Tuesday, March 3, 2015

देश की 50 फ़ीसदी युवा आबादी के सामने क्या है राजनीतिक-आर्थिक विकल्प

मुनाफाख़ोरी के सामने बाध्यता या नियोजित अर्थव्यवस्था का सूत्रपात
Published in Mazdoor Bigul, February 2015 : 

काम की तलाश कर रहे करोड़ों बेरोज़गार युवा, कारखानों में खटने वाले मज़दूर, खेती से उजड़ कर शहरों में आने वाले या आत्महत्या करने के लिये मज़बूर किसान, और रोजगार के सपने पाले करोड़ों  छात्र लम्बे समय से अपने हालात बदलने का इन्तजार कर रहे हैं। इन्तज़ार का यह सिलसिला आज़ादी मिलने के बाद आज तक जारी है। आज भारत की 50 फीसदी आबादी 25 साल से कम उम्र की है और देश के श्रम बाज़ार में हर साल एक करोड़ नये मज़दूरों की बढ़ोत्तरी हो रही है। लेकिन देश की पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था इस श्रम शक्ति को रोजगार देने में असमर्थ है जिससे आने वाले समय में बेरोज़गारों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि होने वाली है। वैसे भी वर्तमान में देश के 93 फीसदी से ज़्यादातर मज़दूर ठेके के तहत अनियमित रोज़गार पर बिना किसी संवैधानिक श्रम अधिकार के बदतर परिस्थितियों में काम करके अपने दिन गुज़ार रहे हैं।
इसी बीच एक आर्थिक सर्व में कहा गया है कि आने वाले सालों में देश की जीडीपी की आर्थिक विकास दर 8 फीसदी रहेगी। और इस विकास दर को हासिल करने के नाम पर सरकार देशी-विदेशी पूँजी के निवेश के लिये अनुकूल से अनुकूलतम महौल बनाने की बकालत कर रही है और आम बजट में भी इसके लिये पूरी कोशिश की गई है। लेकिन इस 8 फीसदी विकास के बदले में आम जनता के हालात कैसे होंगे इसके लिये देश की आर्थिक स्थिति से जुड़े सरकारी आंकड़ों को ठण्डे दिमाग से समझना होगा, जिसके आधार पर ही यह नतीजा निकाला जा सकता है कि निजी-पूँजी के निवेश से आम जनता को वास्तव में क्या मिलता है और निवेश करने वाले देश की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम के शोषण के दम पर कितना मुनाफ़ा निचोड़ते हैं।
CSIR के एक सर्वेक्षण के अनुसार 2011-12 से 2017-18 तक, 8 सालों में लगभग 8.5 करोड़, यानि हर साल 1 करोड़ नये मज़दूरों की श्रम बाज़ार में बढ़ोत्तरी होगी। 2011-12 में 23.1 करोड़ मज़दूर दिहाड़ी करने, ठेला लगाने, या खेतों में काम करने जैसे अनियमित रोजगार में लगे हैं और 24 करोड़ उद्योगो में काम करने वाले मज़दूर है। यदि जीडीपी विकास की दर 6.5 प्रतिशत रहती है तो आने वाले 8 सालों में देश के उद्योगो में रोज़गार के मात्र 3.8 करोड़ नये मौके पैदा होंगे, जो पिछले 8 सालों की तुलना में 1.4 करोड़ (20 प्रतिशत) कम हैं। 2004-05 से 2011-12 के बीच आंकड़ों के अध्ययन से पता चलता है कि इन 8 सालों में देशी-विदेशी निवेश के चलते उद्योग क्षेत्र में 5.2 करोड़ नई नौकरियाँ पैदा हुईं, जबकि 3.7 करोड़ लोग अपने वर्तमान कामों से उजड़ गये। इसका अर्थ है कि 2004-05 से 2011-12 तक वास्तव में सिर्फ 1.5 करोड़ नये रोजगार के अवसर पैदा हुये, यानि हर साल सिर्फ 18 लाख।
इस सच्चाई के बावज़ूद यदि किसी पुँजीवादी अर्थशास्त्री की तरह कल्पना करें कि आने वाले 8 सालों में खेती और स्व-रोजगार में लगा एक भी मज़दूर अपने काम से नहीं उजड़ेगा तब भी 8.5 करोड़ नये श्रमिकों में से 3.8 करोड़ को ही रोज़गार मिल सकेगा और 5.7 करोड़ तब भी बेरोज़गार ही रह जाएँगे। तथ्यों की रोशनी में सच्चाई को देखें तो 2012-13 में खेती और स्व-रोजगार से जुड़े कामों से में होने वाला कुल उत्पादन देश की जीडीपी का सिर्फ 13.7 प्रतिशत है, जिसपर देश के लगभग 50 फीसदी मज़दूरों की आजीविका निर्भर है, जो देशी-विदेशी पूँजी निवेश के विस्तार के साथ लगातार उजड़ रहे हैं (Agriculture's share in GDP declines to 13.7% in 2012-13, Economic Times, 30 August 2013) (Agriculture Sector, 4 Dec, 2014, Ministry of External Affairs, Govt. of India)। इस परिस्थिति में यदि आने वाले समय में उजड़ने वाले मज़दूरों का सिलसिला पिछले सालों के बराबर भी रहेगा तो 2011-12 से 2017-18 तक कम से कम 3.7 करोड़ मज़दूर अपने वर्तमान कामों से उजड़ जाएँगे। ऐसी स्थिति में शहरों की ओर उद्योंगों में काम की तलाश में आने आने वाले कुल मज़दूरों की संख्या 12.2 करोड़ होगी 8.5 करोड़ नये और 3.7 करोड़ स्व-रोजगार या खेती से उजड़े हुए जिनमें से सिर्फ 3.8 करोड़ को रोजगार मिल सकेगा और बाकी 8.4 करोड़ मज़दूर ऐसे होंगे जिनके पास कोई काम नहीं होगा। यानि 8.5 करोड़ नये मज़दूर बज़ार में आएँगे और सिर्फ 10 लाख नये लोगों को उद्योगों में काम मिलेगा, बाकी बचे हुये मज़दूर अपने जीवन-यापन के लिये रेड़ी लगाने, दिहाड़ी करने या सब्ज़ियाँ बेचने जैसे काम करने के लिये मज़बूर होंगे और चाहे वे कितने भी कुशल और योग्य हों।
पूँजीवादी विकास के साथ आम जनता के लिये रोज़गार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं जिसे आंकड़ों के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है। 2011-12 में भारत में 10 लाख मूल्य का उत्पादन करने के लिये मज़दूरों की संख्या 2004-05 की तुलना में आधी हो चुकी है। वर्तमान में आईटी सेक्टर में 1 से दो लोग 10 लाख मूल्य सालाना का उत्पादन करते हैं और यह संख्या लगातार व्युत्क्रमानुपाती ढंग से बढ़ रही जिसके कारण अभी हाल ही में खड़े हुये आई.टी. सेक्टर में भी रोज़गार के अवसर कम हुये हैं और कुशल मज़दूरों की आवश्यकता घटी है। मुनाफ़ा केन्द्रित उत्पादन के तहत आटोमेशन और टेक्नोलाजी के विकास के साथ मज़दूरों की माँग  लगातार कम हो रही है जिससे आम मेहनतकश जनता के लिये रोज़गार के विकल्प कम हो रहे हैं। हर नई टेक्नोलॉजी और आटोमेशन की नई खोज के साथ कम श्रम शक्ति का स्तेमाल करके बढ़ा अतिरिक्त मूल्य, यानि बढ़ा मुनाफ़ा, पैदा करना भी आसान हो रहा है। एक ओर पूँजीपति वर्ग की सम्पत्ति मे बढ़ोत्तरी और शेयर बाज़ार में तेजी की दर बढ़ती जायेगी, तो दूसरी ओर श्रम के बाज़ार में अतिरिक्त-श्रम के रूप में बेरोज़गार मज़दूरों की संख्या बढ़ती जायेगी, जिससे श्रम-शक्ति का मूल्य घटेगा और कार्यक्षेत्र में मज़दूरों का खुला शोषण, काम की बदतर परिस्थितियाँ और मज़दूर परिवारों की बर्बादी भी बढ़ती जायेगी। अपराध, नैतिक पतन, वैश्यावृत्ति, और लम्पट तबकों में भी बढ़ोत्तरी होगी। कुशल मज़दूरों की आवश्यकता घटने के साथ आने वाले समय में कई और क्षेत्रों में भी ठेकाकरण को बढ़ावा दिया जायेगा और बचे-खुचे मज़दूर अधिकार भी विकास की भेंट कर दिये जाएँगे। एक आंकड़े के अनुसार यदि पूँजीवादी लूट के बीच कामों से उजड़ने वाले मज़दूरों की संख्या और बेरोजगारी की दर वर्तमान गति से बढ़ती रही तो 2016 तक दुनिया के सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास बाकी बचे 99 फीसदी लोगों की सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति हो जाएगी।। (1% के पास 99% से ज़्यादा की संपत्ति, BBC, 15 जनवरी 2015)
इन आंकड़ों से पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों, जीडीपी या शेयर बाजार के विकास के लिये नारेबाज़ी करने वाले राजनेताओं का यह दावा कि पूँजी का निवेश (चाहे देशी हो या विदेशी) बढ़ने से रोज़गार बढ़ेगा कोरी बकवास सिद्ध हो जाता है। क्योंकि पूँजी निवेश जितने लोगों को रोजगार देता है उससे अधिक उजड़ जाते हैं। आर्थिक उत्पादन की मौजूदा परजीवी मंजिल में जहाँ किसी भी कीमत पर मुनाफ़ा कमाने की होड़ देशी-विदेशी पूँजीपतियों के बीच जारी है, यदि कोई यह कहता है कि पूँजी-निवेश को खुला बढ़ावा देने से जनता का विकास होगा तो उसे या तो समाज की जमीनी हकीकत का अन्दाज नहीं है या वह जानबूझ कर झूठ बोल रहा है। इन परिस्थियतियों को नियन्त्रित करने के लिये वर्तमान पूँजीवादी सरकार ज्यादा से ज़्यादा कुछ एनजीओ के माध्यम से या नरेगा जैसी कुछ कल्याणकारी योजनायें बनाकर समाज में बढ़ रहे अशंतोष और गुस्से को शान्त करने की कोशिश कर सकती है, उससे अधिक करने की क्षमता वर्तमान पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में नहीं है।
Indian Express की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों में 29 साल या उससे अधिक उम्र के हर चार ग्रेजुएट में से एक (16.3 प्रतिशत) बेरोज़गार हैं (Jobs report gloomy, prospects worst for graduates, shows all-India govt data , Indian Express, 1 April 2014)। कुशल मज़दूरों की बात करें तो देश में हर साल 7 लाख इंजीनियर रोजगार की तलाश में आ रहे हैं जिनमें से 2011-12 में 1.05 लाख को नौकरी मिल पाती है जबकि 2017-18 में यह संख्या घटकर 55,000 रह जायेगी और इंजीनियरिंग के डिग्री धारकों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी (New IT Jobs Set to Fall by 50% in Four Years: Crisil, NDTV Profit, 10 November, 2014)
वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था रोज़गार पैदा करने में असमर्थ है और समाज के लोगों पर भार बन चुकी है। बावज़ूद इसके, मज़दूरों के संगठित न होने के कारण दलाल मज़दूर यूनियनों की मौजूदगी में खुली मुनाफ़ाखोरी और प्रकृति की बर्बादी जारी है। व्यवस्था के परजीवी चरित्र को छुपाने और बेरोज़गार नौजवानों को गुमराह करने के लिये आज-कल प्रचार किया जा रहा है कि भारत में 47 फीसदी ग्रेजुयेट (कुशल मज़दूर) रोज़गार देने के काबिल नहीं है उन्हें और कुशल बनाने की ज़रूरत है (The Hindu, 26 June 2013)। इस प्रचार से दिग्भ्रमित होकर कई मज़दूर जिन्हें रोजगार मिला होता है, वे अपने आप को दूसरों की तुलना में अधिक कुशल मान बैठते हैं। लेकिन यह सच्चाई ज्यादा दिन छुपी नहीं रह सकती और आज-कल तो यह सामने आने भी लगी है। इसका एक उदाहरण अभी हल ही में टी.सी.एस. और नोकिया जैसी आई.टी. कम्पनियों द्वारा अनुभवी श्रमिकों को निकाले जाने की घटना से समझा जा सकता है।
ऊपर आँकड़ों से हम देख चुके हैं कि देश में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है, पढ़े-लिखे ग्रेजुएट और तकनीकि शिक्षा प्राप्त लाखों युवा काम की तलाश में भटक रहे हैं और खेती-बाड़ी से उजड़ कर गाँव के करोड़ों नौजवान काम की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। समाज के दो विपरीत छोरों पर गैर-बराबरी की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही और विकल्पहीनता की स्थिति में देश की व्यापक मेहनतकश, किसान तथा नौजवान आबादी किसी विकल्प की तलाश कर रही है। पिछले दिनों देश और राज्यों में एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी की सरकारों का जीतना इस बात का उदाहरण है कि जनता बदलाव के लिये विकल्प ढूँढ़ रही है। आने वाले समय में श्रम और पूँजी का यह अन्तर्विरोध और तीक्ष्ण होगा, और समाज की व्यापक आबादी जो मेहनतकश मज़दूर-किसान और छात्र हैं, वे अपने अधिकारों के लिये, यानि रोजगार और सम्माननीय काम की परिस्थितियों के लिये संगठित होकर सड़कों पर आयेंगे। इन परिस्थितियों में जनता को मूल मुद्दों से भटकाने के लिये हिन्दू-मुसलमान के नाम पर, दलित-व्राह्मण के नाम पर या बिहारी-मराठी-बंगाली के नाम पर एक दूसरे के खिलाफ भड़काकर उन्हें आपस में बाँटने के प्रयास भी बढ़ते जाएँगे। वर्तमान में धार्मिक उन्माद को बढ़ाने और लोगों को आपस में लड़ाने के लिये उकसाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। हर मेहनत करने वाले इंसान को यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि आपस में लड़ाने वाली हर ताक़त विरोध करना ज़रुरी है ताकि देश की व्यापक आबादी आपनी वास्तविक माँगों के लिये संगठित होकर आगे आये जिससे समाज के हालात वास्तव में बदले जा सके।

References:
1)     Of Growth & Missed Opportunity , April 2014
2)      CRISIL Inside, January 2014
3)     Jobs report gloomy, prospects worst for graduates , Indian Express, 1 April 2014)
4)     New IT Jobs Set to Fall by 50% in Four Years: Crisil, NDTV Profit, 10 November, 2014
8)     Employment and Unemployment Situation in India, NSSO,  June 2011-June 2012
9)     Nearly 47 per cent graduates in India unemployable, The Hindu, 26 June 2013

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