Friday, November 28, 2014

‘इण्टरस्टेलर’ (‘Interstellar’ - तारों के बीच) : सिर्फ साइंस-फिक्शन नहीं बल्कि भाववादी यथास्थितिवादी प्रपोगेण्डा फिल्म



“Art is not a mirror held up to reality but a hammer with which to shape it.” 
  Berol Brecht
विज्ञान में रुची रखने वाले आलोचकों द्वारा इण्टरस्टेलर (Interstellar) फिल्म की काफी प्रशंसा की गई है, और कई आलोचक इसे साइंस-फिक्शन क्षेत्र की एक उपलब्धि घोषित कर चुके है। साथ ही कुछ आलोचकों ने फिल्म में दिखायें गये वैज्ञानिक तथ्यों तथा कहानी में कुछ खामियों की ओर भी ध्यान दिया है। दर्शकों से फिल्म में दिखाये गये विज्ञान के तथ्यों की काफी तारीफ सुनने को मिल रही है। फिल्म की वैज्ञानिक सटीकता का विश्लेषण और चर्चा हम विस्तार से आगे करेंगे लेकिन जो बात हर आलोचनाओं में अनुपस्थिति है वह है इस फिल्म के माध्यम से संप्रेषित (communicate) विश्व-दृश्टिकोंण (world-view), वैचारिक मूल्यों (values) और अवधारणाओं (ideology) का विश्लेषण। क्योंकि साइंस फिक्शन कहानी के इर्द-गिर्द गढ़े गए बिम्बों (imagery), संवादों (dialogs) और रूपकों (metaphor) की उपज भी हमारे आस-पास मौजूद यथार्थ ही होता है, और फिल्म-निर्माता जिस विश्व-दृष्टिकोंण से उस यथार्थ को देखते हैं उसी के अनुरूप फिल्म में स्तेमाल किये गये बिम्बों और रूपकों की रचना भी करता है। किसी कलाकार की रचना सिर्फ उसके विश्व-दृष्टिकोंण के आधार पर समाज की परिस्थितियों का चित्रण ही नहीं करती बल्कि कहानी और दृश्यों के माध्यम से दर्शकों के सामने एक नई दुनिया की सृष्टि करती है और इस दुनिया की घटनाओं के माध्यम से दर्शकों के विश्व-दृश्टिकोंण, मूल्यों और दुनिया के देखने के उनके नजरिये को प्रभावित करती है। यह जरूरी नहीं है कि हर कलाकार हमेशा यह सचेतन रूप करता है, लेकिन उसकी रचना में उसका विश्व-दृश्टिकोंण स्वयं प्रतिबिम्बित हो जाता है जिसकी ओर हर दर्शक को सचेतन रूप से ध्यान देना चाहिये। (लिखते समय कला और विज्ञान के बारे में क्या दृष्टकोंण अपनाया गया उसके लिये लेख के अंत में दिये गये References देखें।)
आज प्रचार के अनेक माध्यमों के विश्लेषण से यह समझा जा सकता है कि मुनाफ़ा केन्द्रित मीडिया अनेक रूपों में व्यवस्था के पक्ष में आम सहमति का निर्माण करने और स्व-केन्द्रित कूपमण्डूक संस्कृति के प्रचार के लिये विज्ञापनों, गानो, फिल्मों, नाटकों आदि को प्रपोगेण्डा के तौर पर सचेतन रूप से स्तेमाल कर रहा है। जिसका विस्तार से अध्ययन करने की ज़रूरत है। इसलिये हम इस फिल्म का आलोचनात्मक अध्ययन इस दृश्टिकोंण से करेंगे कि जो कहानी दिखाई गई है उसमें बिम्बों और रूपकों के माध्यम से वर्तमान यथार्थ (reality) का किस रूप में चित्रण किया गया है, और यथार्थ की रोशनी में यदि फिल्म के बिम्बों और रूपकों का विश्लेषण करें तो वह यथार्थ के साथ कितनी समानता प्रकट करते हैं और कहाँ यथार्थ का प्रतिवाद (contradict) करते हैं और साथ ही दर्शकों के सामने क्या विश्व-दृश्टिकोंण प्रस्तुत करते हैं।
A Poster of the Movie
1.    फिल्म की शुरूवात कुछ बूढ़े लोगों के इंटरव्यू  से होती है, जो बताते हैं कि किस तरह उनके दौर में पृथ्वी पर लगातार बढ़ रही प्रकृतिक आपदाओं के कारण अनाज की कमी हो चुकी थी जिससे पूरी मानव जाति भुखमरी, महामारियों और कुपोषण जैसी आपदायें झेल रही थी। इन आपदाओं का कारण वायुमण्डल में हुये परिवर्तन थे जिसके कारण बीमारियाँ बढ़ रही थीं और फसलें बर्बाद हो रही थीं और अनाज की कमी हो चुकी थी और पृथ्वी रहने लायक नहीं बची थी। लेकिन इन दृश्यों से यह नहीं पता चलता कि वायुमण्डल के कौन से नकारात्मक बदलावों के कारण धूल-भरे-तूफान बढ़ रहे थे, न ही इन आपदाओं के पीछे मौजूद वैज्ञानिक कारणों का फिल्म में कोई जिक्र किया गया है।
मौजूद पूँजीवादी विश्व की वर्तमान अवस्था में पृथ्वी पर हो रहे वायुमण्डलीय परिवर्तनों की तह में जाने की कोशिश करें तो हम पाएँगे कि पूरी दुनिया के सभी प्राकृतिक संसाधन और उद्योंग पूँजपति वर्गों के नियंत्रण में हैं जो आपस में नंगी प्रतिस्पर्धा के कारण पृथ्वी के कोने-कोने में प्राकृतिक संशाधनों और व्यापक आबादी का शोषण करके ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने में लगे हुये हैं। इसी बदहवासी में कुछ मुठ्ठीभर लोग अपने निजी स्वार्थ के लिय प्रकृति को तबाह कर रहे हैं। लेकिन फिल्म में प्रकृति की बर्बादी के लिये जिम्मेदार इस सच्चाई का कोई चित्रण नहीं है। न ही प्राकृतिक आपदाओं के वैज्ञानिक कारणों का कोई विश्लेषण दिखाया गया है। जबकि मानवता की तबाही और उसे बचाने की जद्दो-ज़हद के इर्द-गिर्द बुनी गई एक साइंस-फिक्शन फिल्म में दर्शकों के सामने यह सबसे मूल सवाल है जिसमें फंसाकर उन्हें एक प्रश्न-चिन्ह के साथ छोड़ दिया जाता है। ऐसा क्यों किया गया इसका जबाव हमें फिल्म की कहानी आगे बढ़ने का साथ स्पष्ट होने लगता हैं। आगे अपने विश्लेषण से हम स्पष्ट करेंगे कि इन मूल सवालों को, जो कि फिल्म के मूल-बिन्दु हैं उन्हें इस तरह अनुत्तरित क्यों छोड़ दिया गया है।

2.    इण्टरव्यू के बाद कहानी हमें उस दौर में लेकर जाती है और एक परिवार की कहानी सामने आती है जिसमें फिल्म का मुख्य चरित्र कूपर, उसकी बेटी मर्फी, उसका बेटा टाम और उसकी मृत पत्नी के पिता हैं। यह परिवार भी औरों की तरह खेती करके जी रहा है और लगातार बढ़ रहे धूल-भरे तूफानों से फसलों को बचाने के लिये जूझ रहा है। कहानी आगे बढ़ती है और कूपर अपने बच्चों के स्कूल के टीचरों से मिलता है, और इस बातचीत से हमें पता चलता है कि, चूँकि पृथ्वी पर अनाज की कमी हो चुकी है, इसलिये सभी लोगों को, चाहे वे वैज्ञानिक हों या कोई और शिक्षित लोग, खेती करने के लिये कहा जा रहा है। बातचीत के माध्यम से दर्शोकों को बताया जाता है कि आम लोगों के बीच यह झूठा प्रचार किया गया है कि 1963 में भेजा गया नासा का चन्द्रयान मिशन एक झूठ था जो सोवियत यूनियन को स्पेस रिसर्च से सम्बन्धित फालतू के कामों में फंसाने के लिये अमेरिकी सरकार द्वारा किये जाने वाले एक प्रपोगेण्डा का हिस्सा था, ताकि लोगों को समाज की तात्कालिक आवश्यकता को पूरा करने के लिये खेती के काम में लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके। इसके बाद कूपर अपनी बेटी को स्कूल से सस्पेण्ड करवा देता है।
मर्फी कई बार अपने कमरे में भूत होने की बात कूपर को बताती है। कहानी थोड़ी और आगे बढ़ती है और एक धूल भरा तूफान आने के बाद मर्फी के कमरे में कूपर को मोर्स कोड (Morse Code) के माध्यम से एक जगह के को-आर्डीनेट मिलते हैं। इन को-आर्डीनेट को ढूढ़ते हुये कूपर और मर्फी एक गुप्त जगह पर पहुँच जाते हैं जहाँ दर्शोकों का सामना नासा के एक गुप्त-सेण्टर से होता है, जिसे आम जनता और उनके प्रतिनिधियों की जानकारी के बिना राज्यसत्ता द्वारा गुप्त रूप से संचालित और फंड किया जा रहा है।

3.    इस रिसर्च सेण्टर में पहुँचने का बाद दर्शकों को पता चलता है कि कूपर नासा के एक पुराने अंतरिक्ष मिशन  में पायलट रह चुका था, लेकिन एक हादसे के बाद वर्तमान सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप एक किसान का जीवन जी रहा है। यहीं पर कूपर और नासा के एक गुप्त मिशन के संयोजक डोनाल्ड की बातचीत से हमें पता चलता है कि, चूँकि मानव जाति पृथ्वी पर हो रहे वातावरण परिवर्तन और तबाही के लिये कुछ भी नहीं कर सकती इसलिए राज्यसत्ता नासा जैसी संस्थाओं को गुप्त रूप से फंड देकर दूसरे ग्रहों और तारामण्डलों में अपनी कालोनी  बसाने के लिये रिसर्च और प्रयोग करने का काम कर रही है। यह कार्य गुप्त रूप से इसलिये किया जा रहा है क्योंकि आम मज़दूर, ट्रेड यूनियनें, वर्तमान में गरीबी और बेकारी झेल रही समाज की व्यापक आबादी और उनका नेतृत्व करने वाले राजनीतिज्ञ इसका विरोध करते हैं, क्योंकि वह इसके उद्धेश्यों और महत्व को नहीं सकझ पाते। कूपर और डोनाल्ड की बातचीत से दर्शको को यह बताया गया है कि इन नासमझ लोगों कों यह नहीं पता कि राकेट साइन्स में जो पैसा लगाया जा रहा है वह कितना जरूरी है, क्योंकि वैज्ञानिक और राज्यसत्ता मानव जाति के भविष्य को बचाने के बारे में काफी चिंतित हैं, और उसके लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
यहाँ तक फिल्म की कहानी से दर्शकों के सामने यह प्रस्तुत कर दिया जाता है कि राज्यसत्ता को जनता की और मनुष्यता के भविष्य की गंभीर चिंता है जिसके लिये वह पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन वैज्ञानिकता का जो चित्रण फिल्म में किया गया है उससे भिन्न वास्तविकता यह है कि आज पूरू दुनिया के पूँजीवादी सम्राज्यवादी देशों की राज्यसत्ताएँ टेक्नोलॉजी का स्तेमाल करके अपने देश के नागरिकों की जासूसी कर रही हैं, दूसरे देशों की जासूसी के लिये उपग्रह भेज रही हैं, देशों की व्यवस्थाओं को अस्थाई करने के लिये तकनीकि रिसर्च और वैज्ञानिकों की देशभक्ति का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं, और भारी मात्रा में हथियारों के उत्पादन और बेचने के लिये अलग-अलग देशों में युद्धों को भड़काया जा रहा है, ताकि और मुनाफ़ा कमाया जा सके और लोगों के ध्यान को उनके मूल मुद्दों से भटकाया जा सके! खैर, इन तथ्यों का गहराई से अध्ययन हम आगे करेंगे।

4.    इसके बाद दूसरे ग्रह पर जीवन की परिस्थितियों को खोजने का मिशन आरम्भ होता है, और दर्शकों के सामने ब्लैक-होल, टाइम-ट्रैवल, टाइम-डायलेसन, वर्म-होल, व्रैपिंग-ऑफ-स्पेस, स्पेस-ट्रेवल, ग्रेविटी और अतिरिक्त डायमेसन से तैयार साइंस-फिक्सन के ताने-बाने के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है। अब चूँकि यह एक साइंस-फिक्शन फिल्म है तो आगे बढ़ने से पहले इन घटनाओं की वैज्ञानिक परिशुद्धता (accuracy) पर भी एक नजर डालनी जरूरी है -
·         टाइम डायमेंशन का फिल्म की कहानी में काफी घटनाओं के लिये स्तेमाल किया है, लेकिन यदि वैज्ञानिक सटीकता पर ध्यान दें तो कुछ दृश्य तथ्यों से मेल नहीं खाते। दूसरी ग्लैक्सी के ग्रह पर ग्रेविटी के कारण टाइम डाइमेंशन की बजह से 1 घण्टा पृथ्वी के 7 साल के बराबर दिखाया गया है। लेकिन इतने टाइम-डायलेशन, 1 सेकण्ड का 17 घण्टे, के लिये जितना ग्रेविटेशनल-फोर्स वास्तव में ग्रह की सतह पर होगा उसमें किसी इंसान के लिये चलना काफी मुश्किल होना चाहिये, लेकिन फिल्म में लोगों को आराम से चलते-दौड़ते हुये दिखाया गया है। एक गैर वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के दर्शक के नजरिये से देखें तो कई जगह पर कहानी को कन्फ्यूजिंग बना दिया गया है, जैसे वर्म होल की अवधारणा है कि रैपिंग-आफ-स्पेस-टाइम (Wrapping of Space and Time) के माध्यम से लम्बी दूरी को कुछ सेकण्डों में पूरा किया जा सकता है, लेकिन दर्शकों के सामने इस अवधारणा की व्याख्या मिशन के बीच में की जाती है। इस दौरान दर्शकों को कोई अन्दाज नहीं हता कि वर्म-होल क्या होता है और निर्देशक अभिनेताओं को दूसरी ग्लैक्सी में कैसे ले जायेगा। इसी के साथ शनि-ग्रह के पास मौजूद पर वर्म-होल तक जाने में दो साल का समय लगता है, लेकिन फिल्म के दृश्यों में इसकी कोई झलक नहीं मिलती और घटनाओं से ऐसा लगता है कि वहाँ पहुँचने में कोई समय नहीं लगा है, इस दो साल के समय के समय के बारे में कोई हिन्ट तक नहीं दिखाई गई है। इसके साथ ही मानवता को बचाने के प्लान-बी के साथ अचानक दर्शकों का सामना जेनेटिक साइंस से भी हो जाता है, जिसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं दी गई है कि यह क्या है। दूसरी ग्लेक्सी के एक ठण्डे ग्रह को दिखाया गया है जहाँ जमे हुए बादल मौजूद हैं, यह तथ्यता सम्भव नहीं है, क्योंकि जमे हुये बादल किसी भी गैसीय-वायुमण्डल में तैरते नहीं रह सकते, यह फिक्शन नहीं फैंटासी है।
·         कूपर का ब्लैक होल के अन्दर प्रवेश करने का फिल्मांकन वैज्ञानिक अवधारणा के रूप से सही है, लेकिन ब्लैक होल से होकर सीधे एक अतिरिक्त डाइमेंशन में पुराने समय में अपनी बेटी के कमरे में पहुँचने की घटना का कोई चित्रण नहीं दिखाया गया है। लेकिन इसके संकेत स्पेस-सटल में ब्राण्ड द्वारा दिये गई प्रेम के बारे में एक व्याख्या से कर दिया गया है कि प्रेम स्पेस और टाइम से परे कोई सुपरनेचुरल वस्तु है। यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि निर्देशक दर्शकों के बीच वैज्ञानिक टेम्पर नहीं बल्कि भाववादी (idealist) धारणा को सही साबित करना चाहता है, यही कारण है कि प्रेम को एक चमत्कारिक तथ्य के रूप में दिखाया गया है, जो विज्ञान और मनुष्यों की समझ से परे कोई सुपरनेचुरल चीज है। और इसी सुपरनेचुरल प्रेम के कारण कूपर ब्लैक होल से सीधे नये डाइमेंशन में अपनी बेटी के कमरे में पुराने समय में पहुँच जाता है, और इसी सुपरनेचुरल प्रेम के कारण मर्फी अपने पिता कूपर द्वारा भेजे जा रहे संदेशों का पता लगा पाती है। यानि भाववादी दर्शन को विज्ञान के साथ घोल बनाकर दर्शकों के हलक में काफी चालाकी से उतारने का प्रयास किया गया है।
·         कई वैज्ञानिक तथ्यों को फिल्म में ठीक दिखाया गया है, जिससे कि विज्ञान क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोगों को कहानी में बाँधे रखा जा सके, जैसे - वर्चुअल रूप से स्पेसशिप को घुमाकर ग्रेविटी पैदा करना ठीक दिखाया गया है, घूमते हुये स्पेस-शिप के साथ एक दूसरे स्पेस-शिप को जोड़ने के लिये उसे उसके सापेक्ष स्थिर करने के लिये घुमाने और फिर जोड़ने का फिल्मांकन भी अच्छा दिखाया गया है, वर्म होल और रैपिंग-आफ-स्पेस को सही दिखाया गया है।

5.            इन घटनाओं से होते हुये फिल्म के अन्त तक पहुँचने पर हमारे सामने मुख्य पात्रों के रूप में पाँच चरित्र उभर कर सामने आते हैं। जिनमें प्रमुख है फिल्म का नायक कूपर और उसकी बेटी मर्फी, जो काफी गहरे भावात्मक लगाव से जुड़े हैं, और अपनी बेटी के भविष्य और पृथ्वी पर मौजूद लोगों को बचाने के लिये कूपर वर्म-होल से होकर दूसरी ग्लेक्सी में नये ग्रह को तलाशने के लिये नासा की मदद करने के लिये तैयार हो जाता है। तीसरा चरित्र मिशन के प्रबन्धक की बेटी ब्राण्ड का है जो स्पेस सिप में जाने के लिये इसलिये तैयार हुई है कि दूसरे ग्रह पर अपने प्रेमी को ढूँढ़ सकेगी, जो एक मिशन में जाने के बाद अब तक नहीं लौटा था। यह तीन चरित्र सकारात्मक नायकों की भूमिका में दिखाये गया हैं। दूसरी ओर मिशन प्रबन्धक डोनाल्ड है जो जानता है कि पृथ्वी पर मौजूद लोगों को नहीं बचाया जा सकता इसलिये वह मानवता के भविष्य को बचाने के लिये ग्रेविटी को हल करने का नाटक कर रहा है और इस मिशन के माध्यम से प्लान-बी के तहत अपनी बेटी को मिशन पर भेजता है, ताकि भविष्य में मानवता की रक्षा की जा सके। पाँचवे मुख्य चरित्र डा. मन से दर्शकों का सामना एक जमें हुये ग्रह पर होता है। डा. मन को नकारात्मक भूमिका में दिखाया गया है, जो पहले भेजे गये एक मिशन में दूसरे ग्रह पर फंस गया था और वहाँ रहकर वह झूठे तथ्यों का एक पूरा ताना-बाना तैयार करता है और कूपर को नसीहत देता है कि उसे व्यक्तिगत हितों को छोड़कर मानवता की रक्षा के बारे में सोचना चाहिये, लेकिन वास्तव में वह उनके स्पेस-शिप को लेकर खुद वहाँ से निकलने की फिराक में होता है।
अब इन सभी मुख्य चरित्रों का अध्ययन करें तो जो तस्वीर दर्शकों के सामने उभर कर सामने आती है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि फिल्म वर्तमान पूँजीवादी समाज की इस धारणा को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करती है कि राज्यसत्ता मनुष्यता के भविष्य को बचाने के लिये समाज के कुछ विशेष लोगों के माध्यम से पूरी कोशिश कर रही है। पूरी कहानी में कहीं भी यह नहीं दिखाया जाता कि समाज के आम लोगों के बीच क्या प्रतिक्रिया हो रही थी। अन्त तक पहुँचने के साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया जाता है कि चाहे आरम्भ में झूठ बोल कर ही कूपर को नासा के गुप्त मिशन पर भेजा गया था लेकिन इस मिशन के माध्यम से ही मानवता को बचाया जा सका। इसके साथ ही एक और पहलू डा. मन के चरित्र के रूप में दिखाया गया है जो जन-हित और मानवता की रक्षा की बाते करता है, लेकिन वास्तव में वह एक झूठ बोलने वाला उन मक्कार व्यक्तियों में से है जो दूसरों के सामने मानव जाति की रक्षा जैसी बातें करके उन्हें धोखे में रखते हैं और उनके माध्यम से अपने कुछ गुप्त उद्धेश्यों को हासिल करना चाहते हैं।

6.    निष्कर्ष के तौर पर
इन सभी तथ्यों के साथ यदि यह मान कर चलें कि फिल्म की कहानी दर्शकों को वर्तमान वैज्ञानिक परिकल्पनाओं से अवगत करने के लिये बुनी गई है, तो जिस रूप में अतिरिक्त डाइमेंशन की अवधारणा की यह घटना दिखाई गई है, वह एक गैर-विज्ञान क्षेत्र के आम दर्शकों के लिये साइंस फिक्शन की जगह एक चमत्कार की तरह प्रस्तुत की गई है। और विज्ञान की जानकारी रखने वाले दर्शकों को ऐसा लगने लगेगा कि इसमें कुछ सुपरनेचुरल है, जिसे समझने की न तो जरूरत है और न ही उसे समझा जा सकता है और न ही समझाने की कोई कोशिश अन्त तक की गई है। यानि कुछ बातें मनुष्य की समझ से परे हैं जिन्हें समझने की कोशिश नहीं की जा सकती। जैसे दूसरी ग्लैक्सी में जाने के लिये बनाया गया वर्म होल किसने बनाया था, इसका पूरी फिल्म की कहानी में कहीं भी कोई चित्रण नहीं है।
कहानी के इन सभी कमजोरियों के कारण गैर-विज्ञान पृष्ठभूमि के आम दर्शकों के लिये इस फिल्म का वैज्ञानिक पहलू हल्का तथा कन्फ्यूजिंग रह जाता है। लेकिन निर्देशक ने अपने बुर्जुआ विश्व-दृष्टिकोंण को दर्शकों तक संप्रेशित करने की पूरी कोशिश की है। फिल्म दर्शकों के सामने वर्तमान पूँजीवादी-सम्राज्यवादी दुनिया की जो तस्वीर प्रस्तुत करती है वह वास्तविक सच्चाई से काफी भिन्न रूप में कुछ इस तरह उभारने कर सामने आती है –
·         पृथ्वी पर संसाधनों की कमी हो चुकी है तथा पृथ्वी पर बीमारियाँ, भुखमरी और कुपोषण फैला हुआ है, लेकिन इसका कारण पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा और अराजकता या प्रकृति की बर्बादी और एक वर्ग-द्वारा दूसरे वर्ग का शोषण नहीं है बल्कि वायुमण्डल में हो रहा असंतुलन है जिससे बचकर निकलने के लिये राज्यसत्ता के नासा जैसे विशेष गुप्त संस्थान पूरे जी-जान से काम में लगे हुये हैं। इसलिये पृथ्वी पर आम जनता की गरीबी, बेरोजगारी और तबाही को रोकने से ज्यादा हमें भविष्य में मनुष्यता को बचाने की चिन्ता करनी चाहिये।
·         फिल्म में दिखाया गया है कि नासा के एक गुप्त प्रोजेक्ट का प्रबन्धक डोनाल्ड पृथ्वी पर मानव जाति को बचाने के लिये ग्रेविटी की समस्या को सुलझाने के फार्मूले को हल करने की कोशिश में लगा था। लेकिन वह जानता था कि उसे हल नहीं किया जा सकता और यह जानते हुये वह झूठ बोल कर कूपर को मिशन पर भेजता है क्योंकि उसके सामने इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था। फिल्म के बीच में मर्फी के माध्यम से उसके इस काम को मूर्खतापूर्ण कहकर आलोचना भी की जाती है, और कूपर भी सच्चाई जानने के बाद मिशन से लौटने की कोशिश में लग जाता है जिससे कि पृथ्वी पर मौजूद लोगों के लिये कुछ किया जा सके। लेकिन इस छोटी सी आलोचना के बाद फिल्म के अन्त तक हमें विश्वास दिला दिया जाता है कि इस मिशन के कारण ही कूपर ब्लैक होल में गया जहाँ से संयोगवस प्रेम के किसी सुपरनेचुरल प्रभाव से अतिरिक्त डाइमेसन में अपनी बेटी मर्फी के कमरे में पुराने समय में पहुँचा। और वहाँ से उसने ग्रेविटी की समस्या को हल करने के लिये डाटा भेजा, जिसके बाद पृथ्वी पर मौजूद मानव जाति पृथ्वी को छोड़ पर स्पेस में अपनी बस्तियाँ बनाने में सफल हो सकी है।
कहानी के इस पूरे ताने-बाने से दर्शकों के सामने एक पैरलल कहानी प्रस्तुत होती है कि नासा का गुप्त-मिशन, जो राज्यसत्ता के द्वारा चलाया जा रहा था, के कारण ही मानवता को बचाया जा सके। कहानी दर्शकों को बताती है कि भले ही डोनाल्ड, जो राज्यसत्ता की गुप्त कार्यवाहियों का हिस्सा है और ग्रेविटी की समस्या, यानि पूँजीवाद में जनता के हितों के लिये एक अर्थनीति का फार्मूला तैयार करने के बारे में झूठ बोल रहा था, लेकिन वह ऐसा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये या किसी वर्ग विशेष के हितों (पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े) के लिये नहीं कर रहा था, बल्कि वह कूपर के साथ अन्य वैज्ञानिकों को मिशन पर भेजाना चाहता था ताकि लोगों को भविष्य के लिये काम करने का प्रोत्साहन दिया जा सके और मनुष्यता के भविष्य को बचाया जा सके। यह पूरी कहानी एक बार फिर दर्शकों को सच्चाई से काफी दूर एक काल्पनिक दुनिया में ले जाती है जहाँ पूँजीवादी राज्यसत्ता एक सन्त की भूमिका में है और पूँजीवाद का कोई विकल्प मानवता के सामने नहीं है। इन घटनाओं के माध्यम से फिल्म एक बार फिर संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति लोगों में बढ़ रहे अविश्वास को विश्वास में बदलने की कोशिश करती है। जबकि सच्चाई यह है कि वर्तमान पूँजीवादी दुनिया में कई सम्राज्यवादी देश कुछ मुठ्ठीभर लोगों के पूँजीवादी हितों के लिये लगातार दूसरे देशों में दख़ल कर रहे हैं, निहत्थे मासूम लोगों का कत्लेआम कर रहे हैं और किसी भी कीमत पर संशाधनों पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिये मनुष्यता को युद्धों में झोंकने में लगे हैं जिसमें वायुमण्डल और प्राकृतिक संशाधनों की बेइंतहा तबाही की जा रही है।
·         कूपर के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की गई है कि कूपर जैसे लोग जो अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं वे राज्यसत्ता के काम पर इसलिये विश्वास नहीं करते क्योंकि वे स्वयं व्यक्तिगत द्वन्द के शिकार हैं और अदूरदर्शी होने के कारण मनुष्यता के सामने मौजूद दूरगामी लक्ष्यों के बारे में नहीं समझ पाते इसलिये वर्तमान में लोगों को बचाने की बातें करते हैं। लेकिन अन्त तक यह सिद्ध कर दिया जाता है कि कूपर जैसे लोग राज्यसत्ता द्वारा संचालित योजनाओं में अपना सहयोग देकर ही मानवता की सेवा कर सकते हैं। इसके साथ ही फिल्म डा. मन के चरित्र के माध्यम से ऐसी राजनीतिक ताकतों पर सवाल उठाने की कोशिश करती है जो लोग मानवता की रक्षा, मानव जाति के हितों और समाज के हितों की बातें करते हैं। फिल्म के संवाद यह दर्शाते हैं कि डा. मन जैसे लोग समाज को गुमराह कर रहे हैं और अपने व्यक्तिगत हितों को हाशिल करना चाहते हैं। यह चित्रण तथ्यता अधूरा है क्योंकि विकल्प की बात करने वाली राजनीतिक ताकतें, वर्तमान में समाज के लोगों की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने की माँग भी करती हैं।
फिल्म कूपर, मर्फी, ब्राण्ड और डा. मन के चरित्रों के माध्यम से यह दिखाती है कि हर व्यक्ति अपने तात्कालिक व्यक्तिगत हितों से ही काम करने के लिये प्रोत्साहित होता है। लेकिन दूसरी घटनाओं के माध्यम से इसके बिल्कुल विपरीत दूरगानी लक्ष्यों के लिये तात्कालिक लक्ष्यों की उपेक्षा करने की वकालत भी करती, जैसे मर्फी के स्कूल में पढ़ाये जाने वाले झूठे तथ्यों, सभी को खेती में लगाने और नासा के कामों में फण्डिंग का विरोध करने वालों की आलोचना करना। फिल्म इन तात्कालिक और दूरगामी, दोनों पक्षों को अलग-अलग रखकर पूँजीवादी सम्बन्धों को एक अन्तिम विकल्प के रूप में दिखाने की कोशिश करती है, लेकिन दोनो पक्षों को एक साथ रखकर देखें तो यह दोनो धारणायें स्वयं फिल्म में ही एक दूसरे के विरुद्ध खड़ी नज़र आती हैं। इन दोनो अधूरे और एकपक्षीय चित्रणों के माध्यम से मुख्य निशाना उनपर साधा गया है जो पूँजीवाद का विकल्प खड़ा करने माँग करते हैं। लेकिन तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्यों की एकरूपता में देखें तो तात्कालिक तौर पर गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, भुखमरी और महामारियों तथा दूरगामी तौर पर प्रकृति की बर्बादी, और मनुष्यता के भविष्य को बचाने के लिये पूँजीवादी लूट और अराजकता का विकल्प एक समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है। यदि मानव विकास के इतिहास को सचेतन तौर पर समझने की कोशिश करें तो किसी भी दौर में मानवता अपने वर्तमान में मौजूद तात्कालिक समस्याओं का समाधान करने के लिये अपने सामने कुछ उद्धेश्य निर्धारित करती है और फिर उन उद्धेश्यों के लिये काम करते हुये भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कुछ दूरगामी लक्ष्य निर्धारित कर उनके लिये प्रयास करती है। ऐसा नहीं हो सकता कि वर्तमान सामाजिक आवश्यकताओं को ख़ारिज करके लोगों को समस्याओं में छोड़ कर सिर्फ भविष्य में मानवता को बचाने के दूरगामी लक्ष्य की प्राप्ति का बहाना करके लोगों को गुमराह किया जाये। यदि कहीं महामारी फैली हो तो समाज की पहली आवश्यकता होगी उस महामारी की रोकथाम और उसके साथ दूरगामी लक्ष्य होगा उसे जड़ से समाप्त करने के लिये उपाय करना, ऐसा नहीं हो सकता कि लोगों को महामारी के दैरान मरने के लिये छोड़ कर टीके की खोज करने में लग जाएँ।
·         पूरी फिल्म में कहीं भी यह नहीं दिखाया जाता कि इतनी तबाही होने के बाद पृथ्वी पर आम जनता क्या कर रही है, क्या सभी हाथ-पर हाथरखे बैठे हैं। यह दिखाकर फिल्म दर्शकों के सामने यह सिद्ध करने की कोशिश करती है कि आम जनता मनुष्यता के भविष्य को बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकती। जनता की संगठित शक्ति को पूरी तरह नकार दिया गया है, और शुरू में ही यह बता दिया गया है कि यह आम मेहनतकश लोग अपनी अज्ञानता के कारण तात्कालिक व्यक्तिगत हितों से प्रोत्साहित होकर राज्यसत्ता के कामों पर सवाल उठाकर उसकी टाँग खींचते हैं, और फिल्म के अन्त तक यह सिद्ध कर दिया गया है कि पूँजीवादी राज्यसत्ताएँ ही मनुष्यता को बचा सकती हैं जनता कुछ नहीं कर सकती। निष्कर्ष यह निकाला गया है कि पूँजीवादी राज्यसत्ता मानवता को बचाने के लिये अनेक गुप्त कार्यवाहियों में लगी हुई है, न कि यह गुप्त कार्यवाहियाँ कुछ इलीट वर्गों के व्यक्तिगत हितों की रक्षा के लिये की जा रही हैं।
·         फिल्म दर्शकों के सामने पूँजीवादी की ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करती है कि लगातार जारी तकनीकि विलासिता (जैसे नासा में स्पेस रिसर्च पर खर्च होने वाली पूँजी) के साधनों का उत्पादन मुनाफ़े के लिये नहीं बल्कि भविष्य में मानवता की रक्षा के लिये ही किया जा रहा है। लेकिन नासमझ आम लोग और नेता इसकी महत्ता को नहीं समझते इसलिये उनका रवैया इसके प्रति नकारात्मक है और ऐसे नासमझ राजनीतिक लोग शिक्षा सहित अनेक माध्यमों से लोगों के बीच अपना राजनीतिक प्रपोगेण्डा करने के लिये पूँजीवाद की महान अपलब्धियों के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं और उन्हें गुमराह कर रहे हैं।
आर्थिक मूलाधार (उत्पादन के साधन, मशीनरी, श्रम शक्ति की उत्पादक क्षमता, टेकनोलॉजी और वैज्ञानिक खोंजो) के विकास की वर्तमान अवस्था में समाज के लिये अनुपयुक्त हो चुके तथा विकास में बेड़ियाँ बन चुके मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी सम्बन्धों को समाज के प्रबुद्ध और वैज्ञानिक तबकों के बीच जायज ठहराने और उनके सामने यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि मानुष्यता के सामने इन पूँजीवादी सम्बन्धों के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है, और समाज के कई नासमझ लोगों द्वारा की जाने वाली आलोचना को झेलते हुये पूँजीवादी राज्यसत्ता को मानवता के भविष्य की रक्षा के लिये गुप्त रूप से काम करना पड़ रहा है। इस विश्व-दृष्टिकोंण को किसी इमोशनल-ड्रामा कहानी के माध्यम से सम्प्रेषित करना इतना कारगर नहीं होता जितना कि एक साइंस-फिक्शन के माध्यम से। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि फिल्म की कहानी में कई जगह वैज्ञानिक तथ्यों को अधूरा छोड़ा गया है और कुछ घटनाओं को जादुई परिघटना के तौर पर दिखाया गया है कि वे घटनायें मनुष्यों की समझ से परे है। इसका एक मुख्य कारण यही है कि निर्देशक फिल्म के माध्यम से समाज के बारे में अपने भाववादी-यथास्थितिवादी विश्व-दृश्टिकोंण को संप्रेषित करने की कोशिश करता है जिसके लिये सटीकता के साथ वैज्ञानिक टेम्पर को दर्शकों के सामने रखने और उन्हें वर्तमान के बारे में सोचने पर मज़बूर करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

References:
1.    आलोचना का दृश्टिकोंण कामायनी एक पुनर्निचार – मुक्तिबोध से लिया गया है।

2.    Scientific analysis based on:
Special and General Theory of Relativity – Einstein
History of Time from Big Bang, The Grand Design, Theory of Everything – Stephen Hawking
“A scientific law, is not a scientific law, if it only holds when some supernatural being, decides to let things run, and not intervene.”

3.    दर्शन साहित्य और आलोचना, बेलिंस्की, हर्जन, चेर्नीशेव्स्की, दोब्रोल्युबोव (परिकल्पना प्रकाशन)

4.    Analysis of work is taken from :
“Labour is, in the first place, a process in which both man and Nature participate, and in which man of his own accord starts, regulates, and controls the material re-actions between himself and Nature. He opposes himself to Nature as one of her own forces, setting in motion arms and legs, head and hands, the natural forces of his body, in order to appropriate Nature’s productions in a form adapted to his own wants. By thus acting on the external world and changing it, he at the same time changes his own nature. He develops his slumbering powers and compels them to act in obedience to his sway. We are not now dealing with those primitive instinctive forms of labour that remind us of the mere animal. An immeasurable interval of time separates the state of things in which a man brings his labour-power to market for sale as a commodity, from that state in which human labour was still in its first instinctive stage. We pre-suppose labour in a form that stamps it as exclusively human. A spider conducts operations that resemble those of a weaver, and a bee puts to shame many an architect in the construction of her cells. But what distinguishes the worst architect from the best of bees is this, that the architect raises his structure in imagination before he erects it in reality. At the end of every labour-process, we get a result that already existed in the imagination of the labourer at its commencement. He not only effects a change of form in the material on which he works, but he also realises a purpose of his own that gives the law to his modus operandi, and to which he must subordinate his will. And this subordination is no mere momentary act. Besides the exertion of the bodily organs, the process demands that, during the whole operation, the workman’s will be steadily in consonance with his purpose. This means close attention. The less he is attracted by the nature of the work, and the mode in which it is carried on, and the less, therefore, he enjoys it as something which gives play to his bodily and mental powers, the more close his attention is forced to be.”
(Capital Vol-I by Karl Marx, Chapter Seven: The Labour-Process and the Process of Producing Surplus-Value,
"Social being" and "social consciousness" are not identical, just as being in general and consciousness in general are not identical. From the fact that in their intercourse men act as conscious beings, it does not follow that social consciousness is identical with social being. In all social formations of any complexity -- and in the capitalist social formation in particular -- people in their intercourse are not conscious of what kind of social relations are being formed, in accordance with what laws they develop, etc. For instance, a peasant when he sells his grain enters into "intercourse" with the world producers of grain in the world market, but he is not conscious of it; nor is he conscious of the kind of social relations that are formed on the basis of exchange. Social consciousness reflects social being -- that is Marx's teaching. A reflection may be an approximately true copy of the reflected, but to speak of identity is absurd. Consciousness in general reflects being -- that is a general principle of all materialism. It is impossible not to see its direct and inseparable connection with the principle of historical materialism: social consciousness reflects social being.
(MATERIALISM AND EMPIRIO-CRITICISM by Lenin
 
5.    मेसिंगकौफ़ संवाद - बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
वास्तविक समझ और आलोचना तभी सम्भव है जब अंश और समग्र तथा अंश और समग्र के बदलते सम्बन्धों को पूरी तरह समझा जाए और उनकी आलोचना की जाए।
मज़दूरों के विरोधी कोई एकाश्मी प्रतिक्रियावादी समूह नहीं हैं। न ही विरोधी वर्गों का हर सदस्य कोई एकाश्मी, तैयारशुदा, गारण्टी युक्त शत-प्रतिशत दुश्मनाना प्राणी है। वर्ग-संघर्ष ने उसकी अन्तरात्मा को भी संक्रमित कर दिया है। उसके अपने हित उसे विपरीत दिशाओं में खींच रहे हैं। समूह के एक हिस्से के रूप में जीते हुए उसके हित समूह के हितों से साझा होंगे ही, चाहे उसका जीवन कितना भी अलग-थलग क्यों न हो।

6.    Monthly review on Environment. http://monthlyreview.org/subjects/marxist-ecology/

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