Wednesday, October 19, 2011

एक लहर . . . . .


by पाब्लो नेरूदा

मैं यहाँ बिल्कुल किनारे आकर खड़ा हूँ
जहाँ और कुछ कहने के लिए है ही नहीं
सबको जलवायु और समुद्र ने सोख लिया है
और चाँद तैरता हुआ चला जा रहा है नेपथ्य में
किरणों की माला नहीं
चाँदी-सी उजली है
सिर्फ़ चाँदी-सी
यह रात
और इसी बीच
अँधेरा चूर-चूर हो जाएगा
मात्र एक लहर की चोट से
डैने खुल जाएँगे
एक आग पैदा होगी
और सब कुछ भोर की तरह
फिर से नीला हो जाएगा

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Taken From KavitaKosh

Monday, October 17, 2011

एक सरल आलोचना (रंगभूमि से)

प्रेमचंद के शब्दो में, (एक जनवादी लेखक के बारे में, जो सिर्फ लिखता था सोचता था, और बिना किसी परेशानी के "समाज-कल्याण" के बारे में सोचता रहता था..):
"प्रभु सेवक और कितने ही विलास-भोगियों की भाँति सिद्धान्त रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में उनका लालन पालन हुआ था, जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ था, उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस की उद्दंडता की जरूरत होती है, उससे वह रहित थे। वह विचार क्षेत्र में भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उनपर गर्व करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय था, और बस! आज तक कभी किसी ने उनके आचरण की आलोचना न की थी, किसी ने उनको व्यंग का निसाना न बनाया था, और मित्रों पर अपने विचार-स्वातंत्र्य की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफी थे।" (उपन्यास "रंगभूमि" से)
"न्याय करना उतना कठिन नहीं है जितना (अपने किए हुए) अन्याय को स्वीकार करना"

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