Wednesday, March 27, 2013

मक्सिम गोर्की — एक साहित्यिक - क्रान्तिकारी परिचय



मक्सिम गोर्की (28 मार्च 1868 18 जून 1936) को पूरी दुनिया में महान लेखक और समाजवादी यथार्थवाद के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। रूस में ज़ारशाही के दौरान 1907 में हुई असफल क्रान्ति से लेकर 1917 में हुई अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति और उसके बाद के समाजवादी निर्माण तक के लम्बे दौर में मक्सिम गोर्की नें अपनी कहानियों, नाटकों, लेखों और उपन्यासों के माध्यम से हर क़दम पर जनता को अपनी परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी। वह अपने समय में दबी-कुचली जनता के आत्मिक जीवन के भावों की आवाज़ बनकर उभरे। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से लेकर अक्टूबर क्रान्ति के बाद लगभग 40 वर्षों के दौरान गोर्की अपनी कलम से रूसी साहित्य और जनता में बदलाव के लिये एक नई ऊर्जा का संचार करते रहे। साथ ही उनका सारा सृजन भी जनता के जीवन और संघर्षों से करीब से जुड़ा रहा।
समाज के दबे कुचले वर्गों से बचपन से ही जीवन्त सम्पर्क में रहने वाले गोर्की के लेखन को उनके जीवन और उस समय के रूसी समाज के परिप्रेक्ष्‍य में रखकर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनके साहित्यिक सृजन का स्रोत क्या था। गोर्की के माता-पिता बचपन में नहीं रहे थे और उनका बचपन अपनी नानी के यहाँ बीता जहाँ उन्हें एक रूसी मध्यवर्गीय परिवारिक माहौल मिला। नानी की मृत्यु के बाद सम्पत्ति को लेकर परिवार में लड़ाई-झगड़े होने लगे जिसके बाद गोर्की ने 13 साल की उम्र में घर छोड़ दिया और कई जगह काम बदलते हुये रूस के कई हिस्सों में घूमते रहे। इस दौरान उन्हें समाज को और क़रीब से देखने का मौका मिला और वह कई प्रकार के लोगों के सम्पर्क में आये। इस तरह गोर्की बचपन से ही एक मज़दूर के रूप में पले-बढ़े और घर में काम से लेकर बेकरी के क़ारख़ानों, जहाजों और खेतों तक कई काम करते उनका बचपन मेहनत और संघर्ष करते हुये बीता।
आने वाले समय में बचपन के यह अनुभव ही उनके साहित्यिक रचनाओं का आधार बने और वह जनता के मुक्ति संघर्ष का हिस्सा बनकर उभरे। अपने पूरे साहित्यिक सृजन में गोर्की ने रूसी जीवन की कड़वी सच्चाई का यथार्थवादी चित्रण किसी व्यक्ति के दृष्टिकोंण से नहीं किया है, बल्कि वह उन परिस्थितियों को बदलने के लिये एक प्रेरणास्रोत की तरह पाठक के सामने प्रकट होते हैं। गोर्की के शब्दों में, "सत्य दया से अधिक महत्व रखता है। और आज मैं अपनी नहीं, वरन् दम घोंटनेवाले उस भयंकर वातावरण की कहानी लिखने बैठा हूँ, जिसमें साधारण रूसी जनता रहा करती थी और आज भी रहती है।" "पुरानी दुनिया अवश्य ही जानलेवा रोग से ग्रस्त है और हमें उस संसार से शीघ्रातिशीघ्र पिण्ड छुड़ा लेना चाहिये ताकि उसकी विषैली हवा कहीं हमें न लग जाये।"
बचपन में समय-समय पर गोर्की का परिचय उस समय के रूस में ज़ारशाही निरंकुशता एवं दमन उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों से होता रहा, जिनके जीवन का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा, "उन अनगिनत लोगों में से पहले व्यक्ति से मेरी मित्रता का अन्त हुआ, जो देश के सर्वश्रेष्ठ सपूत होते हुए भी अपने ही वतन में अजनबी से हैं..." इन लोगों के सम्पर्क ने गोर्की को किताबों से परिचित कराया। गोर्की की जीवन परिस्थितियों ने उन्हें किसी स्कूल या विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं दिया, लेकिन उन्होंने स्वाध्याय और जनता से जुड़े रहकर प्राप्त अनुभव को अपनी शिक्षा का केन्द्र बनाया। गोर्की के शब्दों में, "मैं अपनी उपमा मधुमक्‍खी के छत्ते से दे सकता हूँ, जिसमें देश के अगणित साधारण प्राणियों ने अपने ज्ञान और दर्शन का मधु लाकर संचित किया है। सबों की बहुमूल्य देन से मेरे चरित्र का विकास हुआ। अक्सर देने वाले ने गन्दा और कड़वा मधु दिया, फिर भी था तो वह ज्ञान-मधु ही।"
गोर्की अपने बचपन में ही ज़ारशाही काल में रूसी जनता की ग़रीबी और उत्पीड़न को देख चुके थे और इस सच्चाई से अवगत हो चुके थे कि किस तरह उस समाज में एक बड़े हिस्से को दबे-कुचले तबकों के रूप में रहने और जानवरों की तरह जीवन व्यतीत करने के लिये मजबूर किया गया था, "मैं उनके बीच अपने आप को जलते अँगारों में डाल दिये गये जलते लोहे के टुकड़े की तरह महसूस करता था हर रोज मुझे अनेक तीखे अनुभव प्राप्त होते। मानव अपनी सम्पूर्ण नग्नता के साथ सामने आता था स्वार्थ और लोभ का पुतला बनकर। जीवन के प्रति उनका क्रोध, दुनिया की हर चीज़ के प्रति उनका उपहासजनक शत्रुता का भाव और साथ ही अपने प्रति उनका फक्कड़पन "
अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भ में ही गोर्की का परिचय तोलस्तोय और चेखव जैसे रूस के महान यथार्थवादी लेखकों से हुआ। गोर्की शुरूआती दिनों से ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों से जुड़े रहे। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बोल्शेविक में शामिल होकर जनता के संघर्षों में काफ़ी क़रीब से जुड़ गये और इसी दौरान उन्होंने पार्टी में शामिल मज़दूरों और क्रान्तिकारियों के जीवन और संघर्ष पर आधारित अपना विश्व प्रसिद्ध उपन्यास "माँ" (1906) लिखा जिसके बारे में लेनिन ने कहा था कि इसे पढ़कर उन सभी मज़दूरों को क्रान्ति के उद्देश्यों को समझने में मदद मिलेगी जो स्वत:स्फूर्त ढंग से आन्दोलन में शामिल हो गये हैं।
आज भी, जबकि पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलन ठहराव के शिकार हैं और प्रगति पर प्रतिरोध की स्थिति हावी है, ऐसे में गोर्की के उपन्यास और कहानियाँ पूरी दुनिया की जनता के संघर्षों के लिये अत्यन्त प्रासंगिक हैं। आज भी उनकी रचनायें पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को एक साम्यवादी समाज के निर्माण के लिये उठ खड़े होने और परिस्थितियों को बदल डालने के लिये संघर्ष करने, एक क्रान्तिकारी इच्छाशक्ति पैदा करने और सर्वहारा वर्ग चेतना को विकसित करने की प्रेरणा देती हैं। गोर्की का साहित्य हमारे मन में वर्तमान समाज में जनता की बदहाल परिस्थितियों के प्रति नफ़रत ही नहीं बल्कि उन परिस्थितियोँ के विरुद्ध संघर्ष करने और उन्हें बदलने की इच्छा भी पैदा करता है।
गोर्की अपने उपन्यास "माँ" में एक मज़दूर के शब्दों में विचार प्रकट करते हुये कहते हैं, "क्या हम सिर्फ़ यह सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे? बिल्कुल नहीं" "हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियाँ बाँधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं।  हम न तो बेवक़ूफ़ हैं और न जानवर कि पेट भरने के अलावा और किसी बात की हमें चिन्ता ही न हो। हम इंसानो का सा जीवन बिताना चाहते हैं! हमें यह साबित कर देना चाहिए कि उन्होंने हमारे ऊपर खू़न पसीना एक करने का जो जीवन थोप रखा है, वह हमें बुद्धि में उनसे बढ़कर होने से रोक नहीं सकता!"
गोर्की ने रूस की दलित उत्पीड़ित जनता का जीवन जितने क़रीब से देखा था उतने ही स्पष्ट रूप से उसको अपने साहित्य में चित्रित किया और व्यापक जनसमुदाय को शिक्षित करने में एक अत्यन्त ऐतिहासिक भूमिका निभाई। अपनी आत्मकथा में गोर्की ने लिखा है, "दुनिया में अन्य कोई चीज़ आदमी को इतने भयानक रूप से पंगु नहीं बनाती जितना कि सहना और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार कर उनके सामने सिर झुकाना।" गोर्की ने अपनी कहानियोँ, नाटकों, उपन्यासों और लेखों के माध्यम से समाज को सिर्फ़ चित्रित ही नहीं किया बल्कि उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया, "क्या यह ज़रूरी है कि इस हद तक घिनौनी बातों का वर्णन किया जाये? हाँ, यह ज़रूरी है! यह इसलिये ज़रूरी है श्रीमान कि आप धोखे में न रहें, कहीं यह न समझने लगें कि इस तरह की बातें केवल बीते जमाने में हुआ करती थीं! आज भी आप मनगढ़न्त और काल्पनिक भयानकताओं में रस लेते हैं, सुन्दर ढंग से लिखी भयानक कहानियाँ और किस्से पढ़ने में आपको आनन्द आता है। रोंगटे खड़े कर देने वाली कल्पनाओं से आपके हृदय को सनसनाने और गुनगुनाने से आप ज़रा भी परहेज़ नहीं करते। लेकिन मैं सच्ची भयानकताओं से परिचित हूँ, आये दिन के जीवन की भयानकताओं से, और यह मेरा अवंचनीय अधिकार है कि उनका वर्णन करके आपके हृदयों को कुरेदूं, उनमें चुभन पैदा करूँ ताकि आपको ठीक-ठीक पता चल जाये कि किस दुनिया में और किस तरह का जीवन आप बिताते हैं।" "कमीना और गन्दगी से भरा घिनौना जीवन है यह जो हम सब बिताते हैं।" "मैं मानव-जाति से प्रेम करता हूँ और चाहता हूँ कि उसे किसी भी तरह के दुःख न पहुँचाऊँ, परन्तु इसके लिये न तो हमें भावुकता का दामन पकड़ना चाहिये और न ही चमकीले शब्द-जाल और खू़बसूरत झूठ की टट्टी खड़ी करके जीवन के भयानक सत्य को हमें छिपाना चाहिये! ज़रूरी है कि हम जीवन की ओर मुँह करें और हमारे हृदय तथा मस्तिष्क में जो कुछ भी शुभ और मानवीय है, उसे जीवन में उड़ेल दें।"
एक भौतिकवादी होने के नाते गोर्की मनुष्यों के स्वभाव के लिये परिस्थितियों को ज़ि‍म्मेदार मानते थे और इसलिए वह जीवन की भौतिक परिस्थितियों को बदलने पर ज़ोर देते थे, "रूसी अपनी ग़रीबी और नीरसता के कारण ऐसा करते हैं। व्यथा और रंज उनके मनबहलाव के साधन हैं।" "जब जीवन की धारा एकरस बहती है तो बिपत्ति भी मन बहलाने का साधन बन जाती है। घर में आग लग जाना भी नवीनता का रस प्रदान करता है।"
गोर्की अपने समय के वर्तमान जीवन की आलोचना के साथ ही वर्ग समाज में प्रतिस्पर्धा की होड़ में होने वाले मनुष्यों के व्यक्तिगत विघटन की कड़ी आलोचना करते थे और उनका मानना था कि जब तक मेहनत करने वालों की मेहनत को कुछ परजीवी हड़पते रहेंगे तब तक समाज में शान्ति नहीं हो सकती, "समूचे वातावरण में एक-दूसरे को भक्षण करने की एक अराजक प्रक्रिया निरन्तर लागू है; सभी मनुष्य एक दूसरे के दुश्मन हैं; अपना-अपना पेट भरने की इस गन्दी लड़ाई में भाग लेने वाला हर आदमी सिर्फ़ अपनी ही सोचता है और अपने चारों ओर संदेह की दृष्टि से देखता है, ताकि पड़ोसी कही उसका गला न धर दबोचे। थकानें वाली इस पाशविक लड़ाई के भंवर में फंसकर बुद्धि की श्रेष्ठतम शक्तियाँ दूसरों से अपनी रक्षा करने मे ही नष्ट हो जाती हैं, मानव अनुभव की वह उपलब्धि जिसे "मैं" कहते हैं, एक अंधेरा तहख़ाना बन जाती है जिसके अन्दर अनुभव को और अधिक सम्रद्ध न करनें और पुराने अनुभव को तहख़ाने की दम घोंटनेवाली कोठरियों में बन्द रखने की क्षुद्र प्रवृत्तियाँ हावी रहती हैं। भरे पेट के अलावा आदमी को और क्या चाहिए? इस लक्ष्य को पाने के लिए मनुष्य अपने उच्चादर्शों से फिसलकर गिर गया है और ज़ख्मी होकर आँखें फाड़े, पीड़ा से चीखता और कराहता नीचे पड़ा है।"
जनता के मुक्तिसंघर्ष में पूरा विश्वास रखने वाले और एक क्रान्तिकारी के रूप में उस संघर्ष में शामिल रहते हुये जीवन के प्रति गोर्की का दृष्टिकोंण आशावाद और जनता में दृढ़ विश्वास से भरा हुआ था, "हमारे जीवन की यही विलक्षणता नहीं है कि वह बर्बरता और पाशविकता की मोटी तह में लिपटा हुआ है, बल्कि यह कि इस तह के नीचे से आलोकमय, सबल, सृजनात्मक और भलाई की शक्तियाँ विजयी होकर बाहर आ रही हैं और यह दृढ़ आशा पैदा कर रही हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब हमारे देश की जनता के जीवन में सौंदर्य एवं आलोकपूर्ण मानवता का सूर्य उगेगा और अवश्य उगेगा।"

गोर्की का पूरा जीवन और उनका साहित्यिक कार्य पूरी दुनिया के मज़दूरों के लिये एक प्रेरणास्रोत है, और अन्याय के विरुद्ध क़दम-क़दम पर हमें संघर्ष करने के लिये प्रोत्साहित करता है। उनका मानना था, "पूँजीवादी समाज में कुल मिलाकर मनुष्य अपने अद्भुत सामर्थ्य को निरर्थक लक्ष्यों की प्रप्ति के लिये बर्बाद करता है। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये उसे गली में हाथों बल चलना पड़ता है, द्रुतगति के ऐसे रिकार्ड स्थापित करने पड़ते हैं जिनका कुछ कम या कुछ भी व्यावहारिक मूल्य नहीं होता, एक ही वक्त में बीसियों के साथ शतरंज के मैच खेलने, अद्भुत कलाबाजियाँ खाने और काव्य-रचना के झूठे चमत्कार प्रदर्शित करने पड़ते हैं, और साधारणतया हर प्रकार की ऐसी बेसिरपैर की हरकतें करनी पड़ती हैं जिनसे उकताये तथा ऊबे हुए लोगों को पुलकित किया जा सके।. . . . "

अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत यूनियन में गोर्की अपने अन्तिम दिनों तक समाजवादी खेमें के अनेक युवा लेखकों का जोश के साथ नेतृत्व कर रहे थे। "अग्नि-दीक्षा" उपन्यास के लेखक निकोलाई ओस्त्रोव्स्की ने 1936 में गोर्की के बारे में लिखा है, "हमारी टुकड़ी का कमाण्डर ऊंचे कद का, सफेद बालों वाला कमाण्डर कहता है: "इन घिसटनेवालों का क्या करूँ? पीछे कहीं बैठे नाश्ता कर रहे होंगे" अगले दस्ते से कहीं 50 मील पीछे होंगे। उनकी पाकशाला पीछे कहीं दलदल में धंस गई है। मेरे बालों को ये लज्जित कर रहे हैं।" यह मज़ाक है ज़रूर, मगर एक कड़वा मज़ाक, इसमें सचाई कम नहीं।" प्रसिद्ध और सम्मानप्राप्त, अपनी कला में सिद्धहस्त अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए, धीरे से बड़े गंभीर लहजे में
अन्त में गोर्की के ही शब्दों में, "मेरे लिये मानव से परे विचारों का कोई अस्तित्व नहीं है। मेरे नज़दीक मानव तथा एकमात्र मानव ही सभी वस्तुओं और सभी विचारों का निर्माता है। चमत्कार वही करता है और वही प्रकृति की सभी भावी शक्तियों का स्वामी है। हमारे इस संसार में जो कुछ अति सुन्दर है उनका निर्माण मानव श्रम, और उसके कुशल हाथों ने किया है। हमारे सभी भाव और विचार श्रम की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं और यह ऐसी बात है, जिसकी कला, विज्ञान तथा प्रविधि का इतिहास पुष्टि करता है। विचार तथ्य के पीछे चलता है। मैं मानव को इसलिये प्रणाम करता हूँ कि इस संसार में कोई ऐसी चीज़ नहीं दिखाई देती जो उसके विवेक, उसकी कल्पनाशक्ति, उसके अनुमान का साकार रूप न हो।

"यदि "पावन" वस्तु की चर्चा आवश्यक ही है, तो वह है अपने आप से मानव का असन्तोष, उसकी यह आकांक्षा कि वह जैसा है उससे बेहतर बने। ज़ि‍न्दगी की सारी गन्दगी के प्रति जिसे उसने स्वयं जन्म दिया है, उसकी घ्रणा को मैं पवित्र मानता हूँ। ईष्या, धनलिप्सा, अपराध, रोग, युद्ध तथा संसार में लोगों बीच शत्रुता का अन्त करने की उसकी इच्छा और उसके श्रम को पवित्र मानता हूँ।"

Friday, March 22, 2013

भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों के विचारों की सान पर . . .


भगतसिंह (28 सितम्बर 1907 - 23 मार्च 1931)
शहीदों के सपनों को याद करते हुए!
भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों द्वारा भारत की आज़ादी के संघर्ष के दौरान इस्तेमाल किये गये यह दो शब्द आज भी हर न्यायप्रिय इंसान की आत्मा को झकझोर देते हैं। इन शहीदों के यह शब्द हमें सोचने के लिये मजबूर करते हैं कि आज आज़ादी के 66 साल बाद भी हर तरफ़ मौज़ूद बेकारी, गै़र-बराबरी और ग़रीबी का क्या कारण है? और हमारे सामने एक सवाल खड़ा हो जाता है कि इन शहीदों के सपने क्या थे और वे समाज और आज़ादी के बारे में क्या सोचते थे? भगसिंह को ज़्यादातर लोग असेम्बली में बम फेंकने वाले एक जोशली क्रान्तिकारी नौजवान के रूप में तो जानते हैं, लेकिन एक विचारक के रूप में लोग उन्हें नहीं जानते। उनके विचार, उनके सिद्धान्त आज भी ज़्यादातर लोगों के लिये अनजान हैं। असेम्बली में बम फेंकने के बाद जेल में रहते हुये भगतसिंह और उनके साथियों ने अनेक पुस्तकों का अध्ययन कियाइस दौरान भगतसिंह ने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे जो 1986 में प्रकाशित किये गये। इन लेखों में भगतसिंह के क्रान्ति और समाज के निर्माण के बारे में उनके सारे मत बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। जेल में रहकर अध्ययन करते हुये भगत सिंह वैज्ञानिक समाजवाद को अपना चुके थे और अपने अन्तिम दिनों में रूसी क्रान्तिकारी नेता लेनिन का जीवन परिचय पढ़ रहे थे। वह सोवियत यूनियन में हुई समाजवादी सर्वहारा क्रान्ति से अत्यधिक प्रभावित थे। इसका अन्दाज़ा जेल से उनके द्वारा लिखे गये एक पत्र से लगाया जा सकता है, "लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिये अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर राज की जीत हो।"
भगतसिंह और उनके साथी कैसी आज़ादी की बात कर रहे थे और कैसा समाज चाहते थे उसकी एक झलक अदालत में दिये गये उनके इस बयान में भी देखने को मिलती है,
"क्रांति से हमारा अभिप्रय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।

समाज का मुख्य अंग होते हुये भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिये मुहताज हैं। दुनियाभर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकनेभर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिये लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।

यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनियाँ को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक का़यम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।

सभ्यता का यह प्रसाद यदि समय रहते सँभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है...।"
व्यवस्था में जिस आमूल परिवर्तन की बात भगतसिंह कर रहे थे उसका अर्थ था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। वह एक ऐसे समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे जहाँ सारे सम्बन्ध समानता पर आधारित हों और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत का पूरा हक़ मिले। इसी क्रम में उस समय सत्ता हस्तानान्तरण हस्तान्तरण के लिये बेचैन और जनता की स्वत:स्फूर्त शक्ति को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये इस्तेमाल कर रही कांग्रेस के बारे में भगतसिंह का कहना था कि सत्ता हस्तानान्तरण से दलित-उत्पीड़ि‍त जनता के जीवन में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा जब तक एक देश द्वारा दूसरे देश और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण का समर्थन करने वाली व्यवस्था को ध्वस्त करके एक समानतावादी व्यवस्था की नींव नहीं रखी जायेगी। उनका मानना था कि तब तक मेहनतकश जनता का संघर्ष चलता रहेता। आज 66 साल के पूँजीवादी शासन में लगातार बढ़ रही जनता की बदहाली और शोषण अत्याचारों की घटनाओं से भगतसिंह की बातें सही सिद्ध हो चुकी है। भगत सिंह और उनके साथियों ने फाँसी से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को गवर्नर को लिखे गए पत्र में कहा था, "यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने (भारतीय) जनता और श्रमिकों की आय पर अपना एकाधिकार कर रखा है चाहे एसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का खू़न चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।"
भगतसिंह मज़दूरों के क्रान्तिकारी संघर्ष के मार्क्सवादी सिद्धान्त के क़रीब पहुँच चुके थे और उन्होंने एक संगठित मज़दूर आन्दोलन के माध्यम से क्रान्तिकारी परिवर्तन के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का नौजवानों से आह्वान किया था। 19 अक्टूबर 1929 को जेल से विद्यार्थियों के नाम लिखे गये अपने पत्र में भगतसिंह ने कहा था, "नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्‍ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी होगी जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।" वह सिर्फ़ साम्राज्यवादी शोषण का ही विरोध नहीं करते थे, बल्कि उनका मानना था कि जब तक समाज असमानता पर खड़ा रहेगा तब तक मेहनतकश जनता की स्थिति नहीं बदल सकती, "स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है।"
भगतसिंह ने अपने सभी विचारों में व्यवस्था परिवर्तन और आर्थिक एवं राजनीतिक क्रान्ति खड़ी करने के लिये जनता को जागरुक करने और मेहनकश वर्ग को संगठित करने के लिये वर्ग-चेतना के विकास पर जोर दिया था। भगतसिंह के शब्दों में, "संगठनबद्ध हो जाओ। स्वयं कोशिशें किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा। संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो।... यह पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी का असली करण है। तुम असली सर्वहारा हो... संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ हानि न होगी। बस गु़लामी की जंज़ीरें कट जायेंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बग़ावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिये कमर कस लो। तुम ही देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो..."
सत्ता हथियाने के लिये लोगों को जाति और धर्म के नाम पर आपस में लड़ा कर अपना राजनीतिक फ़ायदा उठाने वाले लोगों का भी भगतसिंह ने खुला विरोध किया है। आपने आरम्भिक दिनों में लिखे गये लेख 'अछूत का सवाल' और जेल में अपने अन्तिम दिनों में लिखे गये 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' लेख में भगतसिंह ने असमानता का पक्ष पोषण करने वाली अनेक धार्मिक कुरीतियों तथा और जातीय असमानताओं तथा छुआ-छूत का खुलकर विरोध किया। ग़रीब मेहनतकश जनता को उनकी बदहाली के बारे में बेख़बर रखने के लिये धर्म और जाति का भ्रम फैलाने वाली सम्प्रदायिक ताक़तों और शोषण सम्बन्धों तथा मालिकों के हितों की हिफ़ाजत करने वाली राजनीति के बारे में भगतसिंह ने सीधे कहा था, "लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकशों और किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़कर कुछ न करना चाहिए। ... कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत ख़ुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियनों के मज़दूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े फोरम से क़ारख़ानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग-चेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है। 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता।"
जिस तरह मज़दूरों और किसानों को जातियों और धर्मों के नाम पर बाँटा जाता है, और उनकी एकजुट ताक़त को कमज़ोर किया जाता रहा है, वह वास्तव में पूँजीवादी सत्ता की मदद करता है जो कि पूँजी के हितों पर आपस में मज़दूरों के विरुद्ध एकजुट होते हैं। एक ओर सच्चाई यह है कि पूरे देश के हर जाति और हर धर्म के मज़दूरों की सबसे बड़ी आबादी एक जैसी स्थिति में काम करने के लिये मजबूर है, एक जैसी स्थिति में मज़दूर बस्तियों में रहती है। ऐसे में जाति और धर्म की पुरानी कुरीतियाँ टूट रही हैं, लेकिन अभी भी कई जगह मालिक और पूँजीपतियों के दलाल नेता हिन्दू-मुसलमान, बिहार-महाराष्ट्र या ऊँची और नीची जाति जैसे जनविरोधी नारे लगाकर मज़दूरों की ताक़त को कमज़ोर करने में सफल हो जाते हैं। व्यवस्था परिवर्तन के लिये क्रान्ति का जो आह्वान भगतसिंह ने किया था उसका उद्धेश्य था हर प्रकार के शोषण को अन्त करना और हर असमानता सूचक और लोगों के बीच भेदभाव करने वाली धार्मिक और जातीय रूढ़ियो का समाज से समूल नाश करना, और इनके आधार पर किये जाने वाले साम्प्रदायिक जाति-छुआछूत-शोषण जैसी हर चीज का अन्त करना। भगतसिंह ने कहा था, "धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिये। 'जो चीज़ आज़ाद विचारों को बरदाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।' इस काम के लिये सभी समुदायों के क्रन्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है।"
धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति का विरोध करने के साथ ही भगतसिंह सामाजिक मूल्यों में व्याप्त धर्म  के यथास्थितिवादी और भाग्यवादी विचारों एवं स्वर्ग-नर्क जैसे अन्धविश्वासों का भी विरोध करते थे। भगतसिंह का कहना था, "धर्म का रास्ता अकर्मण्यता का रास्ता है, सब कुछ भगवान के सहारे छोड़ हाथ पे हाथ रखकर बैठ जाने का रास्ता है, निष्काम कर्म की आड़ में भाग्यवाद की घुट्टी पिला कर देश के नौजवानों को सुलानें का रास्ता। मैं इस जगत को मिथ्या नहीं मनाता। मेरे लिए इस धरती को छोड़ कर न कोई दूसरी दुनिया है न स्वर्ग। आज थोड़े-से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नरक बना डाला है। शोषकों तथा दूसरों को गु़लाम रखने वालो को समाप्त कर हमें इस पवित्र भूमि पर फिर से स्वर्ग की स्थापना करनी पड़ेगी।"
आज जहाँ एक ओर देश की अर्थव्यवस्था लगातार उछाल पर है वहीं दूसरी ओर देश की 80 फ़ीसदी मेहनत-मज़दूरी करने वाली आबादी बेरोज़ग़ारी और घोर शोषण की हालत में जीने के लिये मजबूर है और देश की 77 फ़ीसदी आबादी रोजाना 20 रुपयों से भी कम आमदनी पर जी रही है। वर्तमान पूँजीवादी सत्ता द्वारा लगातार ठेकाकरण को बढ़ावा देने और श्रम का़नूनों को तिलांजलि देने के बाद आज पूरे देश की 93 फ़ीसदी मज़दूर आबादी बिना किसी श्रम क़ानून के ठेके पर काम कर रही है। ऐसी स्थिति में मज़दूरों के शोषण की नींव पर खड़ी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने के लिये भगतसिंह के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि तब थे जब कि भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था। भगतसिंह का नाम आज भी भारत के हर कोने में जनता पर होने वाले जुल्म-अन्याय और शोषण के विरुद्ध जनता की आवाज़ का उसी स्तर पर प्रतिनिधित्व करता है जितना की तब करता था। यही कारण है कि आज कई दशाब्दियाँ बीत जाने के बाद भी वर्तमान सत्ता उनके विचारों को जनता की नज़रों से छुपाकर रखने के पूरे प्रयास करती है। और इसी डर से उस समय सत्ता पर क़ाबिज़ साम्राज्यवादी सत्ता और सत्ता हस्तानान्तरण की माँग कर रही कांग्रेस भी पूरे देश में बढ़ रहे उनके विचारों से घबरा गई थी।
अन्त में भगत सिंह के शब्दों में, "जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिये एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।... लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिये यह ज़रूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये, ताकि इन्सानियत की रूह में हरकत पैदा हो।
"... क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता।... प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से सम्बन्धित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे।... निर्माण के लिए ध्वंस ज़रूरी ही नहीं, अनिवार्य है।"

Popular Posts