Saturday, December 15, 2012

मक्सिम गोर्की के कुछ उद्धरण जो नींद से जागने के लिये मज़बूर करते हैं . . .


1928 में समाज के बारे में लिखे गये मक्सिम गोर्की के कुछ विचार,
"पूँजीवादी समाज में कुल मिलाकर मनुष्य अपनी अद्भुत सामर्थ्य को निरर्थक लक्ष्यों की प्रप्ति के लिये बर्बाद करता है। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये उसे गली में हाथों बल चलना पड़ता है, द्रुतगति के ऐसे रिकार्ड स्थापित करने पड़ते हैं जिनका कुछ कम या कुछ भी व्यावहारिक मूल्य नहीं होता, एक ही वक्त में बीसियों के साथ शतरंज के मैच खेलने, अद्भुत कलाबालियाँ खानी और काव्य-रचना के झूठे चमत्कार प्रदर्शित करने पड़ते हैं, और साधारणतया हर प्रकार की ऐसी बेसिरपैर की हरकतें करनी पड़ती हैं जिन से उकताये तथा ऊबे हुए लोगों को पुलकित किया जा सके।. . . . "
"मुक्ति का मार्ग आसान नहीं है और अभी इसका समय नहीं आया है कि आदमी सारा जीवन सुन्दर कुमारियों की सुखद संगति में चाय पीते या आइने के सामने स्वयं अपने रूप सर मुग्ध होने में बिताये, जिसके लिये बहुतेरे नौजवानों का मन मचलता होगा। जीवन की ठोस हक़ीक़त इस बात की अधिकाधिक पुष्टि कर रही है कि वर्तमान स्थिति में चैन का जीवन सम्भव नहीं, न तो एकाकी और न किसी संगी के साथ ही जीवन सुखी होगा, कूपमण्डूकी खुशहाली स्थाई नहीं हो सकती क्योंकि उस प्रकार की खुशहाली के आधार समस्त संसार में खत्म होते जा रहे हैं। इसका विस्वासप्रद प्रमाण अनेक लक्षणों से मिलता है : समस्त संसार कूपमण्डूक झुंझलाहट, उदासी तथा आतंक के चंगुल में है ­; धनी कूपमण्डूक हताश होकर इस निरर्थक आशा से मनोरंजन का सहारा ले रहा है कि इससे वह आने वाले कल के भय को दबा सकेगा, बिपथन और अपराध तथा आत्महत्याओं का चक्र चल रहा है। पुरानी दुनिया अवश्य ही जानलेवा रोग से ग्रस्त है और हमें उस संसार से शीघ्रातिशीघ्र पिण्ड छुड़ा लेना चाहिये ताकि उसकी विषैली हवा कहीं हमें न लग जाये।"
मानव और उसके श्रम पर,
"मेरे लिये मानव से परे विचारों का कोई अस्तित्व नहीं है। मेरे नज़दीक मानव तथा एकमात्र मानव ही सभी वस्तुओं और सभी विचारों का निर्माता है। चमत्कार वही करता है और वही प्रकृति की सभी भावी शक्तियों का स्वामी है। हमारे इस संसार में जो कुछ अति सुन्दर है उनका निर्माण मानव श्रम, और उसके कुशल हाथों ने किया है। हमारे सभी भाव और विचार श्रम की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं और यह ऐसी बात है, जिसकी कला, विज्ञान तथा प्रविधि का इतिहास पुष्टि करता है। विचार तथ्य के पीछे चलता है। मैं मानव को इसलिये प्रणाम करता हूँ कि इस संसार में कोई ऐसी चीज़ नहीं दिखाई देती जे उसके विवेक, उसकी कल्पनाशक्ति, उसके अनुमान का साकार रूप न हो।
"यदि "पावन" वस्तु की चर्चा आवश्यक ही है, तो वह है अपने आप से मानव का असन्तोष, उसकी यह आकांक्षा कि वह जैसा है उससे बेहतर बने। जिन्दगी की सारी ग़न्दगी के प्रति जिसे उसने स्वयं जन्म दिया है, उसकी घ्रणा को मैं पवित्र मानता हूँ। ईष्या, धनलिप्सा, अपराध, रोग, युद्ध तथा संसार में लोगों बीच शत्रुता का अन्त करने की उसकी इच्छा और उसके श्रम को पवित्र मानता हूँ।"

Saturday, December 1, 2012

"ब्रांण्डेड" कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक!!


यह हमारा भ्रम है कि आजकल सब कुछ ठीक है।” ―वोल्टेयर
जिस समाज में हर इंसान का सम्मान नहीं होता उसका विनाश निश्चित है। आइंस्टीन
(गुड़गाँव सरौल की एक मज़दूर लाँज जिसके 100 कमरों में लगभग 600 मज़दूर रहते हैं)
गुड़गाँव के उद्योग विहार से लेकर मानेसर तक लगभग दस हजार कम्पनियों में लाखों मज़दूर काम करते हैं। इस पूरे इलाके में देश के कई कोनों से आकर काम ढूढ़ने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यू.पी., बिहार, हरियाणा, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा जैसे कई राज्यों से काम की तलाश में आने वाले ज़्यादातर मज़दूर इस क्षेत्र में नये होते हैं और उन्हें अपने अधिकारों और श्रम कानूनों की कोई जानकारी नहीं होती और न ही उनके सामने आजीविका कमाने का कोई और विकल्प होता है, इसलिये वे किसी भी शर्त पर कारखानों में काम करने के लिए तैयार रहते हैं। गुड़गाँव के इस क्षेत्र में मौज़ूद सभी कम्पनियाँ इसका पूरा फ़ायदा उठा रही हैं और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपनी मनमर्जी के मुताबिक मज़दूरों से काम करवा रही हैं और देश की जीडीपी में अपनी मोटी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। आटोमोबाइल और मेडिकल जैसे कई उद्योगों के साथ कपड़ा उद्योग से जुड़ी अनेक कम्पनियाँ इस औद्योगिक क्षेत्र में मौजूद हैं। इन कपड़ा कम्पनियों में लाखों महिलाएँ और पुरुष मज़दूर पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए, पांच सितारा होटलों तथा शाँपिंग माँलों की चमक दमक के लिए और मध्य-वर्ग की ब्रांडेड ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई तरह के कपड़ों का उत्पादन करने में लगे हैं। अकेले गुड़गांव के उद्योग विहार औद्योगिक क्षेत्र में ही लगभग 2,500 कपड़ा कम्पनियों में मज़दूर काम करते हैं। इन कम्पनियों में तैयार ज़्यादातर डिजाइनर कपड़े यूरोप, अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों की कम्पनियों के लिये बनाये जाते हैं और वहाँ निर्याद किये जाते हैं। कई कम्पनियाँ सादा कपड़ा भी बनाती हैं, जिसे अन्य कम्पनियों को निर्यात कर दिया जाता है और इस कपड़े का इस्तेमाल कच्चे माल के रूप में जैकेट तथा दूसरे कपड़े बनाने में किया जाता है। हर साल यह कम्पनियाँ देश-विदेश में कपड़ो का कई हज़ार करोड़ का व्यापार करती हैं और भारत सरकार देश के विकास में इनकी भागीदारी के लिये इन्हें सम्मानित भी करती रहती है (http://gurgaon.nic.in/industry.htm)। हर दिन कई घण्टों तक इन्हीं "ब्राण्डेड" कपड़ों के प्रचार में लगा रहने वाला भारत का "स्वतंत्र" मीडिया भी इन कारख़ानों में लगे मज़दूरों की ज़िन्दगी और उनकी जीवन की स्थिति के बारे में कभी कोई ख़बर नहीं दिखाता और देश-विदेश में इन ब्राण्डेड कपड़ों के लिये एक बड़े बज़ार का निर्माण करने वाली मध्य-वर्ग की आबादी इन कपड़ों का निर्माण करने वाले लाखों मज़दूरों की जिन्दगी की सच्चाई से बेख़बर देश-विदेश के कुछ मुठ्ठी भर लोगों के विलासी जीवन की चकाचौंध को देखकर उससे सम्मोहित होती रहती है। बाल्ज़ाक  के शब्दों में आनन्द के हर क्षण के लिये अनेक उपेक्षाएँ करना ज़रूरी है।
(गुड़गाँव का मौलाहेड़ा गाँव और कापहेड़ा बार्डर जहाँ लाखों मज़दूर रहते हैं)
इन सभी कपड़ा कम्पनियों में से ज़्यादातर में 5 से 10 प्रतिशत मज़दूर ही पर्मानेन्ट होते हैं और 90 से 95 फ़ीसदी मज़दूरों को ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, जबकि जो काम यह ठेका मज़दूर करते हैं वह स्थाई रूप से लगातार पूरे साल चलता है। इन सभी ठेका मज़दूरों के लिए श्रम कानूनों का कोई मतलब नहीं होता। कोई दुर्घटना हो जाने पर कम्पनियाँ ठेके पर काम करने वाले इन मज़दूरों को कोई हर्जाना नहीं देतीं, और न ही मज़दूर के पास कोई आई-कार्ड होता है जिसके तथ्य पर वे ठेकेदार से पैसा ले सके। इन कम्पनियों में सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं होते और आने जाने के लिये सिर्फ एक गेट होता है। पिछले दिनों जब पाकिस्तान में एक कपड़ा फैक्टरी में आग लगने से 280 के आसपास मज़दूरों की मौत हो गई उसके बाद हरियाणा प्रशासन ने सुरक्षा के इंतजाम ठीक करने के आदेश दिये। लेकिन यहाँ मौज़ूद किसी भी कम्पनी में न तो सुरक्षा के मानकों का पालन होता है और न ही कोई श्रम अधिकारी इनकी जाँच करते हैं।
काम के दौरान यदि कोई मज़दूर अस्वस्थ हो जाता है तो उनके लिये किसी डाक्टर या प्रारम्भिक चिकित्सा का भी कोई इन्तजाम इन कम्पनियों में नहीं होता। ज़्यादातर कपड़ा कम्पनियों में 50 से 1500 तक मज़दूर काम करते हैं, लेकिन कुछ बड़ी कम्पनियों में लगभग 10,000 मज़दूर तक काम करते हैं। ज़्यादातर कम्पनियों में 12-12 घंटे की दो सिफ्टो में या 8-8 घंटों की तीन शिफ्टों में काम होता है। 8 घंटे की शिफ्ट में काम करने वाले मज़दूरों को अधिक काम होने पर सिंगल रेट से ओवर टाइम की मज़दूरी देकर दो शिफ्टों में 16 घण्टे काम करवाया जाता है और मज़दूर इससे मना नहीं कर सकते। ज़्यादातर सभी कम्पनियों में नये मज़दूरों को इसी शर्त पर काम पर रखा जाता है कि वे दो शिफ्टों में 16 घण्टे काम करने के लिये तैयार हों। कई मज़दूर 16 घण्टे खड़े होकर लगातार काम नहीं कर पाते और बीच में ही छोड़ देते हैं जिनका बकाया पैसा उन्हें कभी नहीं दिया जाता और वे ठेकेदारों के चक्कर लगाने के बाद अन्त में अपनी बकाया मज़दूरी और पी.एफ. ई.एस.आई. के पैसे छोड़ देते हैं। 8 घण्टे की एक शिफ्ट के दौरान दिन में एक बार 30 मिनट का लंच होता है, और इसके अलवा मज़दूर लगातार खड़े होकर काम करते हैं। जब में मज़दूरों से दो शिफ्टों ओवरटाइम करवाया जाता है तो उन्हें बीच में 30 मिनट का गैप दिया जाता है जिसके बाद दूसरी शिफ्ट में उन्हें लगातार काम करना पड़ता है। ज़्यादातर कम्पनियों में मज़दूरों को पूरे महीने में एक भी छुट्टी नहीं मिलती और निर्धारित समय से थोड़ा भी लेट होने पर आधे दिन का वेतन काट दिया जाता है। समय और नियमों का हवाला देकर वेतन काटने का यह काम वही कम्पनी मैनेजमेण्ट या ठेकेदार करते हैं जो अनेक मज़दूरों की बकाया मज़दूरी, पी.एफ. और ई.एस.आई. पहले ही गैर-कानूनी ढंग से लूट चुके होते हैं और मज़दूरों की मेहनत की इसी लूट पर पल रहे हैं। इस तरह मज़दूर दोहरे से शोषण के शिकार हैं एक ओर श्रम कानूनों के लागू न होने से काम और जीवन की बदतर स्थिति और दूसरी ओर कम्पनी मैनेजमेण्ट और ठेकेदारों द्वारा गैर-कानूनी ढंग से की जाने वाली लूट।
हरियाणा सरकार द्वारा 2012 में निर्धारित किए गए मानक के अनुसार एक अकुशल मज़दूर को हर हफ्ते में 6 दिन 8 घण्टे काम के बदले 4,847 रुपये महीना (या 186 रुपया प्रति दिन) मिलना चाहिये और श्रम कानून के अनुसार ओवर टाइम दुगनी दर से मिलना चाहिये। यानि यदि एक मज़दूर पूरे महीने 6 दिन हफ़्ते के हिसाब से 12 घण्टे प्रति दिन काम करता है तो उसे दोगुना, यानि 9,694 रुपये, वेतन मिलना चाहिये। और यदि एक मज़दूर हफ्ते में सात दिन काम करता है तो 12 घण्टे प्रति दिन काम के बदले में उसकी पूरे महीने की मज़दूरी 11,904 होनी चाहिये (www.financialexpress.com, 22 फरवरी 2012)। यह कागजों पर बने कानूनों की बात है, लेकिन गुड़गांव औद्योगिक क्षेत्र की वस्तविक स्थिति बड़ी काफ़ी अलग है। यहाँ कुछ कम्पनियों में मज़दूर ठेके पर सीधे काम पर रखे जाते हैं, जिन्हें 8 घण्टे की शिफ्ट में 30 दिन काम के बदले 4,000 से 4800 के आसपास मज़दूरी दी जाती है। कई कम्पनियों में मज़दूरों को कई ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, क्योंकि कम्पनी सभी मज़दूरों को सीधे काम पर नहीं रखना चाहती। इससे मज़दूरों को एकजुट होने से रोखने का फ़ायदा कम्पनियों को मिलता है। ठेकेदारों के माध्यम से रखे जाने वाले मज़दूरों को 8 घण्टे की शिफ्ट में काम के बदले 3,000 से 4,000 रुपयों के आसपास मज़दूरी दी जाती है, जिसमें से पी.एफ. और ई.एस.आई. कटने (जो भविष्य में मज़दूरों को कभी नहीं मिलता) के बाद मज़दूरों को लगभग 3,000 से 3,800 रूपये महीना मज़दूरी मिलती है। कई कम्पनियाँ ठेका मज़दूरों से 12 घण्टे की शिफ्ट में महीने में 30 दिन काम करवाती हैं और उन्हें निर्धारित मज़दूरी से आधी से भी कम, यानि 5,500-5900 के आसपास मज़दूरी दी जाती है, जो श्रम कानून के अनुसार 11,904 (186 रुपया प्रति दिन और ओवरटाइम डबल रेट के हिसाब से) होनी चाहिये। यदि श्रम कानून द्वारा निर्धारित मज़दूरी को भी मान लिया जाये तो आठ घण्टे काम के बदले में मिलने वाली 4,800 रु मज़दूरी जिसमें से पीएफ और ईएसआई काट लिया जाता है, यह गुड़गाँव जैसे शहर में इंसान की तरह एक सामान्य जीवन जीने के लिये किसी भी स्थिति में नाकाफ़ी है। ऐसे में ज़्यादातर मज़दूर ऐसी कम्पनियों की तलाश करते हैं जहाँ ओवरटाइम करवाया जाता हो या 12 घण्टे की शिफ़्ट में काम होता हो, क्योंकि 8 घंटों काम के बदले में मिलने वाली मज़दूरी इतनी कम होती है कि चिकित्सा-शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के बाज़ारीकरण के इस दौर में कोई भी मज़दूर उससे अपने परिवार के लिए भोजन, कपड़ा, इलाज, आवास और शिक्षा जैसी मूलभूत ज़रूरते भी पूरी नहीं कर सकता। ऐसे में इन सभी मज़दूरों पास 12 से 16 घंटे काम करके कुछ सौ रुपये ज़्यादा मज़दूरी कमाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। यह लाखों मज़दूर वर्तमान व्यवस्था में थोड़ी सी मज़दूरी के बदले ठेकेदारों, दलालों और कम्पनियों की ग़ुलामी करने पर मज़बूर हैं।
मज़दूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मज़दूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज़्यादातर मज़दूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपर वाइज़रों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मज़दूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज़्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मज़दूरों से तीन से चार शिफ्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइज़र लगतार मज़दूरों पर नज़र रखते हैं, और यदि कोई मज़दूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज़ काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मज़दूर होते हैं जिसके लिये ज़्यादा कुशल मज़दूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मज़दूरों से ही लाइन में शिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मज़दूर ने बताया कि औसत रूप में हर मज़दूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मज़दूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।
इस क्षेत्र के किसी भी कपड़ा कारखाने में ठेका मज़दूरों की यूनियन नहीं है और बड़ी-बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियने कभी इन मज़दूरों की समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं देतीं जिससे कारण यहाँ कम्पनियों के मैनेजमेण्ट और ठेकेदार अपनी पूरी तानाशाही मज़दूरों के ऊपर थोपते हैं। देश के "विकाश" की चमक-दमक में मज़दूरों के खुले शोषण और भारतीय "जनतन्त्र" में मेहनत-मज़दूरी कर जीने वाली गुड़गाँव की इस मज़दूर आबादी के साथ होने वाली अंधेरगर्दी यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि इन मज़दूरों की किसी भी समस्या की कोई सुनवाई न ही श्रम विभाग या पुलिस में होती है और न ही कोई नेता या मन्त्री कभी इनकी ख़बर लेने आता है। आई-फोन और ब्रांण्डेड कपड़ों से लेकर 3-डी टीवी जैसे विलासिता के सामानों के प्रचार में घण्टों का समय देने वाला मेनस्ट्रीम मीडिया भी 6 से 10 प्रतिशत की दर से "प्रगति" कर रहे भारत में रहने वाले इन मज़दूरों के जीवन की सच्चाई को नहीं दिखाता। लेकिन जब दमन उत्पीड़न और शोषण के शिकार यह मज़दूर अपनी कानूनी हक जैसे ओबर-टाइम डवल रेट से या यूनियन बनाने की संबैधानिक माँग के लिये शड़कों पर आते हैं और कोई आन्दोलन करते हैं तो पुलिस-फेर्स से लेकर श्रम विभाग और मन्त्रियों से लेकर मीडिया तक सभी कम्पनियों के दलालों के रूप में मज़दूरों के खिलाफ प्रचार और दमन की कार्यवाहियों को ज़ायज ठहराने के लिये सामने आ जाते हैं। ओरियण्ट क्राफ्ट में इसी साल 19 मार्च में हुई घटना इसक प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहाँ ठेकेदार द्वारा एक मज़दूर के चाकू मारने के बाद मज़दूरों ने विरोध प्रदर्शन किया था जिसको दबाने के लिये कम्पनी द्वारा पुलिस और बाउन्सरों (गुण्डो) का सहारा लेकर मज़दूरों का खुला दमन किया गया था और कई मज़दूर गिरफ्तार कर लिये गये, जबकि ठेकेदार को दूसरे दिन ही छोड़ दिया गया था। इस घटना के बाद पुलिस और कम्पनी मैनेजमेण्ट द्वारा मज़दूरों में फैलाये गये खौफ़ का अन्दाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि सभी मज़दूर घटना के समय मौजूद न होने की बात कह रहे थे और कोई भी जानकारी देने से डर रहे थे।
पूरे भारत में किसी क्रान्तिकारी मज़दूर यूनियन तथा किसी मज़दूर संगठन के न होने के कारण मज़दूरों अपनी कानूनी माँगों को कम्पनियों और पूँजीवादी सत्ता से सामने रखकर दवाब बनाने में असमर्थ हैं। मज़दूरों की इस मज़बूरी का पूरा फ़ायदा पूँजीवादी प्रशानिक-राजनीतिक तंत्र उठा रहा है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में मौज़ूद बड़ी-बड़ी यूनियने जो मजदूरों को गुमराह करने के लिये कम्पनी और मजदूरों को "एक परिवार" और "एक-दूसरे के सहयोगी" के रूप में प्रचार करती हैं, और अपनी दलालों की भूमिका का पूरा निर्वाह कर रही हैं। 1990 के आर्थिक सुधारों और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू करने के बाद भारत की पूँजीवादी राज्य सत्ता ने देशी-विदेशी निवेशकों को आकर्शित करने और 8-9 प्रतिशत की "विकाश" दर हासिल करने के लिये मज़दूरों के सभी अधिकारों को एक-एक कर लगातार सीमित किया है जिसका पूरा फायदा यह कम्पनियाँ उठा रही हैं और अतिरिक्त मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये मज़दूरी का स्तर निचा से निचा रखने का प्रयास किया जाता है। कपड़ा कम्पनियों में काम कर चुके कई मज़दूर बताते हैं कि कुछ साल पहले जिन कम्पनियों में स्थाई मज़दूर रखे जाते थे उन सभी कम्पनियों ने लगातार छटनी करते हुये आज ज़्यादातर मज़दूरों को ठेके पर कर दिया है। कपड़ा उद्योगो में काम में लगे मज़दूरों के शोषण के यह हालात सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ पूरी दुनिया में सस्ते श्रम और सस्ते कच्चे माल की तलास में ज़्यादा अतिरिक्त मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगी हैं। इसका एक उदाहरण अभी हाल ही में बंग्लादेश के ढाका शहर में एक कपड़ा फैक्टरी में घटी घटना है जहाँ आग लगने से 110 मज़दूरों की मौत की हो गई थी, जिसका कारण मज़दूरों की सुरक्षा के कोई इन्तजाम न होना था। इस फैक्टरी में वाल-मार्ट के लिये कपड़े बनाये जाते थे।
इन तथ्यो की रोशनी में पर देखने पर स्पष्ट स्थिति इस तरह सामने आते हैं कि इस पूरे क्षेत्र में कपड़ा उद्योग में ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर काम कर रहे हैं, सभी मज़दूर घोर शोषण के शिकार है और उन सभी की काम और जीवन की स्थिति लगभग एक समान हैं, और उनकी मांगें भी एक समान हैं। इन मज़दूरों के बीच लगातार प्रचार-प्रसार कर उन्हें उनकी माँगों के इर्द-गिर्द गोलबंद करते हुये क्षेत्रीय स्तर पर उनके ट्रेड के आधार पर एक क्रांतिकारी नेतृत्व में संगठित किया जा सकता है, जो पूरी व्यवस्था के वर्ग चरित्र को और स्पष्ट रूप में उनके सामने लाने में मदद करेगा और भविष्य के बड़े आन्दोलनों के लिये उन्हें शिक्षित करने का काम करेगा।
“...एक व्यक्ति की ज़िन्दगी का मूल्य पृथ्वी पर मौज़ूद सभी अमीरों की सारी सम्पत्ति से करोड़ों गुना अधिक है। चे ग्वेरा

Monday, October 22, 2012

मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' से . . .


सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती।
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,...
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास।
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी...
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी...

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प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,
प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर
सड़क पर खड़ा हूँ,
मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!
सचमुच, मुझको तो ज़िन्दगी-सरहद
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती!!
मैं परिणत हूँ,
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।

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अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में

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गलियों के अँधेरे में मैं भाग रहा हूँ,

इतने में चुपचाप कोई एक

दे जाता पर्चा,

कोई गुप्त शक्ति

हृदय में करने-सी लगती है चर्चा!!

मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको!

आश्चर्य!

उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व

दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव

पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।

यह सब क्या है!!

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