Tuesday, May 27, 2014

सैन्य तानाशाही और खुले पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध एक बार फिर सड़कों पर आ रहे हैं मिस्र के मज़दूर

(मज़दूर बिगुल, मई 2014, पत्र में प्रकाशित - http://www.mazdoorbigul.net/archives/5339)
आज एक बार फिर पूँजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध मिस्र के मज़दूरों का असन्तोष एक के बाद एक जुझारू हड़तालों के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। कपड़ा, लोहा तथा स्टील कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर, डॉक्टर, फ़ार्मासिस्ट, डाकख़ाना-कर्मी, सामाजिक कर्मी, सामाजिक यातायात-कर्मी, तिपहिया ड्राइवर, और अब संवाददाता जैसे दसियों हज़ार मज़दूर काम की परिस्थितियों को बेहतर करने, वेतन बढ़ाने और अन्य मज़दूर अधिकारों से जुड़ी माँगों को लेकर लगातार सड़कों पर आ रहे हैं। जनवरी 2014 से मज़दूर हड़तालों के उभार का यह सिलसिला पूरे मिस्र में दिख रहा है जो अब्दुल अल फ़तह-सिसी के नेतृत्व में साम्राज्यवाद द्वारा पोषित सैन्य तानाशाही के तहत होने वाले नंगे पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त कर रहा है।
फ़रवरी 2014 में सरकारी कपड़ा फ़ैक्टरी महाल्ला इल-कुबरा में 20,000 से अधिक मज़दूरों ने हड़ताल की, ये मज़दूर मैनेजर को हटाने और मज़दूरी को वर्तमान 520 मिस्र पाउण्ड मासिक से बढ़ाकर 1200 मिस्र पाउण्ड करने की माँग कर रहे थे, जो कि सरकारी विभाग की न्यूनतम मज़दूरी है। महाल्ला फ़ैक्टरी के मज़दूरों की हड़ताल के समर्थन में इससे जुड़ी अन्य 16 फ़ैक्टरियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दी थी। इनमें काफ़िर अल-दव्वार स्पिनिंग और वीविंग कम्पनी, टाण्टा डेल्टा टेक्सटाइल कम्पनी, जाकाजिक स्पिनिंग और वीविंग कम्पनी, और मिस्र हेल्वान टेक्सटाइल कम्पनियों के हज़ारों मज़दूर शामिल थे। इन सभी कम्पनियों के मज़दूरों की भी वही माँगें थीं, जो महाल्ला फ़ैक्टरी के मज़दूरों उठा रहे थे।
यहाँ लगातार हो रही हड़तालों पर नज़र डालें तो फ़रवरी 2014 में यातायात-कर्मियों की हड़ताल हुई, जिसमें ग्रेटर काहिरा अथोरिटी की सभी 28 गैराजों की बसें ठप कर दी गयीं, जिनमें 42,000 मज़दूर काम करते हैं। 9 मार्च 2014 से सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर तथा अन्य चिकित्साकर्मी चिकित्सा पर सरकारी ख़र्च बढ़ाने और कर्मियों का वेतन बढ़ाने की माँगों को लेकर आंशिक रूप से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। मैन्यूफ़ैक्चरिंग और लोहा तथा स्टील उत्पादन करने वाली इल-अशर, सिकन्दरिया और स्वेज़ में मज़दूरों ने हड़ताल की। इसके साथ ही फ़ार्मासिस्ट और समाजसेवा कर्मचारियों ने सिकन्दरिया, काफ़र, इल-शेख़ और काहिरा में हड़ताल की।
मिस्र की सैन्य-तानाशाही खुली पूँजीवादी लूट के समर्थन में इन मज़दूर हड़तालों को कुचलने के लिए सेना और पुलिस का इस्तेमाल करती है। यह मज़दूर संघर्ष मूलतः कॉरपोरेट घराने की सम्पत्ति और जनता के बीच अन्तरविरोधों के साथ ही राज्यसत्ता द्वारा कॉरपोरेट घरानों के इसारे पर की जा रही हिंसा, बेरोज़गारी, लगातार बढ़ रहा किराया, सरकारी मशीनरी में भ्रष्टाचार, प्राकृतिक बर्बादी, जीवन की परिस्थितियों में हो रही लगातार बदहाली, सैन्य तानाशाही द्वारा हत्या और जेलों में डाल दिये गये हज़ारों बेकसूर लोगों तथा प्रदर्शन विरोधी क़ानून जैसी परिस्थितियों के विरुद्ध मिस्र के मज़दूर वर्ग में व्याप्त गुस्से की अभिव्यक्ति है। सत्ता द्वारा किये जा रहे खुले दमन के कारण ये हड़तालें सीधे सैन्य तानाशाही के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष का रूप ले रही हैं।
मिस्र में मज़दूर संघर्षों पर नज़र डालें तो 2004 से 2008 के बीच 17 लाख मज़दूरों ने हड़तालों में हिस्सा लिया था, और 2010 से पहले नील डेल्टा के कपड़ा मज़दूरों की हड़तालों से ही वह ज़मीन तैयार हुई थी, जिस पर खड़े होकर मुस्लिम ब्रदरहुड ने मध्य-वर्ग को साथ लेकर मुबारक सरकार को सत्ता से बेदख़ल होने के लिए मजबूर कर दिया था। उस समय मिस्र में कोई क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन नहीं था, जो इन मज़दूर संघर्षों का सही राजनीतिक दिशा में नेतृत्व कर सकता और पूँजीवादी सत्ता को ध्वस्त कर सही मायने में मेहनतकश जनता की सत्ता को स्थापित करता। मध्यवर्ग को साथ लेकर मुबारक को बेदख़ल करने के बाद सत्ता में आयी मोहम्मद मुर्सी की सरकार ने पूँजीवादी व्यवस्था को जैसे का तैसा रखते हुए अपना काम शुरू किया था, और इसका परिणाम यह हुआ कि मुबारक को सरकार से बेदख़ल करने के बाद भी मज़दूरों के हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ और आज फिर से सैन्य-तख्तापलट के बाद सिसी की सैन्य तानाशाही के रूप में मुबारक सत्ता की ही वापसी हो चुकी है, जिसके तहत साम्राज्यवादी और देशी पूँजीपति आकाओं के मुनाफ़े के लिए मज़दूरों का खुला शोषण और आन्दोलनों का सशस्त्र दमन किया जा रहा है।
सिसी की सरकार भी लगातार हर प्रकार से पूँजीपतियों-साम्राज्यवादियों के हितों के लिए अपने काम रही है, और इसके कई उदाहरण हैं जब सिसी सरकार ने मज़दूरों की हड़ताल को समाप्त करने के लिए बर्बर सैन्य दमन का सहारा लिया। पिछले कुछ दिनों में सिसी सरकार के रवैये से यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि सेना को मुख्यतः फ़ैक्टरी मज़दूरों की हड़तालों का दमन करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका एक उदाहरण है अगस्त में सुईज स्टील कम्पनी में मज़दूरों के धरने का सैन्य पुलिस द्वारा बर्बर दमन। एक और घटना में एक उच्च सैन्य अधिकारी ने अन्तरराष्ट्रीय सिरेमिक और पोर्सीलीन का उत्पादन करने वाली क्लोप्तरा सिरेमिक्स कम्पनी में मज़दूर यूनियन के नेताओं की हत्या कर दी।
यहाँ की गुप्त पुलिस इन यूनियन के नेताओं से उनके त्यागपत्रों पर हस्ताक्षर लेने का दबाव बनाने में पूँजीपतियों के दलाल के रूप में काम कर रही है, और यदि कोई यूनियन नेता हस्ताक्षर करने से मना करते हैं तो उन्हें आतंकवादी कहकर उनका उत्पीड़न किया जाता है और उनकी छानबीन की जाती रहती है।
मिस्र में मज़दूरों के संघर्षों का इतिहास देखें तो 1957 में बनी मिस्र फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स शुरू से हड़तालों को तोड़ने के लिए सत्ता के हाथों में एक हथियार की तरह काम करती रही है। इसके साथ ही यहाँ कई ऐसी राजनीतिक पार्टियाँ हैं, जो ख़ुद को मज़दूरों का प्रतिनिधि कहती हैं, लेकिन वास्तव में पूँजीवादी सत्ता के समर्थन मेंमज़दूरों को शान्त रखनेका एक उपकरण हैं जो पूँजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के लिए एक सुरक्षा-पंक्ति की तरह काम करती हैं।
जिन सपनों के लिए 2011 में मिस्र की मेहनतकश जनता और मध्यवर्ग एक बेहतर भविष्य के लिए साम्राज्यवादी पोषित होसनी मुबारक की तानाशाही को उखाड़ फेंकने को तिहाड़ चौक पर एकजुट हुआ था, वह सपना आज पुनः सैन्य तानाशाही लागू हो जाने के बाद सपना ही बना हुआ है। आज भी मिस्र की जनता बेरोज़गारी और ग़रीबी से जूझ रही है, और काहिरा में रहने वाले सबसे ग़रीब लोगों की हालत यह है कि यहाँ पाँच लोगों का परिवार 10 मिस्र पाउण्ड (80 रुपया यानी 16 रुपया प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) प्रतिदिन पर जीने के लिए मजबूर है। पहले भी बेरोज़गारों की संख्या काफ़ी अधिक थी, लेकिन पिछले तीन साल में भी बेरोज़गारी में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है, और 2013 के अन्तिम तिमाही में बेरोज़गारों की संख्या 13 लाख से बढ़कर 36.5 लाख हो चुकी है। यहाँ कुल बेरोज़गार लोगों में से 69 प्रतिशत 15 से 29 साल की उम्र के नौजवान हैं। आज भी मिस्र के हर चार में से एक व्यक्ति सरकार द्वारा निर्धारित 540 डॉलर सालाना की ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है।
मिस्र में जनता के बीच व्याप्त असन्तोष का अनुमान इन हड़तालों से लगाया जा सकता है, लेकिन क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ मौजूद होने के बावजूद किसी क्रान्तिकारी हिरावल नेतृत्व के अभाव में जनता का संघर्ष आगे नहीं जा सका है। मेहनतकश जनता के शौर्यपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों का परिणाम और वर्तमान में मिस्र में मेहनतकश जनता की वास्तविक स्थिति ने एक क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की आवश्यकता को एक बार फिर रेखांकित किया है। 2011 में मज़दूर हड़तालों और संघर्षों ने तहरीर चौक से मुबारक की शोषक पूँजीवादी-साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की थी, जो किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में मुस्लिम-ब्रदरहुड के पाले में जाकर मुर्सी के सत्ता में आने के साथ समाप्त हो गया था। आज मिस्र की मेहनतकश जनता की प्रगतिशील ताक़तों का असन्तोष एक बार फिर पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण और सिसी सैन्य तानाशाही के विरुद्ध सड़कों पर प्रकट हो रहा है और आने वाले समय में जनता की संगठित ताक़त अवश्य ही पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध क्रान्तिकारी ताक़तों के नेतृत्व में एक निर्णायक संघर्ष का रूप लेगी।

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