिये कटिबद्ध है, लेकिन आत्मा के इन अभिजात प्रतिनिधियों के बीच अपनी सहानुभूति बाँटने का इरादा नहीं रखता। इस स्थिति के प्रति जागरूक होने के कारण यह सज्जन सर्वहारा वर्ग से दिली नफ़रत करते हैं।
आध्यात्मिक दरिद्रता की स्थिति में पहुँचकर, विसंगतियों में फँसकर और हमेंशा समृद्धि के आरामदेह कोने में शरण लेने की हास्यास्पद और दयनीय चेष्टाओं में पड़कर, व्यक्ति विघटित हो रहा है और उसकी मानसिकता निरन्तर क्षद्र से क्षुद्रतर होती जाती है। इस बात की अनुभूति से और निराशा के आतंक से घबराकर, जिसे वह चाहे स्वीकार करता हो या स्वयं अपने-आपसे छिपाता हो, व्यक्तिवाद विक्षिप्त की तरह मुक्ति की तलाश में इधर-उधर भटकता फिर रहा है, और कभी अधिभौतिक तत्वज्ञान में डुबकी लगाता है, कभी पापाचार के कीचड़ में धँस जाता है, कभी ईश्वर की खोज करता है, तो कभी शैतान में विश्वास करने लगता है। उसकी समस्त खोज और व्याकुलता उसकी आसन्न मृत्यु की पूर्वसूचक है, और उसके भविष्य की ओर संकेत करती है जिसकी स्पष्ट चेतना उसे चाहे न हो, लेकिन जिसका तीखे रूप से वह अनुभव करने लगा है। आज का व्यक्तिवादी एक घबराहट भरे अवसाद के चंगुल में फंस गया है। वह अपना आपा और विवेक खो बैठा है और जीवन पर अपनी पकड़ कायम रखने के लिये जी-तोड़ कोशिश कर रहा है, लेकिन उसकी शक्ति दम तोड़ रही है और अब उसके पास अपनी चालाकी और धूर्तता के अलावा और कोई सहारा नहीं रहा, जिसे कुछ लोग मूर्खों का विवेक कहते हैं। अपने पूर्व-व्यक्तित्व का मात्र खोल ओड़े, आत्मा में थकान और मन में व्यग्र करने वाली आशंकाएँ लिये, वह अब कभी समाजवाद से इश्क फ़रमाता है तो कभी पूँजीवाद की खुशामद करता है, जबकि उसके अन्दर आसन्न मौत की पूर्वचेतना, उसकी क्षुद्र और बीमार मैं के विघटन की रफ़्तार को और भी तेज कर देती है। उसकी निराशा अब अक्सर एक भयंकर अनास्था का रूप ले लेती है और व्यक्तिवादी कल तक जिसकी पूजा करता आया था आज उसको उन्मादी की तरह नकारने और जलाने लगता है, क्योंकि नकारात्मकता की स्वभाविक परिणति इस तरह की उच्छृंखलता और गुंडागर्दी में ही होती है। मैं इस शब्द का प्रयोग करके उन लोगों का अपमान नहीं करना चाहता जो पहले से ही अपमानित किये जा चुके है, न तिरस्कृत लोगों का तिरस्कार करना चाहता हूँ – ज़िन्दगी स्वयं बड़ी कठोरता से उनके साथ ऐसा व्यवहार करती रही है—नहीं, मेरा मन्तव्य केवल यह है कि उच्छृंखलता और गुंडागर्दी दरअसल व्यक्ति के चरम विघटन का अकाट्य प्रमाण पेश करती है। यह शायद कोई पुराना मानसिक रोग है जो अपर्याप्त सामाजिक पोषण के कारण पैदा होता है, ज्ञानेद्रियों की कोई बीमारी है जो धीरे-धीरे कुंठित और सुस्त होती जाती है और परिवेश से प्रप्त प्रभावों को पर्याप्त तीव्रता से ग्रहण नहीं कर पाती और इस तरह व्यक्ति में एक प्रकार की बौद्धिक संज्ञाहीनता पैदा हो जाती है।
उच्छृंखल या गुंडा व्यक्ति ऐसा प्राणी होता है जिसमें सामाजिकता लेशमात्र को भी नहीं होती है। वह ऐस प्राणी होता है जो अपने आस-पड़ोस की दुनिया के साथ कोई ताल्लुक महसूस नहीं करता. हर प्रकार के जीवन-मूल्यों के प्रति अचेत होता है और धीरे-धीरे अपने-आपको नष्ट होने से बचाने की सहज वृत्ति भी खो देता है और अपने जीवन की कीमत से भी बेख़बर हो जाता है।"
-व्यक्तित्व का विघटन, मक्सिम गोर्की

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