Sunday, November 6, 2011

जनसंख्या वृद्धि और संसाधनो की कमीं को लेकर फैलाई गईं अफवाहें . . .


पिछले कुछ दिनो से दुनिया की जनसंख्या 7 विलियन पहुँच जाने पर अलग-अलग प्रकार के आंकड़ों को लेकर अनेक पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों में बहशे चल रहीं हैं, जो जनसंख्या वृद्धि को हर समस्या का कारण सिद्ध करने की कोशिश में लगे हुए हैं।
अब द हिन्दू (1 नवंबर 2011: देखें) और विश्व बैंक द्वारा दिए गये कुछ आंकड़े देखें,
# सबसे अमीर ऊपर के 20 प्रतिशत लोगों द्वारा उपभोग किए जाने वाले संसाधनों का हिस्सा कुल उपलब्ध संसाधनों का 75 प्रतिशत है।
# सबसे गरीब नीचे के 20 प्रतिशत लोगों द्वारा उपभोग किए जाने वाले संसाधनों का हिस्सा कुल उपलब्ध संसाधनों का 1.5 प्रतिशत है। और,
# बाकी 60 प्रतिशत लोगों द्वारा उपभोग किए जाने वाले संसाधनों का हिस्सा कुल उपलब्ध संसाधनों का सिर्फ 23.5 प्रतिशत है।
[आगे बढ़ने से पहले यह ध्यान देना होगा कि यह आंकड़े पूरे विश्व के है, और यदि सिर्फ भारत के आंकड़े लिए जायें तो यह अन्तर जमीन और आसमान के समान होगा]
ऐसे में हर जगह समझदार लोगों के बीच ऐसी अफ़वाहें सुनने में मिल रही हैं जिनसे लगता है कि पूरी दुनिया में हर समस्या की जड़ सिर्फ जनसंख्या ही है, और यदि इसके लिए कुछ न किया गया तो पृथ्वी पर उपयोग के संसाधनों की कमी पड़ जायेगी। इस प्रकार की अफ़वाहें फैलाकर शोषण, दमन और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनो रूपो में ऊपर के कुछ लोगों द्वारा की जा रही चोरी को छुपाने के लिए ज्यादातर पूँजीवादी प्रचारक जी-तोड़ मेहनत करके कुछ अधूरे और अस्पष्ट आंकड़े प्रस्तुत करने की होड़ में लगे हुए हैं।
हर व्यक्ति, जो अपने दिमाग का थोड़ा भी स्तेमाल करेगा उसे यह आंकड़े देखकर स्वयं ही पता चल जाएगा कि समस्या जनसंख्या नहीं है बल्कि कारण कुछ लोगों द्वारा प्रकृतिक संपदा पर पूँजी की सहायता से किया गया क़ब्ज़ा है। जो अपने मुनाफे और अति विलासिता के लिए लगातार बहुसंख्यक जनता के शोषण में लिप्त हैं और किसानों व मज़दूरों द्वारा पैदा किए जाने वाले संपूर्ण सामाजिक उत्पादन के 75 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर रहे हैं । और दूसरी तरफ 80 प्रतिशत मेहनतकश जनता कुल उत्पादन के सिर्फ 25 प्रतिशत हिस्से में अपना जीवन यापन कर रही है। जबकि इसमें हर साल बर्बाद हो जाने वाले अनाज और नष्ट किए जाने वाले अन्य संसाधनों को नहीं गिना गया है।
विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार वर्तमान समय में पूरे विश्व की कुल श्रम शक्ति का 40 प्रतिशत अकेले भारत और चीन उपलब्ध करवाता, है जहां की मेहनतकश जनता अपने देशों के निजी पूँजीवादी उद्योगों और खेतों में काम करके पूरे विश्व के कुछ सम्पत्तिधारियों को (जो अपनी पूँजी इन देशों में निर्यात करके मुनाफ़ा कमाते हैं) अति विलासिता के सामान मुहैया करवाने के लिए जी तोड़ मेहनत करती हैं, जिन्हें बदले में अपने लिए दो बक्त की रोटी से कुछ अधिक नहीं मिलता।
इन आंकड़ो से इतना तो स्पष्ट है कि जनता की बदहाली जनसंख्या के कारण नहीं बल्कि पूँजीवाद की उस स्वभाविक गति का परिणाम है जो लगातार छोटे संपत्तिधारियों को बे-दखल करके पूरी सामाजिक प्रकृतिक सम्पदा को कुछ पूँजीधारकों के स्वार्थ, लोभ और निजी हितों की भेंट करती है और समाज की बहुसंख्यक आबादी को हर प्रकार की संपत्ति से मुक्त करके एक मज़दूर के रूप में वेतन-ग़ुलाम बना देती है।
लेकिन यह केन्द्रीकरण खुद अनेक तबाहिओं को जन्म देते हुए जनता के सामने इसे हटाकर एक नई व्यवस्था बनाने के अनेक कारण उपलब्ध कराता है। हम सभी लोग आज पूँजीवादी देशों में व्याप्त मंदी और महंगाई के कारण पैदा हो रहे बेरोज़गारी और गरीबी जैसे अनेक समस्याओं सहित जनता में बढ़ रहे असंतोष को देख सकते हैं, और स्पष्ट कहा जा सकता है कि पतन की कगार पर खड़ा और निजी-मालिकाने के हितों के लिए कुछ लोगों की सेवा में लिप्त पूँजीवाद मानव सभ्यता का अंतिम भविष्य नहीं हो सकता ।

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