Saturday, October 19, 2013

गुड़गाँव के “मल्टीब्राँण्ड” शॉपिंग सेन्टरों में विलासिता के सामान बेंचने में गुम मज़दूरों के जीवन की एक झलक ! !

देश के विकास में ढूढ़ने से भी नहीं मिलेगा आम जनता का हिस्सा!!
गुड़गाँव की बात होते ही लोगों की आँखों के सामने देश के औद्योगकि केन्द्र के रूप मे विकासमान एक शहर की तस्वीर घुमने लगती है। कोई व्यक्ति जब यहाँ आता है तो उसका सामना सबसे पहले बड़ी-बड़ी इमारतों, मल्टी-ब्राण्ड मालों और आईटी, साफ्टवेयर और आटोमोबाइल जैसी कम्पनियों की बड़ी-बड़ी इमारतों से होता है। यह तस्वीर उस गुड़गाँव की है जिसे भारत में औद्योगिक विकास के केन्द्र के रूप में टीवी अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं में दिखाया जाता है, या राजमार्ग संख्या आठ से गाड़ियों या बसों में बैठ कर गुज़रने वाले लोगों को दिखता है। इस गुड़गाँव के बीच एक दूसरा गुड़गाँव भी है, जो इस पहले गुड़गाँव की चमक-दमक के पीछे सभी की नज़रों से ओझल होकर अंधेरे में छुपा हुआ है। इन सभी इमारतों को बनाने वाले मज़दूरों से लेकर इनके रख-रखाव और इनमें काम करने वालों को सर्विस देने के लिये लाखों मज़दूर यहाँ काम करते हैं। हर दिन सुबह और शाम इस दूसरे गुड़गाँव की एक झलक हर औद्योगिक क्षेत्र की गलियों में और कापहेड़ा, मौलाहेड़ा, राजीव चौक, मानेसर जैसी मज़दूर बस्तियों के आस-पास के इलाकों में मज़दूरों के मेले के रूप में देखी जा सकती है। इस गुड़गाँव में रहने वाले लाखों मज़दूर पहले गुड़गाँव की चमक-दमक के लिये ज़रूरी सारी सुख-सुविधायें उपलब्ध कराते है और देश की जीडीपी को बढ़ाने के लिये दिन रात अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं। वास्तव में गुड़गाँव की चमक-दमक का बोझ इस दूसरे गुड़गाँव में रहने वाले मज़दूरों के कन्धों पर रखकर ढोया जा रहा है, जो कि इस शहर में रहने वाले मध्य-वर्ग की सुविधाओं के लिए और देश की औद्योगिक की प्रगति के लिये धमनियों में रक्त के संचार की तरह दिन-रात काम में लगे रहते हैं।
पूरा बाज़ार देशी-विदेशी विलासिता के सामानो से पटा हुआ है और मध्यवर्ग के बीच इन सामानो को बेंचने के लिये कई शोपिंग सेन्टर यहाँ लगातार खुल रहे हैं। दुनिया के करोड़ों मज़दूरों द्वारा बर्बर हालातों में काम करके पैदा किया गया विलासिता का यह सामान इन शोपिंग मालों की "सुन्दरता" बढ़ाने के लिए सजा-धजा कर प्रदर्शन के लिए रखा जाता है। गुड़गाँव जैसे शहरों में रहने वाले मध्यवर्ग की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इन इलाकों के कोने-कोने में मल्टी नेशनल ब्राण्ड के शापिंग सेण्टर, जैसे बिग-बाज़ार, रिलायंस, विशाल और , कैफे काँफी डे, पिज्जा हाट और शराब के ठेके, खाने के रेस्टोरेंट सहित कई छोटी-छोटी दुकानें खुल रही हैं। गुड़गाँव की एक विशेषता यह है कि यहाँ चिकित्सालय या पुस्तकालय ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलते हैं, लेकिन शराब के ठेके हर गली-नुक्कड़ से लेकर शोपिंग मालों तक हर जगह मौज़ूद हैं। इसी को पूरी दुनिया में देश के विकास की तस्वीर के रूप में दिखाया जाता है। जो किसी को नहीं दिखाया जाता वह यह कि इन सभी दुकानों में मज़दूरों की एक बड़ी आबादी सेवा कार्यों में लगी है जो अत्यन्त दयनीय स्थिति में अपना गुजारा कर रही है। इनमें समान को घरों में पहुँचाने वाले, दुकानों में मदद करने वाले, रेस्तराओं में खाना बनाने और परोसने वाले से लेकर अनेक सर्विस कार्य करने वाले असंगठित और अकुशल मज़दूर शामिल हैं। बड़े-बड़े रिटेल स्टोंरों की साथ अपना व्यापार करने वाले कुछ छोटे क्षेत्रीय व्यापारी भी अपनी दुकानों में काम के लिए मज़दूरों को रखते हैं, और इन मज़दूरों की काम की परिस्थितियों भी लगभग बड़े-बड़े ब्राण्डों की दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही होती है, फर्क सिर्फ इतना है कि इनमें मालिक भी उनके साथ देखभाल करता है। जैसे-जैसे पूँजी का विस्तार हो रहा है और मल्टी ब्राण्ट किराना सेण्टर खुल रहे है इन सभी छोटी दुकानो का भविष्य भी अपने अन्त की ओर बढ़ रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मध्य-वर्ग को सुविधायें देने के काम में लगे मज़दूर स्वयं उस सामान को कभी इस्तेमाल नहीं कर सकते जो इन शोपिंग सेण्टरों में बेंचा जाता है।
आम तौर पर लोगों का ध्यान इन कामों में लगे मज़दूरों के काम और जिन्दगी की हालात पर नहीं जाता। वास्तव में इन मज़दूरों की स्थिति भी कम्पनियों में 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही है। इन सभी सेण्टरों में काम करने वाले यूपी-उत्तराखण्ड-बिहार-बंगाल-उड़ीसा-राजस्थान जेसे कई राज्यों से आने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर दो तरह की तानाशाही के बीच काम करते हैं। एक ओर काम को लेकर मैनेजर या मालिक का दबाव लगातार इनके ऊपर बना रहता है और दूसारा जिस मध्य-वर्ग को सर्व करने के लिये उन्हें काम पर रखा जाता है उसका अमानवीय व्यवहार भी इन्हें ही झेलना पड़ता हैं। दुकानों और रेस्तराँ में यह मज़दूर लगातार काम के दबाव में रहते हैं, लेकिन ग्राहकों के सामने बनाबटी खुशी और सेवक के रूप में जाने की इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है। यह मज़दूर सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं बेंचते बल्कि मानसिक रूप से अपने व्यक्तित्व और अपनी मानवीय अनुभूतियों को भी पूँजी की भेट चढ़ाने के लिये भी मज़बूर होते हैं। आज़ाद देश के इन सभी मज़दूरों को जिन्दा रहने के लिये ज़रूरी है कि किसी मालिक के मुनाफ़े के लिये मज़दूरी करें।
कुछ दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों से बात करने पर वे बताते हैं कि वे सप्ताह के सातों दिन 13 से 14 घण्टे काम करते हैं, और उन्हें महीने की 4 से 6 हज़ार रुपये मज़दूरी मिलती है। कई क्षेत्रीय दुकानों और रेस्टोरेण्ट्स में 10 से 15 साल के बच्चे भी काम पर रखे जाते हैं, जो काम तो पूरा करते हैं लेकिन उनकी मज़दूरी दूसरों से काफी कम रखी जाती है। किसी भी मज़दूर को बीमार होने पर या त्योहारों पर कोई छुट्टी नहीं मिलती, बल्कि त्योहारों के दैरान इनपर काम का बोझ और बढ़ जाता है। इन्हें कई बार लगातार हर दिन 18 से 20 घण्टों तक ओबरटाइम करना पड़ता है ताकि त्योंहारों के दौरान खरीददारी पर टूट पड़ने वाले मध्य-वर्ग की ज़रूरत पूरी की जा सके। इन सभी मज़दूरों को छुट्टी अपनी मज़दूरी काटवाकर ही मिलती है। 24 घण्टे चलने वाली कुछ दुकानों में किसी भी मज़दूर को कभी भी ओवर टाइम के लिये रोक लिया जाता है, जो उसे बिना किसी शर्त के करना पड़ता है। इन सभी दुकानों में मज़दूरों को मनमानी शर्तों पर ठेके पर पर रखा जाता है और कोई भी श्रम कानून इनके लिए लागू नहीं होता। मालिक कभी भी इन्हें बिना शर्त काम से निकाला सकता है। मध्य-वर्ग के खाए-अघाये ग्रहकों की सुविधा की कीमत भी इन मज़दूरों को चुकानी पड़ती है। डोमिनोज और पिज्जा-हट जैसी दुकाने अपने ग्रहकों को आकर्षित करने के लिए 30 मिनट में डिलीबरी या फ्री-डिलीबरी के जो दावे करती हैं उसका बोझ भी मज़दूरों के ऊपर ही पड़ता है, क्योंकि यदि डिलीवरी में थोड़ी भी देर हो जाती है तो डिलीवरी करने वाले मज़दूर की मज़दूरी काट ली जाती है। ऐसी स्थिति में इन डिलीबरी करने वालों पर लगातार एक मनौवैज्ञानिक दबाव बना रहता है।
कई मज़दूरों से बात कर ने पर पता चला कि इनमें से ज़्यादातर नौजवान है, जो पहले किसी न किसी कम्पनी में काम कर चुके हैं, लेकिन वहाँ काम के दबाव और काम की अमानवीय परिस्थितियों के कारण उसे छोड़ कर बेहतर काम की तलाश में यहाँ आते हैं। कई मज़दूरों का कहना है कि कारखानों में लगातार एक साल काम करना उनके लिये सम्भव नहीं होता तो वे साल में कुछ दिन कभी रिक्शा चलाते हैं तो कभी इन सेवा कामों में अपनी किस्मत आजमाते हैं। लेकिन कुछ दिन काम करने के बाद उन्हें इसकी सच्चाई भी पता चल जाती है और फिर कहीं काम तलाश करने के लिये निकल पड़ते हैं। श्रम विभाग का कोई अधिकारी कभी इन मज़दूरों की हालात का जायज़ा लेने नहीं आता। जानकारी का कोई श्रोत भी इन मज़दूरों के पास नहीं है। ज़्यादातर मज़दूर अपने अधिकारों के बारे में भी नहीं जानते और न ही इन्हें इतिहास के अनेक मज़दूर आन्दोलनों और मज़दूरों के संघर्षों के बारे में कुछ पता है।
पूरी दुनिया में आज क्या चल रहा है और सरकारें उनके "उद्धार" के लिये क्या-क्या कर चुकी है, और क्या और करने जा रही है, इन सबकी जानकारी से बेख़बर यह मज़दूर सिर्फ दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए लगातर 12 से 16 घण्टे काम में लगे रहते हैं। इनके पास न ही सोचने का कोई वक्त होता है और न अपने परिवार के साथ बिताने के लिए कोई समय। लगातार बढ़ रहे मध्य-वर्ग के बाज़ार में देश-विदेश की काम्पनियों में पैदा होने वाले विलासिता के सामान को बेंचने के लिए और देश की "तरक्की" में चार-चाँद लगाने के लिए यह मज़दूर इंसानों की तरह नहीं बल्कि मशीनों की तरह काम में लगे हुये हैं। हर शहर में एक बड़ी आबादी होने के बाबज़ूद किसी का ध्यान इनके आस्तित्व की ओर नहीं जाता। गुड़गाँव में देशी-विदेशी कम्पनियों का मुनाफ़ा बढ़ाने के काम पर लगे लाखों मज़दूरों की जिन्दगी की यह एक छोटी सी झलक भर है। वास्तव में कपड़ा बनाने से लेकर आटोमोबाइल बनाने और बड़ी-बड़ी इमारतें बनेने तक अनेक उद्योगों में काम पर लगे लाखों मज़दूर यहाँ अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं, और उसी प्रकार की अमानवीय परिस्थितियों में बिना किसी सुविधा के मज़दूर बस्तियों में रहते हैं। पूरे देश में इस प्रकार के करोड़ों मज़दूरों को पूँजीवादी व्यवस्था में बिना किसी भ्रष्टाचार के सारे अधिकारों से बेदखल करके अंधेरी गन्दी बस्तियों में काम करते रहने के लिये धकेल दिया गया है।
मज़दूरों की इस स्थिति में संसदीय राजनीति में निर्लिप्त, खुद को भारत के मज़दूरों का प्रतिनिधि कहने वाली संसदीय वामपन्थी पार्टियों से जुड़ी किसी भी ट्रेड यूनियन का आधार इन मज़दूरों के बीच नहीं है। आज स्थिति यह है कि इन ट्रेडयूनियनों द्वारा कभी-कभी साल में एक या दो बार एक दिन की हड़ताल या संसद मार्च जैसे कर्मकाण्ड करके पूरे देश में अमानवीय परिस्थितयों में काम करने वाले मज़दूरों की क्रान्तिकारी पहलकदमी को कुचलने का काम किया जाता है। जो मज़दूरों के बीच यह भ्राम पैदा करता है कि कि मज़दूर ट्रेड यूनियनों का काम यही होता है (साल में दो बार कर्मकाण्ड करना!!)। जिन हालात में देश के करोड़ों मज़दूर काम करते हैं, और जिस तरह इनके बीच अपनी स्थिति को लेकर असंतोष बड़ रहा है, समय-समय पर उसकी झलक स्वतः-स्फूर्त संघर्षों के रूप में सामने आती रहती है। आज पूरे देश में वह परिस्थितियाँ फिर से विकसित हो रही हैं कि देश की व्यापक मज़दूर आबादी के अधिकारों के लिये संघर्ष करते हुये उन्हें राजनीतिक रूप से शिक्षित किया जा सकता है और एक देशव्यापी मज़दूर आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है। लेकिन यह संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ मज़दूरों को ज़ागरुक करना तो दूर बल्कि उन्हें उनके क्रान्तिकारी लक्ष्य से गुमराह करके पूँजीवादी व्यवस्था के लिये एक सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभा रही हैं। ख़ैर यह अपने आप में अलग से एक विचार करने का एक बड़ा विषय है, इसकी इतनी चर्चा ही यहाँ सम्भव है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी से अधिक लोगों का मासिक खर्च 4500 रु. से कम है। देश की इस 90 फीसदी आबादी को अपनी आमदनी किन परिस्थितियों में काम करके हासिल करती है इसका अन्दाज़ इन मज़दूरों को देख कर लगाया जा सकता है (द हिन्दू, 14 जुलाई 2013)। कोई भी संसदीय राजनीतिक पार्टी इन मज़दूरों की स्थिति के कारणों पर कोई बात नहीं करती। इस अमानवीय असमानता और मज़दूरों के शोषण पर चल रही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में हो रहे इस खुले भ्रष्टाचार का विरोध न तो केजरीवाल जैसे लोग करते हैं जो स्वयं को आम आदमी का नेता कहते हैं, और न ही कोई और संसदीय राजनीतिक पार्टी। दूसरे तो कई दशाब्दियों से यही कर रहे हैं, लेकिन नये उभरे आप पार्टी के नेता भी कभी देश की जनता की इस हालत पर कोई बात करने की जहमत नहीं उठाते। कांग्रेस हो या बीजेपी, सभी के शासन में देश के विकास से सापेक्ष रूप में मेहनत करने वाले इन 80 फीसदी से भी अधिक लोगों की बर्बादी में  इज़ाफा लगातार जारी है। आजकल हिन्दूवादी कट्टरपन्थी राजनीति की मुखिया बीजेपी मोदी के विकास के नाम पर भ्रामक प्रचार कर देश में एक साम्प्रदायिक माहौल बनाकर जनता को मूल मुद्दों से भटकाकर समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है, जिसका मुख्य उद्धेश्य है पूँजीवाद को खुले दमन का विकल्प देना जो आने वाले समय में घोर गरीबी और बर्बादी में जीने वाले मज़दूरों द्वारा उठाई जाने वाली न्याय की आवाज को कुचलने के काम आएगा। पूँजीवादी व्यवस्था का यह इतिहास रहा है कि जब लोगो को अपकी बदहाली बर्दास्त से बहर हो जाये तो उन्हें त्रिशूल और तलवार देकर हर-हर-महादेव और अल्ला-हो-अकबर के साथ आपस में लड़ा दो, और यह का काम तो हमारे यहाँ अभी से शुरू हो चुका है। देश में चलने वाले कई गैर सरकारी संगठन (NGO) भी कभी मज़दूरों की इन अमानवीय परिस्थितियों पर कोई सवाल नहीं उठने, बल्कि वास्तव में इनका अस्तित्व ही इसलिये है कि पूँजीवाद में जो आम मेहनतकश जनता बर्बाद होती है उसे कुछ सुधार कार्य करते हुये लोगों को शान्त बनाये रखें। मज़दूरों को यह सच्चाई समझनी होगी कि सभी संसदीय पार्टियाँ उनके लिये नहीं, बल्कि देशी-विदेशी बैंकरों, पूँजीवादी ठेकेदारों, उद्योगपतियों और दलालों की पार्टियाँ हैं, जो मज़दूरों की मेहनत से बने पूरे देश के सभी संसाधनो पर सरकार की मदद से अपने अधिकार को बनाये हुये है। संविधान के पन्नों में समाज को बनाने और चलाने वाली इस मेहनतकश आबादी को समानता का अधिकार मिला हुआ है, लेकिन इनके पास कोई सम्पत्ति नहीं है, और यदि है तो एक छोटा सा जमींन का टुकड़ा, जिसके कारण पूरे देश की यह आबादी आर्थिक रूप से पूरी तरह से पूँजीपतियों-ठेकेदारों के यहाँ उनकी मनमानी शर्तों पर अपना श्रम बेंचने के लिए मज़बूर हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के रहते इन मज़दूरों की स्थिति में कोई सुधार सम्भव है? आज ज़रूरी है कि यह सारे मज़दूर एक नये सिरे से एक व्यापर आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिये संगठित होकर पूँजीवादी शोषण दमन उत्पीणन के बिरुद्ध एक विकल्प खड़ा करने के लिये आगे आएँ।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण
, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
- मुक्तिबोध

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