Wednesday, April 8, 2015

राहुल संकृत्यायन की पुस्तक दर्शन-दिग्दर्शन से कुछ उद्धरण


Rahul (9 April 1893 – 14 April 1963)
"सत्ताधारी - धनिक और धर्मानुयाई - भौतिकवाद को अपना परम शत्रु समझते हैं क्योंकि वह समझते हैं कि परलोक की आशा और ईश्वर के न्याय पर से विश्वास यदि हट गया, तो मेहनत करते-करते भूखी मरनेवाली जनता उन्हें खा जाएगी, और भौतिकवादी विचारों के मतानुसार भूतल पर स्वर्ग और मानव-न्याय स्थापित करने लगेगी।" (पृष्ट-266, दर्शन-दिग्दर्शन)
"वोल्तेयर धर्म को अज्ञान और धोखे की उपज कहता है। उसके मत से मजहब होशियार पुरोहितों का जाल है, जिन्होंने कि मनुष्य की मूर्खता और पक्षपात को इस्तेमाल कर इस तरह उन पर शासन का एक नया तरीका निकाला है। रूसो ने... कहा.. सभी मनुष्य समान हैं। यह हमारा समाज है, जिसने वैयक्तिक सम्पत्ति की प्रथा चला उन्हें अ-समान बना दिया --और आज हम उसमें स्वामी-दास शिक्षित-अशिक्षित धनी-निर्धन, पा रहे हैं।" (पृष्ट-241, दर्शन-दिग्दर्शन)
"नाशोन्मुख भव्य प्रसाद के कंगूरे, मीनार, छत और दीवारें एक-एक ईंट करके गिरते हैं, वही हालत पतनोन्मुख संस्क्रति की भी होती है।" (पृष्ट-29, दर्शन-दिग्दर्शन)

2 comments:

  1. अच्छा हुआ आपने रुस का 40 वर्ष का उदाहरण दिया। इसी विचारधारा का निर्मित विद्वेष और असंतोष ही इसके बिखराव का कारण बना।

    भारत से कहीं ज्यादा मजदूर चीन में बढ़ रहे है। वह सस्ती मजदूरी के बल पर पूरे विश्व को सस्ती चीजों से पाट रहा है। मजदूरों के हिस्से में तो फिर भी सस्तापन ही है। और वहां की अर्थ व्यवस्था गजब के विरोधाभास में संघर्षरत है। हमारा मुख्य विषय था कि "किस व्यवस्था या विचार के बल पर सुख शान्ति और चैन अर्जित किया जा सकता है" और विश्व के सारे प्रयोग बता रहे है कि साम्यवादी विचारधारा सुख शान्ति और चैन लाने में विफल रही है। क्योंकि इस विचारधारा की शरुआत ही द्वेष, असंतोष, अराजकता, हिंसा और वर्गविग्रह से होती है। इसी को निरन्तर पोषित करना इस विचार की मजबूरी होती है। आक्रोश जरा भी कम होने पर यह विचारधारा दम तोड़ देती है। जहां द्वेष आक्रोश असंतोष का ही साम्राज्य हो वहां सुख शान्ति और चैन असंभव है।

    निराशावादी तो हम भी नहीं है, सारे दिवास्वप्नों के होते हुए भी महाज्ञानियों के अनुभव और अपनी आस्था के बल पर, असीम तृष्णाओं भंवरजाल के बीच, सुख शान्ति और चैन उपार्जित करने के लिए संतोष पर हमें आशा और आस्था है।

    आप कहते है आप निराशावादी नहीं है पर इसके पूर्व आशावाद और निराशावाद को समझना होगा। वर्गसंघर्ष अवश्य होगा, छीना-झपटी से समानता आएगी, हिंसा से ही समाज सुधरेगा, असंतोष अराजकता से क्रांती आएगी ऐसा आशावाद क्या आशावाद है? क्या इसे आशावाद कहेंगे? क्या यह कथित आशावाद सुख शान्ति और चैन लाने में समर्थ होगा?

    बेशक आप धर्म के सद्व्यवहारों को नशा कहकर विरोध कीजिए, नए दौर का नया बदलाव नशा दीजिए। आक्रोश आवेश का नशा दीजिए। किन्तु अपनी ही बात याद रखिए…लोगों को नशा देकर हमेशा के लिए मूर्ख बनाकर नहीं रखा जा सकता। क्योंकि सुख शान्ति और चैन पाने का मार्ग आक्रोश, असंतोष, हिंसा, प्रतिशोध, अराजकता से होकर नहीं गुजरता। इनसे दूर रहने और सदगुणों के विकास की प्रेरणा मात्र धर्म ही दे सकता है।

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  2. अपनी अपनी सीमायें हैं सोचने की

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