Friday, April 18, 2014

सभी चुनावी पार्टियों के "विकास" नारों की असलियत में छिपी है जनता की हर ! !


नई सरकार के चुनाव के लिये मतदान शुरू हो चुका है और लोग बड़ी उम्मीदों के साथ वोट डाल रहे हैं। हर जगह आंकड़ों से पता चल रहा है कि वोट डालने वालों की संख्या बढ़ी है, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था के अन्याय के प्रति लोगों में काफी गुस्सा है। इसी गुस्से का फायदा उठाकर 2011 में मध्य-वर्ग का भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक आन्दोलन शुरू हुआ था जिसके मुख्य केन्द्र में कुछ एनजीओ के साथ अन्ना हजारे थे। उस समय लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई थी कि पूरे देश में करोड़ों लोगों की सभी समस्याओं, जैसे काम में ठेकाप्रथा, करोड़ों लोगों की बेरोज़गारी, किसानों की गरीबी के कारण होने वाली आत्महत्याएँ, और लगातार बढ़ रही असमानता का मुख्य और एकमात्र कारण भ्रष्टाचार है। इन "आन्दोलनकारियों" का समर्थन कर रहे प्रचारक बढ़-चढ़ कर यह प्रचार कर रहे थे कि जनता में व्याप्त असंतोष भी भ्रष्टाचार के प्रति गुस्से के कारण ही है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में इन सिद्धान्तहीन प्रदर्शनों का एक दैर चला था, जिसे कोई "नई क्रान्ति की शुरुवात!!" कह रहा था तो कोई "अन्ना की आंधी!!"।
अन्ना की "आंधी" तो शान्त हो गई, और जैसा कि आँधी के बात होता है, अपने पीछे निराशा, पस्तहाली, भ्रम का कूड़ा-करकट और गन्दगी का एक ढेर छोड़ गई। अन्ना आन्दोलन की सच्चाई तो पहले ही सबके सामने आ चुकी है, और इसके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार के मुद्दे को पूँजीवाद के हितों में बेहतरीन ढंग से को-आप्ट कर लिया गया है। अब सोचने का सवाल यह है कि इससे फायदा किसे हुआ?
पूँजीवादी मुनाफ़ाखोरी पर टिकी पूरी व्यवस्था की अराजकता के प्रति व्यापक जनता के असन्तोष को पूँजीवादी प्रचार तन्त्र और आन्दोलनों के माध्यम से धीरे-धीरे सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के विरोध में ढाला गया, और फिर सत्ताधारी पार्टी के दलदल से निकालकर इस असन्तोष को विपक्षी बीजेपी पार्टी के समर्थन तक ले जाकर कींचड़ में धकेल दिया गया, जिसकी सभी नीतियाँ कांग्रेस जैसी हैं। अन्ना आन्दोलन से पैदा हुई आप पार्टी भी भ्रष्टाचार के नाम पर सोचने समझने वाले एक तबके को लोकरंजक नारों से लुभाने और पूँजीवाद के प्रति लोगों को गुमराह करने का काम सतत कर रही है।
हर बयान में बीजेपी के नेता यह कह रहे हैं कि देश को एक "मज़बूत" सरकार की जरूरत है। उनका मज़बूत सरकार से यह मतलब नहीं है कि वह पूँजीपतियों और साम्राज्यवादी ताकतों पर दबाव बनाकर जनता की भलाई करेंगे, बल्कि उनका सीधा अर्थ होता है कि यदि कहीं भी जनता अपनी माँगे उठाये तो पूँजीपतियों के हित में उसका मजबूती के साथ दमन किया जाएगा। यही कारण है कि पूँजीपति खूब पैसा चुनावों में पार्टियों को दान दे रहे हैं।
किसी भी चुनावी संसदीय पार्टी ने जनता के हितों के लिये कोई ठोस योजना प्रस्तुत नहीं की है। सभी लोगों को यह विश्वास दिलाना चाह रहे हैं कि पूँजीवाद को बढ़ावा देने और मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था को और बेहतर ढंग से मैनेज करने की जरूरत है, क्योंकि इसी थे थोड़ा बहुत मुनाफा रिस कर (Trickle Down) भूखे-नंगे गरूबों तक भी पहुँचेगा (कई सालों से ऐसा ही कहा जा रहा है और जनता की बर्बादी पर खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है!!)।
चुनाव में वोट डालने वालों को यह नहीं पता कि यह उनकी नहीं बल्कि पूँजीवादी प्रचार तन्त्र की जीत है। यह जनता की हार है, क्योंकि व्यवस्था या पूँजीवादी लूट की नीतियों में बदलाव की उसकी इच्छा को विपक्षी पार्टी के समर्थन में मोड़ कर कुंद कर दिया गया है। सच्चे बदलाव की इस इच्छा को फिर से तेज होने में लम्बा समय लगेगा, और उस बीच लाखों बच्चे कुपोषण और भुखमरी के शिकार होंगे, करोड़ों मज़दूर काम करते हुये असमय मुनाफे की भेंट चढ़ जायेंगे, कई हजार किसान आत्महत्या कर लेंगे, और कई नौजवान बेरोज़गारी में सड़कों पर भटकते रहेंगे...

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