Tuesday, January 24, 2012

भूखमरी और कुपोषण का मूल स्रोत: मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का सच

कुछ दिन पहले भूख और कुपोषण पर नेशनल फाउन्डेसन (Hunger and Malnutrition (HUNGaMA) report by the Naandi Foundation) द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में पांच साल से कम उम्र के 42 प्रतिशत बच्चों का बजन सामान्य से कम है और वह कुपोषण के शिकार हैं (See point 4 at the end) प्रधानमंत्री ने इसपर "दुःख" प्रकट करते हुए कहा कि यह देश के लिए "शर्म" की बात है। पिछले दिनों यह खबर कई अखबारों में सुर्ख़ियों में रही और इस "शर्मनाक" सच्चाई पर कई बहसे होती रहीं।
लेकिन सवाल सिर्फ "दुःख" या "शर्म" का नहीं है!! मुख्य मुद्दा यह है कि कुपोषण और गरीबी से समाज में कौन प्रभावित है, और इसका कारण क्या है? स्कूलों में "मिड-डे मील" योजना को दुरुस्त करने के माध्यम से इस "समस्या का समाधान" करने की बात कहकर समस्या के मुख्य कारण से सभी का ध्यान भटकाने के लिए कुछ काल्पनिक कारणों को गढ़ा जाता है, और फिर उनकी रिपोर्टे बनाकर कुछ समाधान सुझा दिए जाते रहते हैं। यह काम एक लंबे समय से हो रहा है, और आज भी जारी है (इस रिपोर्ट में भी इस प्रकार का सुझाव दिया गया है) (See point 2 at the end)जिसका नतीजा यह सामने है कि 1990 के बाद देश में भूखे लोगों की संख्या के अमुपात में वृद्धि ही हुई है (See point 3 at the end)
अब कुछ आंकड़ो पर नज़र डालें तो उन्हें देखकर सच्चाई पर पड़ा हुआ पर्दा हट जाता है, जिसके अनुसार बच्चों के कुपोषण और नवजात शिशुओं की मृत्यु का मुख्य कारण उन्हें जन्म देने वाली माताओं में खून की कमीं और कुपोषण है (See point 2 at the end)। अब महिलाओं में कुपोषण का कारण जानने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि यह ज्यादातर महिलायें, जो कुपोषिण की शिकार हैं, अपने परिवार सहित कारखानों या खोतों में मेहनत-मज़दूरी करके अपनी आजीविका कमाती हैं। और उनका पूरा परिवार मिलकर इतना नहीं कमा पाता कि खुद अपना और अपने बच्चों के लिए अच्छा भोजन और बीमारी में दवाइयां मुहैया करवा सके। जिसका नतीजा गरीबी और कुपोषण से लेकर भुखमरी तक पहुँचता है (इसके साथ लोगों को "शर्म" करने का एक कारण भी मिल जाता है!!)।
यदि किसी से सवाल किया जाए कि कि अनाज सहित सभी सामान और पूरे समाज के सभी संसाधन कैसे पैदा होते है, और कौन पैदा करता है, तो अपने सामान्य अनुभव से कोई भी यह बता सकता है, कि हर सामान का उत्पादन कारखानों और खेतों में होता है, जहाँ मज़दूर और किसान (या गरीब किसान जो दूसरों के खेत में मज़दूरी करता है) अपनी मेहनत से उत्पादन करते हैं, इसलिए हर चीज उनके श्रम से ही बनती है (See point 3 at the end)। और समाज का वह हिस्सा जो अपनी आवश्यकता की हर चीज ख़रीदने में सक्षम हैं, वह वस्तुओं को बनाने में लगे छुपे हुए अनेक लोगों के इस श्रम को कभी नहीं देखता। लेकिन, यदि देख पाता तो शायद खुद को इन कुपोषित, भूखे और बीमार गरीब बच्चों और उनके परवारों के लिए "शर्म" ही नहीं महसूस करता बल्कि स्वयं को परजीवी की स्थिति में भी न रहने देता, और ख़ुद को इसके लिए जिम्मेदार और अपराधी अवश्य महसूस करता... तब वह अपने आसपास मची लूट-खसोट को एक आलोचक की नज़र से सिर्फ देखता ही नहीं बल्कि उसको बदलने के लिए आगे भी आता...
आगे बढ़ने से पहले स्रोत की तह तक जाने के लिए कुछ और आंकड़े देखते हैं। आज भारत में 40 प्रतिशत किसानो के पास खेती के लिए कोई जमीन नहीं हैं, और वह अपना श्रम बेंचने वाले मज़दूर हैं। गरीब किसानो का दूसरा बड़ा हिस्सा नाममात्र की जमीन पर खेती करता है। आज ग्रामीण क्षेत्र के यह दोनो हिस्से गाँवों से उजड़कर रोज़गार की तलाश में लगातार शहरों की ओर आ रहे हैं, जिन्हें संम्भालना भारत जैसी कमजोर पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। यहाँ यदि मूल विषय से हटकर इस विषय को थोड़ा विस्तार से देखें तो यह सच्चाई भी माननी पड़ेगी कि गाँव से शहरों की ओर पलायन समस्या होने के साथ ही पूंजीवाद की ज़रूरत भी है। क्योंकि कारखानों के लिए मज़दूरों की जरूरत होती है, और जितने अधिक मज़दूर होंगे, उतना कम उनका वेतन देना पड़ेगा, और ज़्यादा मुनाफे के माध्यम से उतना अधिक संचय होगा। दूसरी ओर टेक्नोलाजी की प्रगति के साथ भूमंडलीकरण के दोर में विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए (समाज की आश्वाकता के लिए बिलकुल नहीं, जैसा कि कई लोग सोचते हैं!!) कुशल टेक्निकल और बोद्धिक श्रम करने वाले लोग चाहिए, जिसके लिए एक सीमा तक पूँजीवाद टेक्नीकल शिक्षा का प्रचार भी करता है, और मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए नए तरीको का इज़ाद करता है। लेकिन यह सरा कार्य इतने अराजक तरीके से होता है, जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं होता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लगातार बढ़ रही बेरोज़गारों और गरीबों की संख्या को देखकर समझा जा सकता है।
इसी के साथ जनता में भ्रम पैदा करके उनके श्रम से मुनाफ़ा निचोड़ने का काम जारी रखने के लिए कभी-कभी म.न.रे.गा. जैसी योजनायें बनायीं जाती हैं, जो पूंजीवाद के जीवन को बढ़ाने के लिए पैवंद का काम कराती हैं। लेकिन जमीनी वास्तविकता को देखा जाए तो इस पूरे परिपेक्ष में पूंजीवादी विचारकों और सरकार का हाल दलदल में फंसे उस व्यक्ति जैसा होता है, जो खुद को बचने के लिए जितने हाथ पैर चलता है उतना ही दलदल में फंसता जाता है। क्योंकि यह व्यवस्था किसानों का उजड़ना और मज़दूरो की तीव्र गति से बढ़ रही संख्या को रोक नहीं सकती और क्योंकि किसान के मज़दूर बनने के साथ ही वह कुंएँ का मेढक नहीं रह जाते और समाज को एक व्यापर दायरे में देखने और समझने लगते  है, इसलिए पूँजीवाद का विकल्प भी तलासते हैं। यह व्यवस्था बेरोज़गारी और गरीबी को भी कभी समाप्त नहीं कर सकती। क्योंकि पूँजी की सट्टेबाजी और सेयर बाजार के अड्डों पर एक स्वता स्फूर्त अराजकता और मुनाफ़ाखोरी की सत्ता शासन करती है। जिसके कारण मंदी और मंहगाई जैसी आर्थिक समस्याओं पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहता और आज लगातार छोटे मालिक तबाह हो रहे हैं, कई कारखाने बंद हर दिन बंद होते हैं और हर दिन बेरोजगारों की नई आबादी सड़कों पर काम ढूढती नज़र आती है। यहां इसके ज़्यादा विस्तार में जानें का स्थान नहीं है इसलिए इसे यहीं पर छोड़ देते हैं... लेकिन इन आंकड़ो से भी यही स्पष्ट होता है कि देश की 80 प्रतिशत से भी अधिक यह गरीब मज़दूरों और किसानो आबादी ही समाज का वह हिस्सा जो बदहाली का जीवन जीने के लिए मज़बूर है, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही हैं, और जिसकी बदहाली, शोषण और काम की परिस्थितियाँ उसे एक अमूलगामी बदलाव के लिए लगातार शिक्षित कर रही हैं। लेकिन इतना सब कुछ स्पष्ट होने के बाबज़ूद आज भी कुछ लोग, जो एक निर्धारित सीमा के बाहर आकर नहीं सोचते, वह इस अराजकतावादी व्यवस्था के कारण पैदा होने वाली अनेक समस्याओं का समाधान करने में लगे रहते हैं, लेकिन इसके स्थान पर एक नियोजित व्यावस्था का विकल्प तलास करने की कभी कोशिश नहीं करते।
सभी आंकड़े अंत में हमें एक ही नतीजे पर पहुँचाते हैं, कि समाज के मेहनत करने वाले लोग, जो कभी गांव में और कभी शहर में अपना श्रम बेंचकर वेतन कमाते है, वह कभी थोड़े सी मज़दूरी में, तो कभी बेरोज़गारी के कारण या अनिश्चित आजीविका (मिलने या न मिलने) के कारण गरीबी में अपना जीते हैं, और यही उन कुपोषित बच्चों का स्रोत हैं, जिसके कारण अंरराष्ट्रीय स्तर पर "सभ्य समाज" के "चमकते" देश की "छवि खराब" होने से कुछ लोग "आँसू" बहाते नज़र आते हैं। ध्यान देने वाली सच्चाई यह है कि जनता के सबसे बड़े हिस्से की इस बदहाली का कारण संसाधनों की कमीं नहीं है (जिन्हें वह खुद पैदा करते हैं), बल्कि वह व्यवस्था है जहां वह अपनी सारी मेहनत अपने लिए या समाज के अपने जैसे दूसरे लोगों के लिए नहीं करते, बल्कि दूसरों के मुनाफे के लिए करते हैं। ऐसे में सिर्फ कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए "दुःखी" होना या "शर्म" करना किस हद तक सही है, जबकि शर्मनाक सच्चाइयों की गंगा अपने स्रोत से निकल लगातार कर फैलती जा रही है।
ज कुछ भावनात्मक आंकड़ों को देखकर शर्मसार होने और "दुःख" से आँसू बहाने वाले अनेक "सभ्य लोगों" के संदर्भ में तोल्स्तोय के उपन्यास युद्ध और शांति की एक लाइन याद आ जाती है, जो उन्होंने कुछ इसी प्रकार के संदर्भ में लिखी है, कि "उनका हाल उस काउन्टेस जैसा था जो बछड़े को अपने सामने मरते हुए देख कर पछाड़ खाकर बेहोश हो जाती है, और शाम को अपने खाने की मेंज पर उसी बछड़े के गोस्त को बड़े चाव के साथ खाती है....." (Such magnanimity and sensibility are like the magnanimity and sensibility of a lady who faints when she sees a calf being killed: she is so kind-hearted that she can’t look at blood, but enjoys eating the calf served up with sauce.")
हमें मानना होगा कि अपने सामने किसी घटना को देखकर भावुक होने और अप्रत्यक्ष रूप में उसी से अपना मनोरंजन करने के अपने चरित्र को, छुपी हुई सच्चाई जानने और समझने के बाद भी, हम जारी नहीं रख सकते। अब नचे के सभी आंकड़ो पर एक नज़र डालें तो हमें पता चल जाएगा कि पूँजीवादी व्यवस्था का वर्तमान और भविष्य कितना अंधकारमय है, जिसे बदला न गया तो कितने और लोगों को हर रोज हो रही अप्रत्क्ष हिंसा का शिकार होना पड़ेगा, और सभ्य लोग सच्चाई को जाने बिना कभी "शर्मसार" तो कभी "दुःखी" होते रहेंगे,
स्रोत सूची:
1. भारत में हर दिन 4 करोड़ से अधिक पुरूष, महिलायें और बच्चे भूखे सोते हैं (Guardian, 4 Aprl 2011)। 52% विवाहित महिलायें और 72% शिशु खून की कमी से पीड़ित हैं। (NFHS Report, Times Of India, Jan 15, 2012)। पुरूषों और महिलाओं की इस समस्या को सरकार "मिड-डे मील" योजना से कैसे हल करेगी!!!
2. देश की 41 प्रतिशत ग्रामीण आवादी के पास कोई जमीन नहीं है (Guardian, 4 Aprl 2011)। यही 40 प्रतिशत ग्रमीण आबादी दूसरे के खेतों में काम करके अपना पेट भरने की कोशिश करती है और पूरे देश के साथ बाहर निर्यात करने के लिए अपनी मेहनत से अनाज पैदा करती है। यह लोग इस बात को नहीं जानते कि इनके द्वारा बैलों की तरह काम करने से पैदा होने वाले सामान पर ही कुछ लोग अय्याशी कर रहे है।
3. कुपोषण के मामले में भारत दुनिया के 80 देशों की सूची में 67वें स्थान पर है, । 1990 के बाद जनसंख्या में भूखे लोगों की संख्या में बृद्धि हुई है। (Times Of India, Jan 15, 2012)
4. 42 per cent of Indian children are underweight (The Hindu, January 10, 2012)

1 comment:

  1. Wanted a lot to comment but speechless on this article.

    Just thinking :
    Who is reponsible for all?
    Poor people?
    Educated and midle class?
    Government or upper class?

    SYSTEM....

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